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इन्द्रमणि उपाध्याय की कवितायें

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सिताब दियारा ब्लॉग संभावनाओं का ब्लॉग है | यह ब्लॉग खुशकिस्मत हैं कि कई नयी कोंपलें यहाँ से फूटी हैं | आज प्रस्तुत है युवा संभावनाशील कवि इन्द्रमणि उपाध्याय की कवितायें .....
        

 एक ......

चीज़ों के होने से        
                                   


और......कितनी बदल गई दुनिया,
कितने बदले हम
बड़ी-बड़ी चीजें छोटी होती गईं
जैसे गमले में लगा हुआ हो बरगद
जैसे बालकनी में रोप दी गई होनीम
जैसे उग आया हो पीपल दीवाल में

इसी के साथ छोटी-छोटी चीजें
बड़ी हो गई बहुत बड़ी...........
रोज़मर्रा की ज़िंदगी में शामिल हो गयी
कभी-कभार सुनाई देने वाली चीखें
हत्या,बलात्कार,भ्रष्टाचार,

धर्म के नाम पर
धर्म का उन्माद

अब मुट्ठी में आ गई दुनिया
चाँद-तारे अंगुलियों के इशारे पर हैं।

पर बड़ी चीजों के छोटे होने में,
एकदम से गायब हो गई है,
रिश्तों की महक
पड़ोसी रसोई से उठती खुशबू,
मेरी नन्ही सी बेटी की मुस्कान
जो दुनिया की सबसे बड़ी चीज होनेवाली थी….




दो .....

ईश्वर आवें दलिद्दर जाएँ


आज कई सालों बाद भी
देवोत्थान एकादशी की सुबह-सुबह
गन्ने की अघोड़ीलेकर,सूप बजा-बजाकर
भाभी भगा रही है-
दलिद्दर
पहले माँ भगाती थी और उससे पहले दादी
कहती थी कि
ईश्वर आवें दलिद्दर जाएँ ईश्वर आवें दलिद्दर जाएँ
वह मानती थी कि
सूप की आवाज से डरकर दलिद्दर भाग जाएगा
धन-लक्ष्मी के साथ ईश्वर आएगा।
उसी के आस-पास
कटकर आता खेतों से धान
तो
लगता था कि
दलिद्दर भाग गया है।

आज दादी नहीं है और माँ भी नहीं है,
तब भाभी यह परंपरा निबाहरही रही है
सूप बजा-बजाकर दलिद्दर भगा रही है।
पर
नहीं आ पाता है खेतों से धान
वह अटक जाता है किसी डंकल-गैट में
महँगे खाद-बीज पानी में
बैंक के कर्ज में
महाजन की उधारी में।

दूर कहीं राजधानी में
टीवी चैनलों केकैमरे की फ्लैश में
हमारे देश के कृषि मंत्री
किसानों की हालत पर चिंता व्यक्त करते हुए,
पेश करते हैं उनके लिए सस्ते कर्ज की योजना,
और अगले दिन
भईया खड़े मिलते हैं
बैंक में कर्ज की अर्जी लिए
(साथ में माथे पर लिएहुए
बेचारगी व चिंता की बढ़ी हुई लकीर)।

इधर एकादशी की सुबह-सुबह
पूरे...(?)जोश से सूप बजाती हुई
भाभी..... बुदबुदा रही हैं.....
ईश्वर आवें दलिद्दर जाएँ,ईश्वर आवें दलिद्दर जाएँ


तीन .....

गुम हुई कॉपी.....



मैंने पाई एक गुम हुई कॉपी
जाने किस बच्चे की थी

कॉपी देखता हूँ तो लगे हुए हैं
सुलझे अनसुलझे सवाल,
भाषा, विज्ञान व जाने क्या-क्या
कॉपी के पिछले हिस्से में
टेढ़ी-मेढ़ी चित्रकारी
अधूरे फिल्मी गानों का संग्रह
कुछ अनगढ़ अभिव्यक्ति


बीच में कहीं-कहीं फटे हुए पन्ने
जिनके द्वारा बच्चा शायद
जहाज बनाकर उड़ाता हो
पाइलट बनने के
सपने देखता हो।

कॉपी खो जाने से
परेशान बच्चा डर रहा होगा
मम्मी से पैसे माँगने से
कि वे डाँटेंगी या
पापा मारेंगे।
यूँ टूट जाएँगे
कितने सपने
इंजीनियर चित्रकार संगीतज्ञ डॉक्टर
या पाइलट..... बनने के
मात्र...... कॉपी गुम हो जाने से।





चार .....

रचनाकार



जेठ की दोपहरी में
गाँव के सिवान में
हवा के झोंकों के साथ-साथ
पोखरे के जल में झाँकता सूरज
जल के साथ-साथ
मंद-मंद . . . . हिल रहा है

लग रहा है
मानो

रचनाकार

नई सृष्टि कर रहा है।


पांच ....

प्रकृति



धरती चाहती थी जीवन
आसमान चाहता था रंग
हवा चाहती थी सुगंध
मन चाहता था सौंदर्य

मैंने सबके अरमान पूरे कर दिए,
एक मुट्ठी बीज मिट्टी में बो दिए|






परिचय और संपर्क

इन्द्रमणि उपाध्याय

जन्म- ११ नवम्बर १९८५
जन्मस्थान – बस्ती, उ.प्र.
सम्प्रति केन्द्रीय विद्यालय गुवाहाटी में शिक्षण कार्य
मो.न. - 09508665369



अलविदा --- 'रविशंकर उपाध्याय'

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             श्रद्धांजली लेख – अलविदा ‘रविशंकर उपाध्याय’


                एक तारा टूटने से भी वीरान होता है आकाश .....  



उस शाम, जब ये मनहूस खबर आयी कि तुम नहीं रहे, तो वह महज एक सूचना भर नहीं थी | वह तुम्हारे दोस्तों, तुम्हारे अनगिनत चाहने वालों के ऊपर एक वज्रपात के गिरने की खबर थी | ऐसा लगा कि आज इस दुनिया से सिर्फ तुम ही नहीं गए, हमारे लिए थोड़ी-बहुत यह दुनिया भी चली गयी | हमारे लिए थोड़ा-बहुत यह बी.एच.यू. भी चला गया, थोड़ा-बहुत यह बनारस भी चला गया | विश्वास से रोज-ब-रोज खाली होती जा रही दुनिया में तुम्हारा होना, उस भरोसे का होना था, जिसमें तुम्हारे अनगिनत अनुज सथियों ने तुम्हारे नक़्शे-कदम पर चलने का प्रयास करते हुए अपना मुस्तकबिल सौंपा था | जिसमें तुम्हारे अग्रज यह भरोसा कर सकते थे, कि तुम उन्हें कठिन से कठिन परिस्थिति से भी उबार लोगे | यह अनायास नहीं था, कि इतने बड़े विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में तुम केंद्र की धुरी बनकर उभरे थे | किसी छात्र से उसके अग्रज और अनुज एक साथ इतना प्यार कर सकते हैं, तुम्हे देखकर यह जाना जा सकता था | बेशक यह दुनिया तुम्हारे जाने के बाद भी उतनी ही गति से, उतनी ही त्वरा से चल रही है, लेकिन ज्ञानेन्द्रपति के शब्दों को उधार लेते हुए कहूं, तो तुम्हारे होने जितनी जगह इसमें आज भी खाली है, और शायद खाली ही रहेगी |




जब यह दुखद सूचना पहुंची, उस समय मैं कार्यालय से निकल रहा था | सूचना मिलने के साथ ही पलटकर एक फोन बी.एच.यू. में मिला लेना तो जरुरी समझा | सो ‘अमृत सागर’ को याद किया | ‘भैया, सब कुछ ख़त्म हो गया |’ अमृत की भर्रायी हुयी आवाज ने खबर की पुष्टि की | कुछ भी समझ में नही आ रहा था कि मैं उन्हें किन शब्दों में दिलासा दिलाऊं | अक्षरों, शब्दों और वाक्यों की दुनिया में रहने वाला मैं उस समय उन सबसे बिलकुल ही खाली हो गया था | किसी आदि-मानव की तरह मुझे भी भावों की शरण में ही पनाह मिली | जैसे-तैसे घर पहुंचा, और वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह द्वारा उद्धृत की गयी सबसे खतरनाक क्रिया ‘जाना’ को रविशंकर उपाध्याय के साथ जोड़कर पत्नी के सामने प्रयुक्त किया | वह एक बार रविशंकर से मिली थी | सामने खड़ी पत्नी ने मेरे भीतर की स्त्री को रास्ता दिखाया | पुरुष होने के ‘सूखेपन’ को ‘नमी’ नसीब हुयी | मुझे याद नहीं है कि पिछली दफा मैं कब इतना रोया था | मुझे तो यह भी याद नहीं है कि दुनिया से किसी के ‘जाने’ को लेकर मैंने अपने दुखों की खाई में इससे बड़ा गोता कब लगाया था | और सच मानिये, यदि यह सिर्फ मेरी कहानी होती, तो मैं इसे कहने के बजाय भीतर ही भीतर जज्ब कर जाता | जैसे कि दुनिया के तमाम लोग अपने आत्मीयों के असमय ‘चले जाने’ की पीड़ा को जज्ब कर जाते हैं | लेकिन यह तो ‘रवि’ के उन अनगिनत मित्रों की दास्तान है, जो शायद इसे कभी लिख नहीं पायेंगे | इसलिए आवश्यक है कि मैं उनकी भावनाओं को यहाँ शब्द दूं | यहाँ आप चाहें तो मेरी जगह पर उनमे से किसी का भी नाम लिख सकते हैं |




रविशंकर से मेरी पहली मुलाक़ात वर्ष 2011में विश्व-पुस्तक मेले के दौरान दिल्ली में हुयी थी | एक सहमें और अनजान पाठक की हैसियत से मैं उस मेले में शामिल होने पहुंचा था | ‘रवि’ भी अपने दोस्तों के साथ वहां पहुंचे थे | मुझे उनके बारे में थोड़ी-बहुत जानकारी थी, कि उन्होंने गत वर्ष काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में ‘युवा कवि संगम’ का सफल आयोजन किया था | थोड़ा-बहुत वे भी मुझे जानते थे | मैं उनके साथ हो लिया, की बजाय यह कहना अधिक समीचीन होगा कि  ‘रवि’ ने मुझे अपने साथ ले लिया | मैं यह देखकर दंग रह गया था, कि वे जिस भी बुक स्टाल पर जाते थे, छूट की अधिकतम सीमा के साथ किताबें उन्हें सायास ही मिल जाती थीं | कहना न होगा कि मुझे भी | जब मैंने आभार व्यक्त किया, तो वे झेंपते हुए बोले कि, ‘भैया आप मुझे नाहक ही चढ़ा रहे हैं | और फिर आगे के वर्षों में ‘पुस्तक-मेले’ में जाने से पहले मैं उन्हें जरुर फोन कर लेता था, कि आप कब जा रहे हैं | वर्ष 2012और 2013में मैंने उन्हीं के साथ मेले में खरीददारी की थी | इस वर्ष वे किसी कारण से नहीं जा सके थे | और इसका मलाल मेरे सहित उनके अनगिनत दोस्तों को था |




भभुआ, बिहार में जन्में ‘रविशंकर’ की उच्च शिक्षा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से हुयी थी | इसी महीने की 16तारीख को उन्होंने ‘कुंवर नारायण के काव्य में वस्तु व्यंजकता’ विषय पर अपना शोध-कार्य दाखिल किया था | एक बेहद मृदुभाषी, अत्यंत संकोची, कवि-हृदय और मिलनसार व्यक्तित्व के धनी ‘रविशंकर उपाध्याय’ को विश्वविद्यालय में ‘आचार्य’ के नाम से जाना जाता था | संभव है कि इस उपाधि की शुरुआत किसी व्यंग्य या जुमले की तरह हुयी होगी, लेकिन यह ‘रविशंकर’ के व्यक्तित्व की ताकत ही थी, कि उन्होंने इस उपाधि को ‘आदर और सम्मानसूचक’ शब्द के रूप में बदल दिया था |  जिस दौर में आदर और सम्मानसूचक शब्दों की आँखें मरी हुयी मछलियों जैसी पथराई पड़ी हों, उस दौर में उन्होंने ‘व्यंग्य और जुमले’ की तरह इस्तेमाल किये जाने वाले शब्द में ‘आदर और सम्मान’ का अर्थ भर दिया था | न सिर्फ छात्र-छात्राओं के मध्य, वरन अपने अध्यापकों के बीच भी वे इसी ‘उपाधि’ से जाने जाते थे | यहाँ तक कि विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष बलराज पाण्डेय ने गत वर्ष जब विश्वविद्यालय को केंद्र में रखकर ‘कथादेश’ पत्रिका में एक कहानी लिखी थी, तब उसमें ‘आचार्य’ नाम का यह पात्र भी आया था |



उनकी छवि एक कुशल संगठनकर्ता, आयोजनकर्ता और नेतृत्वकर्ता की बनी थी | उन्होंने विश्वविद्यालय में कई बड़े आयोजनो की कड़ियाँ जोड़ी | ‘युवा कवि संगम’ से लेकर ‘व्याख्यानमालाओं’ तक | दिल्ली से निकलने वाली ‘संवेद’ पत्रिका ने जब विश्वविद्यालयों में ‘रचनात्मकता की नई पौध’ श्रृंखला अंतर्गत अंक निकालने की योजना बनाई, तब ये ‘रविशंकर’ ही थे, जिन्होंने अपने संपादन में बी.एच.यू. से उसका पहला अंक निकालकर शुभारम्भ किया था | लेकिन ये सब वे बातें हैं, जो सामने से दिखती थीं | इनके सहारे हम ‘रविशंकर’ के बाहरी व्यक्तित्व को ही जान पायेंगे | ‘रविशंकर’ के होने का भीतरी अर्थ वहां से शुरू होता था, जहाँ से सामने दिखती हुयी चीजें समाप्त होती थीं , कि जहाँ से नेपथ्य की शुरूआत होती थी | इतने बड़े और शानदार आयोजनों के बाद भी ‘रवि’ ने उसका श्रेय कभी अपने नहीं लिया | उन्होंने उसे एक सामूहिक कार्यवाई के रूप में अंजाम दिया और उसी रूप में श्रेय का बंटवारा भी | उनका नेतृत्व इतना सक्षम और बेजोड़ था कि युवा से लेकर अग्रजों तक की पूरी पीढ़ी उसमें अपने आपको भागीदार पाती थी | यदि आप ‘रवि’ को व्यक्तिगत रूप से नहीं जानते होते, और उनके द्वारा संचालित किये जा रहे किसी कार्यक्रम में शिरकत करने के लिए विश्वविद्यालय पहुँच जाते, तो शायद आपको वहां एक दर्जन ‘रविशंकर’ तैयार खड़े मिलते | अतिथियों के स्वागत से लेकर मंच-संचालन तक की जिम्मेदारियां इन ‘दर्जनों रविशंकरों’ में बंटी हुयी देखी जा सकती थी | वे ‘वन मैन शो’ के नायक नहीं थे, वरन नायकों की फ़ौज के ‘एक साधारण सिपाही’ थे |



जिस दौर में एक काम करने पर दस लिखा जाता हो, उस दौर में दस काम करने के बाद भी वे अपने खाते में एक लिखते हुए संकोच से भरे होते थे | ‘रविशंकर’ होने का अर्थ इसी मायने में विशिष्ट है, अनुकरणीय है | उनके जाने के बाद जो लोग ऐसी आशंकाएं उठा रहे हैं कि उनके बिना हिंदी विभाग की रचनात्मकता रुक जायेगी, या कि विश्वविद्यालय की गतिविधियाँ थम जायेंगी, वे लोग किन्ही साधारण प्रतिमानों के भीतर ही सोचने के आदी हैं | ‘रविशंकर’ और उनकी परम्परा की विशिष्टता इसी मायने में अलग हैं कि वह एक सामूहिक कार्यवाई के रूप में काम करती रही है, और उसके लिए किसी के जाने का मतलब ‘रिले रेस के बेटन को हस्तांतरित किये जाने’ जैसा ही है | रचनात्मकता की यह दौड़ लगातार चलती रहेगी, इस विश्वास को ज़िंदा रखने की कोशिश ही ‘रविशंकर’ होने के मायने तय करती है | उम्मीद की जानी चाहिए कि ‘रविशंकर’ के साथी ठीक उसी उत्साह और जज्बे को दिखाते हुए आगे बढ़ते रहेंगे, जिसे ‘रवि’ ने अपने जीवन लक्ष्य के रूप में चुना था |



इतना सब लिखते हुए जब ‘रविशंकर’ की याद आती है, तो दिल में एक ‘हूक’ सी उठती है | कि जैसे जिगर के मध्य कुछ कटता हुआ, कुछ टूटता हुआ महसूस होने लगता है | बेशक हम उनके जज्बे को जानते हैं, उनकी परम्परा को जानते हैं, उनके होने के अर्थ को जानते हैं, लेकिन क्या करें कि हम भी एक आदमी हैं, जिसने अपना भाई, अपना सबसे अजीज, अपना सबसे करीबी दोस्त खो दिया है | उस उम्र में, कि जिस उम्र में हम अपने दुश्मन के लिए भी इस दुनिया से रुखसती न चाहें, तुम वहां चले गए जहाँ जाने वाले से अब तो ये भी नहीं पूछा जा सकता है कि “यह भी कोई जाने की उम्र होती है मेरे दोस्त ...?” हरिवंशराय बच्चन की उन पंक्तियों से हम वाकिफ हैं कि “ टूटे हुए तारों पर अम्बर शोक नहीं मनाता है” | लेकिन हम तो आज के दिन अग्रज कवि कुमार अम्बुज की उन पंक्तियों के साथ जाना चाहेंगे, जिसमें वे ‘भगवत रावत’ के लिए कहते हैं कि
                  
                   

                    “एक तारा टूटने पर भी वीरान होता है आकाश    

       

        अलविदा मेरे भाई ... अलविदा मेरे दोस्त .....अलविदा रविशंकर उपाध्याय ....... |





रामजी तिवारी
बलिया , उ.प्र.
मो. न. 09450546312      
                                                                 




'उपासना'की दो कवितायें

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युवा कथाकार ‘उपासना’ को हम लोग उनकी बेहतरीन संवेदनशील कहानियो के कारण जानते हैं | उन कहानियों के लिए, जिनमें भाषा का कमाल तो है ही, गँवई समाज की अद्भुत समझ भी है | लेकिन आज उनकी इन कविताओं को पढ़कर कह सकता हूँ कि वे एक संवेदनशील कवयित्री भी हैं | ‘उम्मीद करता हूँ कि माफीनामा’ कविता पढ़कर आप भी मुझसे सहमत होंगे | इन कविताओं ने उनसे हमारी उम्मीदों का विस्तार और व्यापक कर दिया है |   


          आईये पढ़ते हैं, सिताब दियारा ब्लॉग पर युवा साहित्यकार      
                       ‘उपासना’ की दो कवितायें



एक ...


माफ़ीनामा 



सुनो न सौरभ,
हर रात जब मैं,
सुबह उठने के लिए,
सोने जाती हूँ,
तब याद आती है मुझे,
तुम्हारी पानी सी मुस्कुराहट!
तुम्हारी टेढ़ी-तिरछी लिखावट,
तुम्हारे उल्टे-पुल्टे क...ख...ग.
तुम्हारी चार लाइन की पटरी से,
उतरी हुई ए...बी...सी.
और इन सबसे ज्यादा,
याद आती है,
तुम्हारी आँखों में पसरी हुई हैरानी,
जब तुम्हें हमेशा दुलारने वाली मिस ने,
सटाक से जमाई थी छड़ी,
तुम्हारी नन्हीं-नन्हीं गुलाबी हथेलियों पर,
तुम रोये नहीं थे जरा भी,
बस भकर-भकर ताकने लगे थे मेरा मुंह,
अम्मा कहती हैं कि-
हाथ के पाँचों अंगुरी ना होखे बराबर,
“लेकिन महतारी के सबसे होखेला बराबर प्रेम”,
लेकिन अब,
लगता है मुझे कि-  
अब तक फुसलाती रही हैं अम्मा हमें.
किसी न किसी संतान से,
माँ को हो ही जाता है विशेष प्रेम.
हाँ, मैं तुम्हें सबसे अधिक प्रेम करती हूँ,
इसलिए नहीं कि...
तुम गोलू-मोलू से बड़े प्यारे,
और चलते हो तुलमुल-तुलमुल.
इसलिए कि...
तुम्हारी चुप्पी से भी ज्यादा,
बातूनी है तुम्हारी मुस्कुराहट,
मैं जब वाटर बौटल की ओर,
देखती हूँ उम्मीद से,
और सोचती हूँ कि किस बच्चे से कहूं,
तब तक पता नहीं कैसे,
तुम पहचान जाते हो वह उम्मीद,
और आखिरी टेबल से लाकर,
थमा देते हो मुझे मेरी बौटल.
कोई बच्चा जब अपनी रबर भूल जाता है,
और गलती के बाद,
उलझा हुआ इधर-उधर देखता है,
तुम बिन कहे फ़ुदक कर...
थमा देते हो उसे अपनी रबर,
अपनी प्यारी मुस्कुराहट के साथ.
लेकिन सौरभ,
आज मुझे ये सारी बातें नहीं करनी हैं,
मुझे तुमसे मांगनी है माफ़ी,
हालाँकि मैं शत प्रतिशत आश्वस्त हूँ,
कि मुझे मिल ही जायेगी माफ़ी!
क्योंकि मैं हूँ शातिर...
दुलार कर अपने खाते में जोड़ लूंगी माफ़ी,
और तुम हो इतने मासूम, कोमल...
कि दुलार से पिघल कर कर ही दोगे मुझे माफ़!
सुनो...
तुम्हारे शिक्षकों के पास हैं,
ढेरों नाकामियां, निराशाएं, उपेक्षाएं,
अधजगे रातों की कतरने,
जब इनका बोझ हमारी आत्माओं पर,
तुम्हारे मुस्कुराहट से,
पड़ने लगता है भारी,
तब एक जबर,
बड़ी बेहयायी से हावी हो जाता है,
तुम्हारी कोमल पीठ पर,
या नन्हीं-नन्हीं गुलाबी हथेलियों पर.
ठीक वैसे ही...
जैसे हमारे नामी विद्यालय में,
एडमिशन्स कम होने का बोझ बढ़ा दिया जाता है,
शिक्षकों की झुकी हुई पीठ पर!
तुम्हारा बस्ता मेरे बस्ते से,
बहुत है हल्का.
इस अश्लील वज़ाहात की नज़र ही सही,
तुम कर देना मुझे माफ़.




दो ....

सारे बिहारी मित्रों के लिए...  



हावड़ा अमृतसर मेल,
शाम के ठीक सात बजे,
छूटती थी एक स्टेशन से,
और भिनसहरे पहुंचा देती थी,
बक्सर स्टेशन पर,
बक्सर स्टेशन के बाहर,
बलिया-बलिया चिकरते,
ट्रेकरों की भीड़ थी,
थोड़ी दूर पर पाकड़ का पेड़ था,
कुहरे में छिपे कउड़ फूंकते लोग थे,
और नज़ाकत से जागती हुई भोर थी,
तब लालू यादव रेल मंत्री नहीं हुए थे,
और न ही चलती थी सियालदह बलिया,
तब...जब,
बलिया आने के लिए,
नापनी होती थी,
पटना, आरा, बक्सर की दूरियां,
आरा सरकते-सरकते,
रेल की खिड़की के फांकों से,
चिपक जाती थी,
दो जोड़ी टुकुर-टुकुर आँखें...
एक मासूम सवाल,
बड़ीअदा से उछलता था,
“हइजो भोजपुरी में बोलल जाला”
लम्बी रेलगाड़ी की गति से,
ताल मिलाकर खैनी ठोंकते,
तबके काले बालों वाले बाबूजी,
शाइस्तगी से मुंडी हिला देते थे...”हाँ”!
चितरंजन के बाद,
पहला स्टेशन जामताड़ा आता था,
जो कि,
ढेर नागीचा था चितरंजन से,
सो अपना तो था ही!
झाझा के हुए ललन चाचा...
पटना के जे० सिंह, आरा के डिस्को पंडित,
और डुमरांव के बोका दुबे...
यानि की कुल हिसाब इतना,
कि सारा बिहार चिन्हा परिचित है,
छठ नहर थी दो घाटों के बीच,
सो दूर एक परदेश के कारखाने में,
जहाँ अट्ठाईस राज्य और सात केन्द्रशासित प्रदेशों से,
खुदरा पैसे लोग अपने-अपने कुएँ भरने आते थे,
ऐसे में बिहारी मित्रों के एकवट जाने पर,
उस एकवटेपन में अंट जाने की,
तमाम बेतहाशा वजहें थीं हमारे पास,
जैसे कि लेलो हमारी माँ,
जिसने भी बस ‘हाँ नु’ और‘हाँ न’ का अंतर होता था,
हम सबकुछ बच्चे थे जो ‘हाँ नु’ का अभ्यास साधते थे,
हमने मैट्रिक की परीक्षा फर्स्ट डिवीजन से पास की थी,
और हम दुर्गापुर एन०आई०टी० से बी० टेक० कर रहे थे,
वर्द्धमान विश्विद्यालय से अंग्रेजी साहित्य पढ़ रहे थे,
और खोज रहे थे ब्रह्मांड में,
दुनिया जैसी सचमुच की कोई चीज,
जो कि सुनने में आता था कि-
कहीं हेरा गई है!
उस दुनिया में,
अभी भी पटरियों पर,
दौड़ती होगी,
हावड़ा अमृतसर एक्प्रेस,
जहाँ सेकेण्ड क्लास की पटरी वाली सीट पर,
खिड़की में मुंह गड़ाए,
बच्चे स्टेशन अगोरते थे,
और निहारते थे दो खम्भों को जोड़ती हाई वोल्टेज वाली तार!
या खेतों में दौड़ते अपने जैसे बच्चों को,
जो खूब लम्बी ट्रेन को,
टाटा,बाय-बाय करते थे,
खीरे वाला खच्च-खच्च खीरा काटता था,
और काला नून बुरक कर,
हमें खीरा थमा देता था,
घर पर,
एक दूसरे के खून के प्यासे हम जंगली बच्चे,
ट्रेनमें बक्सर की प्रतीक्षा में,
आराम से बाँट कर खा लेते थे खीरा,
और रोते भी नहीं थे,
कि“अम्मा कोरा”!
स्मृतियाँ भगजोगनी हैं,
भुकभुकाएं...
तो अंजोर कर देती हैं भादो की रात,
पर जानते हैं?
हमने, भूगोल भी पढ़ा था,
और हम जानते हैं,
कि धरती गोल है,
और गोल धरती पर,
बड़े क्षेत्रफल वाला एक महान देश भी था,
और बक्सर से दिल्ली की दूरी,
नौ सौ पचास किलोमीटर थी,
और अब उस दुनिया से खबरें आ रही थीं,
कि ट्रेन को दिल्ली से ही वापस लौटा देने की साजिश हो रही थी.
क्योंकि...
पूरब से आने वाली ट्रेनों में,
एक संक्रमण भी आता है,
जो मचाता है उत्पात,
और बजबजाता है महानगरों की सड़कों पर,
टिड्डियों की तरह!
जो सोता है ठेले पर,
और सपनियता है कि,
घर पर पैसे भेजने हैं,
और ठाढ़े मू जाता है.
फिर सपनों के देश में,
पहुँचते हैं पैसे एक लाश समेत,
सरकार हमारी अर्जी है,
कि हमें अच्छी अंग्रेजी आती है,
थोड़ी बहुत हिंदी भी,
हमारे पास प्रबन्धन की खूब भारी डिग्री है,
और हमें आरक्षण का लाभ भी मिलना चाहिए...
क्योंकि,
पुरबिया हम दुअन्नी भर नहीं हैं,
और बिहारी माइनस में हैं.




परिचय और संपर्क

उपासना  

जन्म-स्थान – बलिया, उ.प्र.
शिक्षा-दीक्षा -- चितरंजन , बंगाल से
चर्चित युवा कथाकार
सम्प्रति बलिया में शिक्षण कार्य
                 


तादेउष रुजेविच की कवितायेँ

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सिताब दियारा ब्लाग अपनी इस 200वीं पोस्ट पर इससे जुड़े सभी लेखकों, लेखिकाओं, समर्थकों और पाठकों का आभार व्यक्त करता है | इस उम्मीद के साथ, कि भविष्य में भी आपका यह स्नेह बना रहेगा |
           


                    तादेऊष रुजेविचकी कवितायेँ
       
     
यूरोप के महान कवि तादेऊष रुजेविचका जन्म 1921 में पोलैंड में हुआ.उन्होंने कविता और नाटक दोनो विधाओं में लिखकर पोलिश साहित्य को पूर्णतः बदल दिया .तादेऊष रुजेविचने रचनाकार की आतंरिक लोकतांत्रिक स्वतन्त्रता और उसकी नैतिक-मानवीय चेतना को सर्वोच्च प्राथमिकता दी है. उन्होंने सत्ताकेंद्रित राजनीति मे मौजूद किसी भी तरह की हिंसा को कभी भी स्वीकृति नहीं दी. दूसरे विश्वयुद्ध के परिणामों को वे कभी सह नहीं पाए. नाजीवाद ने जब आश्वित्ज़ मे बर्बर जन-संहार किया तब सारी दुनिया में यह प्रश्न पूछा जाने लगा था कि क्या अब भी कविता लिखी जा सकती हैं?तादेऊष रुजेविचने पोलिश कविता के नए रूप के आविष्कार के साथ कविता को संभव बनाया. उनके भाई की हत्या भी गेस्टापो ने कर दी थी. उनके पास अद्भुत काव्यात्मक ईमानदारी है. उनकी मृत्यु 24अप्रैल 2014 को हुई.



वापसी

अचानक खिड़की खुल जाएगी      
और माँ बुलायेगी
आने का समय हो गया है
दीवार हट जाएगी 
मैं गंदे जूते समेत
स्वर्ग में प्रवेश करूंगा 
मैं मेज पर आऊंगा
और बेरूखी से सवालों के जवाब दूंगा

मैं ठीक हूं मुझे छोड़ दो
अकेला. सिर को हाथों में पकड़े मैं 
बस बैठा रहता हूं. मैं उन्हें कैसे बता सकता हूं 
उस लंबे और उलझे
रास्ते के बारे में

यहां स्वर्ग में मातायें 
बुनती हैं हरे स्कार्फ

मक्खियां भिनभिनाती हैं.

पिता ऊंघते हैं स्टोव के पास
छह दिनों की मेहनत के बाद.
नहीं - मैं उन्हें हरगिज नहीं बता सकता
कि लोग
एक दूसरे के खून के प्यासे हैं.



लट


जब वाहनों में लायी गयी
सभी महिलाओं के
सिर मुंडवाये गये
चार मजदूरों ने संटियों की झाड़ुओं से
बुहारा 
और बालों को बटोरा 

साफ शीशे के नीचे
रखे हैं सख्त बाल उनके
जिनका दम घुटा गैस चम्बरों में
पिनें और कंघियां उलझी हुई हैं
इन बालों में

बाल रौशनी से चमकते नहीं हैं 
हवा उन्हें लहराती नहीं है
किसी हाथ
ने छुआ नहीं है उन्हें

न ही बारिश या होंठ ने

भारी भरकम पेटियों में 
पड़े हैं रूखे बाल
दम घुटने वालों के
और कुम्हलाई चोटी की 
रिबन वाली एक लट है
जिसे स्कूल में खींचा था
शरारती लड़कों ने.



उत्तरजीवी

चौबीस साल का हूं मैं
कत्ल के लिए ले जाया गया
मैं बच गया. 

खोखले पर्यायवाची हैं ये शब्द:
आदमी और जानवर
प्यार और नफरत
दोस्त और दुश्मन
अँधेरा और उजाला.

एक ही तरीका है आदमियों और जानवरों का वध करने का
मैंने देखे हैं:
कटे हुए आदमियों से भरे ट्रक
जिन्हें सहेज कर नहीं रखा जाएगा.

विचार शब्द मात्र हैं:
सदगुण और अपराध
सच और झूठ
सौंदर्य और बदसूरती 
साहस और कायरता.

सदाचार और अपराध समान तुलते हैं
मैंने इसे देखा है:
एक आदमी में जो एक साथ था
अपराधी और सदाचारी.

किसी शिक्षक और गुरु की तलाश है मुझे
लौटा दे जो मेरी देखने, सुनने और बोलने की क्षमता
फिर से रख दे नाम वस्तुओं और विचारों के
अलग कर दे प्रकाश को अंधकार से.

चौबीस साल का हूं मैं
कत्ल के लिए ले जाया गया
मैं बच गया.
.

पारस पत्थर


इस कविता को
सुला देने की जरूरत है

इससे पहले कि
यह शुरू कर दे
चिंतन करना
इससे पहले कि
यह उम्मीद करे
तारीफों की 

जिंदा हो जाये 
भूलने के पल में

शब्दों के प्रति संवेदनशील
उचटती निगाह डालता है
तलाश करता है
पारस पत्थर की
अपनी मदद के लिए

अरे राहगीर तेजी से कदम बढ़ा
मत उठा लेना इस पारस पत्थर को
वहां एक अतुकांत
अनावृत्त कविता
तब्दील हो जाती है
राख में.


स्वर


वे एक दूसरे की चीरफाड़ करते हैं और पीड़ा देते हैं
शब्दों और चुप्पियों से
मानो उनके पास हो
एक और जीवन जीने के लिए
वे ऐसा करते हैं
मानो वे भूल गए हों
कि उनके शरीर
मरणशील हैं 
कि आदमी को भीतर से
आसानी से तोड़ा जा सकता है.

एक दूसरे के साथ क्रूर हैं 
और कमजोर हैं वे
पौधों और जानवरों से भी
उन्हें मारा जा सकता है एक शब्द
मुस्कान या निगाह से.

 रूपांतरण

मेरा छोटा बेटा दाखिल होता है
कमरे में और कहता है
'आप गिद्ध हैं
मैं चूहा हूं’

मैं अपनी किताब परे रख देता हूं
मुझमें उग जाते हैं
पंख और पंजे
उनकी मनहूस छायाएं
दीवारों पर दौड़ती हैं
मैं गिद्ध हूं
वह चूहा है

'आप भेड़िया हैं
मैं बकरी हूं’
मैंने मेज के चक्कर लगाये
और मैं भेड़िया बन जाता हूं
खिड़कियां चमकती हैं
नुकीले दांतों की तरह
अंधेरे में

वह दौड़ता है अपनी मां के पास
सुरक्षा के लिए
सिर को छिपा लेता है मां की गोद में.


मुलाकात

मैं उसे पहचान नहीं सका
मैं जब यहां आया
यह बिलकुल संभव है
कि इतना लंबा वक्त लग जाये इन फूलों को सजाने में
इस अनगढ़  फूलदान में
'मुझे ऐसे मत देखो'
उसने कहा
मैं छोटे कटे बालों को सहलाता हूं
अपने सख्त हाथों से
'उन्होंने मेरे बाल काट दिए'वह कहती है
'देखो मेरे साथ क्या किया है उन लोगों ने'
अब फिर से उस आसमानी वसंत ने
धड़कना शुरू कर दिया है उसकी गर्दन की
पारदर्शी त्वचा के नीचे हमेशा की तरह
जब वह आँसू पी लेती है
वह इस तरह क्यों घूरती है
मुझे लगता है मुझे चले जाना चाहिए
मैं जरा जोर से कहता हूं
   
और मैं उसे छोड़ कर चल देता हूं
मेरा गला रुंध जाता है.
                             



अंग्रेजी से अनुवाद:

सरिता शर्मा

प्रकाशित कृतियाँ .....

एक ....कविता संकलन – सूनेपन से संघर्ष
दो ... आत्मकथात्मक उपन्यास- जीने के लिए

सम्प्रति – राज्य सभा सचिवालय में कार्यरत     


बिजली संकट और सकारात्मक सोच

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             ‘बिजली-संकट और सकारात्मक सोच’




मैं आजकल सकारात्मक सोच में विश्वास करने लगा हूँ | बिलकुल अपने प्रधानमंत्री जी की तरह, जो पानी से आधे भरे गिलास के बारे में कहते हैं कि यह आधा पानी से भरा है और आधा हवा से | उसी तर्ज पर कल मैंने फेसबुक पर एक स्टेटस लगाया था कि कल, लगभग एक महीने बाद हमारे क्षेत्र में दिन में बिजली आयी थी | आज मैं सोच रहा हूँ कि इस देश की जनता को इस बात से परिचित कराऊँ कि हमने भी चौबीस घंटे बिजली देखी है |


सुबह-सुबह सबसे पहले मैंने यह प्रश्न अपने बेटे से पूछा, कि तुम्हे वह दिन, वह महीना याद है जब हमारे यहाँ चौबीस घंटे बिजली रही थी | उसने कहा “पापा, प्लीज ! ये बाते हम लोग एक घंटे बाद भी तो कर सकते हैं, जब बिजली चली जायेगी | अभी मुझे थोड़ा टी.वी. देख लेने दीजिये | जब स्कूल शुरू हो जाएगा, तब पता नहीं इस बिजली का शेड्यूल क्या होगा | और हां .... जरा ट्यूशन सर को बोल दीजिएगा कि वे थोड़ा पहले आया करें | वे ठीक उसी समय पर आते हैं, जब शाम को एक घंटे के लिए बिजली आती है |”


मैं थोड़ी देर तक अपने दिमाग पर जोर डालता रहा | फिर लगा कि चालीस पार आदमी को अपने दिमाग पर इतना जोर नहीं डालना चाहिए | मैंने उस डाले गए ‘जोर’ को दिमाग पर से हटा लिया | इतने में बिजली कट गयी | बेटा बाहर निकला | “हां ...तो आप क्या पूछ रहे थे | यही न कि मैंने चौबीस घंटे बिजली कब देखी है | तो सुनिए, जब हम लोग अंडमान से वापस आते समय कोलकाता में रुके हुए थे, तब मैंने वहां चौबीस घंटे बिजली देखी थी | बाकी आपके इस महान गाँव में बिजली की क्या जरुरत .....| हुंह ....|”


यह सोचकर कि आजकल के लड़के किसी भी गंभीर प्रश्न को हवा में उड़ा देते हैं, मैंने पत्नी की ओर रुख किया | वह मुझे अच्छे से समझती है | शायद मेरी जिज्ञासा को भी समझेगी | उसने कहा ... “रात भर बिजली नहीं थी | नींद से बुरा हाल है | फिर सुबह पांच बजे से ही इस कीचन में घुसी हूँ, और आपको यह सवाल सूझ रहा है |” मैंने कहा कि “प्लीज .... मैं थोड़ा सकारात्मक सोचना चाहता हूँ | और तुम्ही हो, जो इस काम में मेरी मदद कर सकती हो |” वो मुस्कुरायी | “आप मेरे से बड़े हैं, लेखक है, दुनिया जहान की चिंता करते हैं, इस सवाल का जबाब ढूँढने के लिए मैं आपके कन्धों पर अपना सिर रखती हूँ | आप जरुर कामयाब होंगे ...| और हां ....जब जबाब मिल जाएगा, तब मुझे भी बता दीजिएगा |”


मैंने पिता की तरफ रूख किया | अमूमन उन्हें सवाल समझाने में तीन कोशिश करनी पड़ती है | लेकिन इस बार उन्होंने ‘सम-संख्या’ का ख्याल रखा | तीसरी बार जब मैं समझाने चला, तो उन्होंने टोक दिया कि मैं आपके सवाल को समझ चुका हूँ | बोले, “ देखिये हमारे घर बिजली १९८४ में आयी थी | उसी साल, जिस साल इंदिरा गांधी की हत्या हुयी थी | इंदिरा एक बहादुर नेता थी | उसने पाकिस्तान को नाकों चने चबवा दिया था | १९७१ में इसी इंदिरा गांधी के प्रयास से बांग्लादेश बना था | आज ये लोग क्या बात करेंगे | इंदिरा ने जो देश के लिए किया, वह दूसरा कोई नेता नहीं कर सकता |” मैं समझ गया ...| बचपन की स्मृतियाँ तुरत कौंधी | हमारे गाँव में जिस किसी के घर भी विवाह होता था, उसके दरवाजे पर ‘मथुरी तेली’ का वही लाउडस्पीकर आता था, जिसमें तवे जैसी चीज पर कैसेट रखा जाता था | उसी कैसेट के ऊपर सुई रख दी जाती थी, और वह बजता रहता | जब कैसेट घिस जाता, तो सुई फंस जाती, और वह लाउडस्पीकर एक ही पंक्ति को दुहराने लगता | एक बार ‘नाम’ फिल्म का ‘चिट्ठी आयी है’ वाला गाना बज रहा था कि, ‘मैं तो बाप हूँ, मेरा क्या है / तेरी माँ का ......’ | और तभी कैसेट फंस गया | जब उसने दस बार “तेरी माँ का ...तेरी माँ का” किया, तो बगल में ‘पूड़ी’ छान रहे ‘लालू हलुवाई’ से रहा नहीं गया, और उन्होंने उसे बंद करने के लिए कुछ भी समझ में नहीं आने के बाद बैटरी की चिमटी ही निकाल दी | बाद में उन्होंने बताया कि मैं जहाँ भी जाता हूँ, इसके लिए तैयार रहता हूँ कि अब ‘तेरी माँ का ...’ वाली पंक्ति आयेगी | तो आजकल पिताजी का कैसेट भी इसी तरह ‘इंदिरा गांधी’ पर फंस जाता है |


अंतिम उम्मीद के रूप में अब ‘माँ’ ही बची थी | मैंने सोचा, आजकल ‘माताओं’ की चर्चा भी बहुत है | कोई साड़ी भेज रहा है, कोई साल भेज रहा है | कोई एक सप्ताह में एक बार माँ से मिलने जा रहा है,तो कोई माँ के बुलावे पर ‘बनारस’ चुनाव लड़ने ही चला आ रहा है | फिर मैं तो ‘माँ’ के साथ ही रहता हूँ, इसलिए मुझे इसका उत्तर यहाँ से जरुर मिल जाएगा | माँ को प्रश्न समझाने में कुछ ख़ास मशक्कत नहीं करनी पड़ी | मैं जानता था, कि उनकी ‘समझाईश’ का सिरा कहाँ से पकड़ा जाता है | मैंने उनके ‘कक्षा -४ में मिले तमगों’ के बारे में बात आरम्भ की | उन्होंने निराश नहीं किया | कहने लगी, “ बिजली के बारे में भी बताउंगी | लेकिन पहले यह जान लीजिये कि वह ‘तगमा’ मुझे कैसे मिला था और कैसे खो गया | कक्षा चार में मैं सबसे अधिक नंबर पायी थी | तब उसी को प्राइमरी कहा जाता था | मुझे डिप्टी साहब ने ‘तगमा’ दिया था | मैं उसे हमेशा अपने पास रखती थी | एक दिन जब मैं अपने गाँव के तालाब में नहाने गयी थी, उसी दिन वह तालाब में गिर गया | उसके खोने का दुःख आज तक सालता रहता है |” आदत के मुताबिक़ मैने माँ को इस जीवन में सौंवीं बार समझाया कि ‘तगमा’ की जगह ‘तमगा’ सही शब्द है | लेकिन जैसे कि हर बार होता है, माँ ने मेरी समझाईश को ‘इस कान से सुनकर उस कान’ से निकाल दिया |


हां ...! तो बात बिजली आने की हो रही थी | वे बोली, “ मैं ये तो बता सकती हूँ कि १९८४ के कार्तिक महीने में हम लोगों के घर बिजली आयी थी | लेकिन वह कब रहती है और कब नहीं, मुझे इससे क्या मतलब ...? ‘समलबाई’ के कारण पंखे की हवा मुझे परेशान करती है, और टी.वी. मैं देखती नहीं | यदा-कदा देखने भी आती हूँ, तो यह समझ में नहीं आता कि जोधा-अकबर सीरियल में पगड़ी बाँधने वाली इतनी नाराज क्यों रहती है ...? माँ ने कुछ और बाते कहीं | जैसे कि ‘ जिस साल देश आजाद हुआ था, उसी साल मेरी शादी भी हुयी थी | शादी के एक साल बाद बड़ी भयंकर बाढ़ आयी, और हम लोगों का सारा घर-दुआर गंगा में समा गया | ‘मेरी माँ जी बताती थीं कि इससे पहले सन सोलह की बाढ़ में भी हम लोगों का घर-दुवार गंगा में चला गया था | मतलब इस जगह पर हम लोग १९४८ से रह रहे हैं |”


इन उत्तरों से आप कुछ समझें ....? नहीं .....? कोई बात नहीं .... मैं भी हार मानने वाले लोगों में से नहीं हूँ | मौक़ा लगाकर एक दिन बिजली विभाग के दफ्तर में जाऊंगा | उनके रिकार्ड्स चेक करूँगा कि किस दिन, किस महीने और किस वर्ष में हमारे क्षेत्र में चौबीस घंटे बिजली रही थी | जरुरत पड़ी, तो आर.टी.आई. दाखिल करूँगा | आखिर इस लोकतंत्र में जनता के हाथ में एक बड़ा हथियार जो है | मैं गजेटियर देखने की मांग करूँगा, लेकिन देश के सामने यह लाकर ही रहूँगा कि हमारे क्षेत्र में भी चौबीस घंटे बिजली रही है, और इस आधार पर भविष्य में उसके होने के प्रति आशान्वित रहा जा सकता है | वैसे बिजली विभाग में रिकार्ड्स खोजना कितना कठिन काम है, मैं जानता हूँ | लेकिन यह सोचकर थोड़ा इत्मीनान है कि मुझे 1940 के बाद के रिकार्ड्स ही देखने होंगे, क्योंकि उसी समय बलिया में बिजली आयी थी | सकारात्मक सोचने के इतने फायदे हैं, कि कुछ कहाँ नहीं जा सकता है | अब मान लीजिये कि बिजली का आविष्कार ‘ईसा काल’ के आसपास हुआ होता, तब तो हमें 2000 वर्षों का रिकार्ड्स खंगालना पड़ता | तो इस तरह से हम भाग्यशाली है कि सिर्फ साठ-सत्तर वर्षों के इतिहास में ही हमें इसका उत्तर मिल जाएगा |


मैं अपनी खोज में सफल हो जाऊं | साथ ही साथ मेरी सकारात्मक सोच भी बरक़रार रहे, यह दुआ कीजिए ......|  आमीन .................|



प्रस्तुतकर्ता

रामजी तिवारी
बलिया, उ.प्र


संघर्ष बलात्कार की संस्कृति से है - महेशचन्द्र पुनेठा

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युवा कवि/समीक्षक महेशचन्द्र पुनेठा ने रोहित जोशी द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘उम्मीद की निर्भयाएं’ की समीक्षा लिखी है | आप सुधि पाठकों के लिए इसे हम सिताब दियारा ब्लॉग पर प्रस्तुत कर रहे हैं |                  

              संघर्ष बलात्कार की संस्कृति से है



16 दिसंबर 20012 की तिथि यौन हिंसा को लेकर एक विभाजक रेखा बन गई है। इसके बाद बहुत कुछ माहौल बदला है। एक ऐसे विषय पर जो अघोषित रूप से वर्जित माना जाता था अब खुलकर चर्चा हो रही है। पहले चर्चा-परिचर्चा तो छोडि़ए परिवार के बीच बैठे होते औैर रेडियो या टेलीविजन में यौन हिंसा या उत्पीड़न से संबंधित कोई समाचार सुनाई देता था तो एकदम असहज स्थिति हो जाती थी। सिर नीचा कर लेते थे। बड़े-बुजुर्ग भी बच्चों के सामने इस विषय पर बात नहीं करते थे। लेकिन आज बाप-बेटे,भाई-बहन या गुरू-शिष्य के बीच तक इस पर चर्चा होने लगी है।इसी का परिणाम है कि यौन हिंसा को लेकर दर्ज होने वाली रिपोर्ट्स में अचानक तेजी आ गई है। यौन हिंसा के पुराने मामले भी उद्घाटित हो रहे हैं।महिलाओं में विरोध का साहस पैदा हुआ है। यौन हिंसा को तत्कालिक उत्तेजना या आक्रोश जनित अपराध न मानकर उसके सामजिक-सांस्कृतिक-मनोवैज्ञानिक-आर्थिक पहलुओं पर विमर्श प्रारम्भ हुआ है। 16 दिसंबर की अमानवीय घटना के बाद न केवल देशभर में विरोध प्रदर्शन हुए बल्कि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं ,सोशल नेटवक्र्र ,इलैक्ट्रोनिक  और प्रिंट मीडिया में यह गंभीर विमर्श दिखाई देने लगा। पिछले एक साल के दौरान पत्रकार प्रैक्सिस’ने अपनी बेबसाइट में लगातार इस विषय पर महत्वपूर्ण सामग्री प्रकाशित की गई जिसे थोड़ा बहुत संपादित कर अब एक पुस्तक के रूप में उम्मीद की निर्भयाएंशीर्षक से सामने लाया गया है।
   
किताब की शुरूआत युवा कवि मृत्युंजय भाष्कर की लंबी कविता और भी करीब आएंगे वे...से की गई है।यह कविता 16 दिसंबर की घटना के बाद दिल्ली की सड़कों सहित देशभर में पैदा हुए जन आक्रोश की पृष्ठिभूमि पर लिखी गई है जिसमें इधर स्त्रियों की मानसिकता में आ रहे सकारात्मक परिवर्तनों को रेखांकित करते हुए उन्हें एक सशक्त प्रतिरोध की आवाज के रूप में दर्ज किया है-वे नहीं मांगेंगी अब कभी पुलिस की मदद/अब ये वो नहीं रही जो सड़क पर छेड़े जाने से डरेंगी/उनके भीतर की आग बहुत है अत्याचारियों  को जला देने के लिए/तुम अपने वजूद की सोचो/ओ राजाओ?/भागोगे कहाँ तक/जनता उमड़ी आ रही है। वास्तव में निर्भया कांड के बाद हुए जनांदोलन ने समाज में मानसिकता के स्तर पर एक गहरी हलचल पैदा की है। इस आंदोलन ने न केवल सरकार कोे झुकने और त्वरित कार्यवाही करने के लिए मजबूर किया बल्कि पुरुषवादी मानसिकता से ग्रस्त लोगों को बहुत कुछ सोचने के लिए प्रेरित किया।साथ ही औरतों की बेखौफ आजादीकी मांग को केंद्र में ला दिया।पुरुष वर्चस्व को नई चुनौती मिलने लगी है।  जैसा कि 16दिसंबर आंदोलनःएक साल बादआलेख में एपवा की राष्ट्रीय सचिव कविता कृष्णन अपने विश्लेषण में कहती हैं,‘‘इस तरह आंदोलन में एक बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्से ने,पितृसत्तात्मक संरक्षण और प्रतिशोध के विमर्श के साथ इससे जुड़ी हुई वर्ग,जाति और सांप्रदायिक विकृतियों को चुनौती दी है।’’ मीडिया अध्यापन से जुड़े आनंद प्रधान के शब्दों में ,‘‘लड़कियों और आम लोगों में स्त्रियों के खिलाफ होने वाली बर्बर हिंसा और आपराधिक भेदभाव के खिलाफ लड़ने का जज्बा भर दिया है।’’ वह अपने आलेख यह अराजक भीड़ नहीं, लोकतंत्र की नई उम्मीद है!में इस आंदोलन की सबसे बड़ी कामयाबी यह मानते हैं कि इसने स्त्रियों के खिलाफ बढ़ती हिंसा को लेकर उनकी आजादी ,सम्मान और सुरक्षा से जुड़े मसलों को पहली बार राष्ट्रीय राजनीति के एजेंडे पर सबसे ऊपर पहुंचा दिया।....इसने संकीर्ण जातिवादी,क्षेत्रीय और सांप्रदायिक अस्मिताओं का निषेध करते हुए स्त्री अस्मिता की जोरदार दावेदारी की है।.....किसी आंदोलन में इतनी बड़ी संख्या में मुखरता के साथ मध्यम और निम्न मध्यवर्गीय महिलाएं खासकर युवा छात्राएं-लड़कियां विरोध प्रदर्शनों में सड़कों में नहीं उतरी।.....इसने महिलाओं को भयमुक्त किया है। उनका आत्मविश्वास बढ़ा है। उन्हें अब घर की चहारदीवारी में बंद करना मुश्किल है।     

प्रस्तुत किताब यौन हिंसा के सामाजिक-आर्थिक-धार्मिक-मनोवैज्ञानिक-भाषिक-राजनैतिक पक्ष को तो सामने रखती ही है साथ ही पितृसत्तात्मक व्यवस्था पर गहरी चोट करती हुई यौन हिंसा से मुक्ति का रास्ता बताती है। उन तमाम धारणाओं का खंडन करती है जो महिलाओं के विरूद्ध पुरुषवादी मानसिकता के चलते पोषित-पल्लवित की गई हैं। उन कारणों को खारिज करती है जिनमें कहा जाता है कि बलात्कार के लिए लड़कियां भी बराबर की दोषी हैं , उनके कपड़े ,उनका व्यवहार और असुरक्षित जगहों पर जाने की आदतें बलात्कार की वजह है, बलात्कार जैसी घटनाओं के लिए पाश्चात्य संस्कृति जिम्मेदार है,आदि।
  
पुस्तक के विभिन्न लेखों से यह बात उभर कर आती है कि यौन हिंसा के लिए वह पुरुष वर्चस्ववादी मानसिकता जिम्मेदार है जिसके अंतर्गत स्त्री को संपत्ति की तरह स्वाभाविक रूप से पुरूष के अधीन माना जाता हैं ।पुरुष उस पर नैतिक-अनैतिक तरीकों से अपना नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश करता है। युवा लेखक मोहन आर्या अपने आलेख बलात्कार का व्यापक परिप्रेक्ष्यमें बिल्कुल सही कहते हैं,‘‘हमारी सभ्यता,मूल्य,संस्कृति हर तरह से पुरुषों को छूट देते हैं कि वे महिलाओं की इच्छा और उनकी सहमति का अतिक्रमण कर सकते हैं।’’ वह मानते हैं कि सभी धर्म व संस्कृति स्त्री विरोधी हैं और इस वर्चस्व को मान्यता प्रदान करते हैं।इस बात को मोहन विभिन्न धर्म और संस्कृतियों से संबंधित उदाहरणों से प्रमाणित करते हैं।अपने आलेख में मोहन उस ऐतिहासिकता पर भी विस्तार से प्रकाश डालते हैं कि कैसे एक स्वतंत्र स्त्री पुरुष की संपत्ति के वारिस को जन्म देने वाली हो गई?निजी संपत्ति की उत्पत्ति को वह इसका कारण मानते हैं। इसलिए वह इस तर्कसंगत निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि बलात्कार जैसे अपराधों का समाधान न धर्म में है और न आधुनिकता में बल्कि निजी संपत्ति का उन्नमूलन करते हुए पितृसत्तात्मक व्यवस्था के अंत में है। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है कि प्रतिगामी ताकतें इस व्यवस्था के अंत के पक्ष में नहीं हैं बल्कि वे इसको समाज में व्यवस्था बनाए रखने के लिए जरूरी  मानते हैं। महिलाओं की यौनिकता ,उनके श्रम और सार्वजनिक और निजी दायरों में उसकी भागीदारी पर पुरुषवादी नियंत्रण स्थापित करने में दक्षिणपंथी  संगठनों ,धर्मगुरुओं,धार्मिक धारावाहिकों,टी0वी0 चैनलों की खास भूमिका रही है। युवा पत्रकार अभिनव श्रीवास्तव के आलेख हिंदू सांस्कृतिक-राजनीति के औजारःधार्मिक गुरु और उनका साम्राज्यमें इस भूमिका को विस्तार से समझाया गया है।
  
मीडिया को सामाजिक बदलाव का वाहक माना जाता है बहुत हद तक यह बात सही भी है लेकिन आज बाजार के प्रभाव में मीडिया अपने असली लक्ष्य को भूलता चला गया है युवा पत्रकार आदिल रज़ा ख़ान अपने आलेख उपभोक्तावादी संस्कृति और नारी सौंदर्य के ग्राहकमें इसी बात को उठाते हैं,‘‘महिला अपराध के खिलाफ समाज मंे जागरूकता फैलाने के बजाए मीडिया मंे तेजी से नारी सौंदर्य को बेचने का चलन बढ़ता जा रहा है।ये बात चैनलों पर आने वाले विज्ञापनोें तक ही सीमित नहीं हैं बल्कि चैनलों को चलाने वाले काॅरपोरेट घराने,महिला एंकर को भी कंटेंट बेचने के बेहतर हथियार के तौर पर इस्तेमाल करते हैं।’’यह प्रवृत्ति महिला को एक वस्तु बनाकर रख देती है जो अतंतः महिला शोषण का कारण बन रही है। मीडिया के इस रवैये को मीडिया का फांसी-वादशीर्षक आलेख में युवा पत्रकार दिलीप खान और अधिक उजागर करते हैं। समाजशास्त्र और मिडिया स्डडीज में हुए अघ्ययनों को रेखांकित करते हुए बताते हैं कि बलात्कार और महिला सुरक्षा के मसले पर मिडिया के तेवर काफी हद तक महिला आजादी के पक्ष में नहीं रहे हैं। ये बात भी काफी प्रमुखता से स्पष्ट हुई है कि रिपोर्टिंग में वीभत्सता,रोमांच और हिंसा के अलावा महिलाओं को लेकर मौजूद सामाजिक धारणाओं को प्राथमिक तौर पर उभारा जाता रहा है। वह बताते हैं कि इस दृष्टि से अमेरिका जैसे लोकतंत्र का दावा करने वाले देशों की स्थिति भी बहुत अधिक भिन्न नहीं है। मीडिया के पुरुषवर्चस्ववादी चरित्र पर ही पत्रकार और एक्टिविस्ट भाषा सिंह अपने आलेख ,‘बलात्कारी संस्कृति और बलात्कार के व्याकरण  से टकराती आधी दुनियामें  उसकी भाषा पर प्रश्न खड़े करती हैं। उनका यह विश्लेषण तर्कसंगत है कि हमारे दिमाग में पितृसत्तात्मक सोच या छवियां छाई होती है और इसका असर हमारी भाषा हमारे द्वारा चुने गए शब्दों पर पड़ता है।इस पितृसत्तात्मक सोच-शब्दावली-व्याकरण पर सीधी चोट नहीं होगी,तब तक नए ढंग से रिपोर्टिंग के तौर-तरीके भी नहीं खोजे जाएंगे। पुरुषवादी चरित्र केवल मीडिया का ही नहीं है हमारी न्याय व्यवस्था भी इससे मुक्त नहीं है जिसका प्रमाण यहाँ नेहा झा के आलेख टू फिंगर टेस्ट जैसे परीक्षणों के होने के मायनेमें मिलता है। नेहा मानती हैं कि यह तरीका बलात्कार के मामले में महिलाओं को ही हमेशा कटघरे में रखने की कोशिश का हिस्सा है। उनकी यह समझ गलत नहीं है।   
 
कुछ लोगों की मानना है कि यौन हिंसा कानून व्यवस्था की समस्या है। यदि कठोर कानून बनाया और उसे कड़ाई से लागू किया जाय तथा सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किए जाय तो बलात्कार जैसी घटनाओं को समाप्त किया जा सकता है। लेकिन वास्तव में देखा जाय तो यह इतना सीधा सा मामला नहीं है। कानून के द्वारा इन अपराधों को कुछ हद तक रोका जा सकता है लेकिन समाप्त नहीं किया जा सकता है क्योंकि इस अपराध की शुरुआत घटना घटित होने से बहुत पहले ही हो जाती है। इस पर युवा लेखिका प्रीति तिवारी की समझदारी युक्तिसंगत प्रतीत होती है।वह अपने आलेख महिला विमर्शों का भाषायी रुखमें एक स्थान पर लिखती हैं ,‘‘ बलात्कार उस यौन हिंसा की अंतिम परिणति है जिसकी शुरूआत बहुत पहले ही हो जाती है। दरअसल इस तरह स्वीकार्यता बनाने का काम बहुत धीमी गति से भाषाई स्तर पर घटित हो रहा होता है। एक पूरी प्रक्रिया के तहत समाज में अपनी स्वीकार्यता बनाती है जिसे हल्की-फुलकी भाषा में मजाक या दिल्लगी कह कर संबोधित कर दिया जाता है। यौन संबंधों में सहमति-असहमतिके प्रश्नों पर बात नहीं करने की संस्कृति ही इसकी पृष्ठभूमि तैयार करती है।’’ बलात्कारी मानसिकता के निर्माण में फिल्मों की भूमिका कम नहीं है। भारतीय फिल्मों में स्त्री पात्रों को जिस रूप में चित्रित किया जाता है वह स्त्रियों के प्रति परम्परागत धारणाओं को अधिक मजबूत करती है और उनसे जोर-जबरदस्ती के लिए उकसाती है। विशेषरूप से प्रेम का चित्रण। एकतरफा प्यार की अहमन्यताआलेख में शिवानी नाग ने भारतीय सिनेमा में प्रेम का कुरूप चित्रण विषय पर रोचक विश्लेषण प्रस्तुत किया है। वह लिखती हैं कि  प्रेम के चित्रण स्वरूप आम तौर पर फिल्मों में किसी पुरुष का किसी महिला को चाहना और उसके समक्ष प्रणय निवेदन करना दिखाया जाता है। अक्सर यह निवेदन सीधे तौर पर उत्पीड़न का रूप ले लेता है तथा उसका पीछा करना और परेशान करना इसका अभिन्न अंग होते हैं। पेशे से अध्यापक शिवानी अपने आलेख में प्रेम को लेकर बहुत सटीक प्रश्न करती हैं कि क्या किसी के चुनाव तथा उसकी भावनाओं का सम्मान न करना किसी भी सूरत में प्रेम हो सकता है?एक महिला की स्वीकृति अथावा अस्वीकृति की परवाह किए बिना कोई पुरुष किसी महिला को चाहे तो यह प्रेम कैसे हो सकता है? उनका यह निष्कर्ष बिल्कुल सही है कि एकतरफा प्रेम को चाहे जितना महिमा मंडित करें,अगर सामने वाले की भावनाओं और चुनावों के लिए सम्मान नहीं है तो यह चाहे जो भी हो ,प्रेम नहीं हो सकता है। वास्तव में ,प्रेम का यही विकृत रूप है जो प्रेम की आड़ में किसी महिला की आजादी का हरण करता है और जब महिला अस्वीकार के द्वारा अपनी आजादी की रक्षा करती है तो यौन हिंसा का शिकार होती है।     
 
इस किताब का सबसे मार्मिक पक्ष शुरुआत में दिए गए दो पत्र हैं जो बलात्कार की शिकार युवतियों की दर्द की दास्तान कहते हैं ।एक बलत्कृता किस गहरे भय और पीड़ा में अपने दिन गुजारती हैं यह सोहेला अब्दुलाली के पत्र के इस अंश में महसूस किया जा सकता है-‘‘उस बात को तीन साल हो गए हैं,मगर ऐसा एक दिन भी नहीं बीता जब मुझे इस बात ने परेशान नहीं किया कि उस दिन मेरे साथ क्या हुआ। असुरक्षा ,भय,गुस्सा,निस्साहयपन... मैं उन सब से लड़ती रही। कई दफा,जब मैं सड़क पर चलती थी और अपने पीछे कोई पदचाप सुनाई पड़ती तो मैं पसीने-पसीने होकर पीछे को देखती और एक चीख मेरे होंठों पर आकर ठहर जाती। मैं दोस्ताना स्पर्श से परेशान हो जाया करती, मैं कस कर बंधे स्कार्फ को बर्दास्त नहंी कर पाती ,ऐसा लगता कि मेरे गले को हाथों ने दबा रखा है। मैं पुरुषों की आंखों में एक खास भाव से परेशान हो जाती । और ऐसे भाव अक्सर नजर आ जाते।’’  पत्र में सोहेला की यह बात बहुत सुकून देने वाली है , ‘‘इसे अपराध के एक रूप के तौर पर देखना होगा-इसे हिंसात्मक अपराध मानना होगा और बलात्कारी को अपराधी के तौर पर देखना होगा। मैं उत्साहपूर्वक जीवन जी रहीं हूँ। बलात्कार का शिकार होना बहुत खौफनाख है ,मगर जिंदा रहना अधिक महत्वपूर्ण है।’’  मुझे लगता है यदि हर बलत्कृता इस तरह से सोचने लगे तो कहीं न कहीं उन सामंती लोगों और राजसत्ताओं की हिम्मतपस्त होगी जो बलात्कार को स्त्री को सबक सिखाने  के हथियार के रूप में इस्तेमाल करते हैं।समाज को अपना नजरिया बदलना होगा कि बलात्कार मामले मंे इज्जतबलत्कृता की नहीं बल्कि बलात्कारी की जाती है।अगर हम ऐसे सोचने लगेंगे तो पीडि़ता को बलात्कार के बाद की पीड़ा से बहुत हद तक बचाया जा सकता है। फिर बलत्कृता प्रस्तुत पुस्तक में प्रकाशित दूसरे पत्र की लेखिका सूर्यानेल्ली की लड़की की तरह ऐसा नहीं सोचेगी,‘‘ मेरे लिए यह राहत की बात है कि दिल्ली की उस लड़की की मौत हो गई। वरना उसे सभी जगह ठीक वैसे ही अश्लील सवालों से रूबरू होना पड़ता जो उसे उस खौफनाक रात को भुगतना पड़ा। इसकी वजह बताने के लिए उसे बार-बार मजबूर किया जाता। और अकेले बिना किसी दोस्त के वह अपनी ही छाया से डरती हुई जिंदगी का बाकी वक्त किसी तरह काटती।’’ इन दोनों पत्रों को पढ़ने से पता चलता है कि बलात्कार शरीर की अपेक्षा मन को कितना अधिक आघात पहुँचाता है।वह जिंदा लाशमें बदल जाती है इसलिए संघर्ष बलात्कारी से नहीं बल्कि बलात्कार की संस्कृति से करना जरूरी है। संघर्ष बलात्कार की संस्कृति सेशीर्षक आलेख में वर्मा कमेटी की सिफारिशों के बहाने वरिष्ठ पत्रकार सत्येन्द्र रंजन इसी बात पर जोर देते हैं। यौन हिंसा को लेकर वर्मा समिति की सिफारिशें मील का पत्थर हैं। शायद ही इससे पहले इतनी प्रगतिशील सोच वाली रिपोर्ट आई हो। इसमें सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से विस्तार से विचार किया गया है। प्रकारांतर से यह समिति स्त्री के अपने शरीर पर अधिकार का समर्थन करती है। सत्येन्द्र रंजन की इस बात से मेरी भी पूरी सहमति है-‘‘ इस रिपोर्ट की विशेषता यह है कि इसमें यौन हिंसा या यौन उत्पीड़न को व्यापक सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों के ढाँचे में रख कर देखा गया । समिति ने प्रशासन,कानून,राजनीति और सामाजिक नजरिए की समग्रता मंे इस प्रश्न पर विचार किया। उसने पितृसत्तात्मक व्यवस्था में स्त्रियों की लाचारी को जड़ में रखते हुए इस समस्या को देखा और अपनी सिफारिशों को संवैधानिक तथा कानून की मानवीय व्याख्या के दायरे में प्रस्तुत किया। ’’ यह रिपोर्ट महिला आजादी के सवाल को मुखरता से उठाती है केवल बलात्कार तक सीमित नहीं करती। अच्छी बात है कि सत्येन्द्र ने इस रिपोर्ट का सटीक विश्लेषण किया है और उसकी खासियतों के साथ-साथ सीमाओं की ओर भी हमारा ध्यान खींचा है।अपने आलेख में इस बात को स्थापित किया है कि बलात्कार एक घृणित अपराध है। इसके घटित होने पर किसी को शर्मिंदा होना चाहिए तो वह बलात्कारी है ,ना कि पीडि़ता।
 
समीक्ष्य किताब में उस अभिजात्यवादी-बहुसंख्यकवादी-ब्राह्मणवादी मानसिकता पर भी सवाल खड़ा किया गया है जो बलात्कार औैर बलात्कार में अंतर करती है। किसी खाते-पीते घर ,सवर्ण ,बहुसंख्यक समाज और महानगर की महिला के साथ हुआ बलात्कार मीडिया की सुर्खी पा जाता है और उसके विरोध मंे तमाम सामाजिक संस्थाएं,महिला संगठन और मानवाधिकार संगठन सड़कों में उतर आते हैं लेकिन वहीं दूसरी ओर गरीब,दलित,आदिवासी,अल्पसंख्यक या दूरदराज गाँव में किसी महिला के साथ होने वाले दुष्र्कम की ओर किसी का ध्यान तक नहीं जाता है। यदि चला भी गया तो उसको दबाने का प्रयास अधिक किया जाता है। पत्रकार अरविंद शेष देश के विभिन्न हिस्सों में महिलाओं के साथ हुए बलात्कार के घृणित-बर्बर कांडों का हवाला देते हुए इसी सवाल को अपने आलेख बलात्कार की शाॅक वैल्यूका अंतरमें उठाते हैं।यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि अनेक घटनाओं में तोे यह भी देखने में आता है कि पुलिस व राज्य प्रशासन सर्वण जाति के प्रभुत्वशाली और दबंगों के साथ खड़ा होकर गरीब-दलित-आदिवासी-अल्पसंख्यक महिलाओं का शोषण-उत्पीड़न करती है। युवा लेखिका अनीता भारती का आलेख इस उत्पीड़न की भयावहता को हमारे सामने रखता है। इस आलेख में उन तमाम घटनाओं का उल्लेख किया गया है जिसमें दलित होने के कारण ही महिला उत्पीड़न का शिकार हुई और उस उत्पीड़न को पुलिस-प्रशासन ने स्वीकार तक नहीं किया गया। यह तस्वीर दिल दहला देने वाली है। इतना ही नहीं यह देखा गया है कि देश-दुनिया में बलात्कार और यौन हिंसा को युद्ध के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा  है। स्वतंत्र टिप्पणीकार अतुल आनंद अपने आलेख बलात्कार जहाँ राज्य का हथियार है.....!में इस अमानवीय प्रवृति पर विस्तार से प्रकाश डालते हैं। अनुराधा गांधी अपने आलेख बलात्कार कानूनों में बदलावःकितने मददगारमंे जैसे इसी बात का समर्थन करते हैं-‘‘पतित सामाजिक और सांस्कृतिक प्रवृत्तियां सामंती संस्कृति के विस्तार लेने और साम्राज्यवादी हस्तक्षेप की बढ़ोत्तरी के चलते महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा को बढ़ा रही हैं। महिलाओं और लड़कियों का मीडिया मंे सौंदर्य,फैशन,मनोरंजन और पर्यटन उद्योगों में बढ़ रहा वस्तुकरण उन्हें अघिकाधिक यौन हिंसा की चपेट में आने लायक बना रहा है। बलात्कार का इस्तेमाल वर्ग,जाति,नस्ल के अंतर और पदानुक्रम को कायम रखने वाले औजार की तरह होता है।.....स्वयं राज्य जो महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा के सबसे बड़े अपराधियों में से एक है और जिसका लक्ष्य पितृसत्ता की यथास्थिति को बनाए रखना है। ’’इसलिए उनका यह निष्कर्ष सही लगता है कि बलात्कार कानूनों में होने वाले कुछ कृत्रिम बदलाव बलात्कार पीडि़ताओं की मदद नहीं कर सकते। इसके लिए पुलिस,न्यायालय और अन्य सत्ता संरचनाओं के पितृसत्तात्मक पूर्वाग्रह भी न्याय की प्रक्रिया में बाधक हैं।
  
दिल्ली कांड के बाद समाधान के रूप में दो बातों विशेष रूप से सुनी जाती रही हैं -पहली ,बलात्कारी को मृत्युदंड देने और दूसरी,बाल अपराधी तय करने की उम्र कम करने।दरअसल ये दोनों ही उपाय समस्या की जड़ को नहीं समझने और तात्कालिक आक्रोश के परिणाम हैं। यदि मृत्युदंड किसी भी अपराध का समाधान होता तो उन देशों में अपराध नहीं होते जहाँ मृत्युदंड का प्रावधान है। जैसा कि वरिष्ठ लेखक प्रभात उपे्रती अपने आलेख मृत्युदंड का औचित्य का प्रश्न में कहते हैं ,‘‘ इसमें आदमी में जो सुधार की संभावना थी उसे सिरे से इनकार कर दिया गया है और साथ ही इसमें अपराधी के अपराधी बनने की प्रक्रिया में अपनी भूमिका और उत्तरदायित्वों से पल्ला झाड़,मृत्युदंड को जायज माना।’’ यहाँ अपराधी बनने की प्रक्रियापर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता हैं। यदि कोई किशोर अपराध करता है तो उसके कारण कहीं न कहीं हमारे समाज में छुपे होते हैं। युवा लेखक कंचन जोशी की इस बात से असहमत नहीं हुआ जा सकता है कि-‘‘ इस अवस्था में किए जा रहे अपराध सबसे पहले उस समाज पर प्रश्न खड़ा करते हैं जो अपने किशोरों को अपराधी बना रहा है। इन प्रश्नों के हल खोजने के बजाय सिर्फ आयुसीमा में संशोधन का नीम-हकीमी नुस्खा देकर समाज और राज्य अपनी जिम्मेदारी से फारिग नहीं हो सकते।’’ कंचन जोशी यदि उस संस्कृति में इसकी जड़ें देखते हैं जिसमंे किशोरावस्था मंे कदम रखते ही लड़कांे को मर्द बननेकी शिक्षा और लड़कियों को पत्नीबनने के लिए तैयार किया जाने लगता है, तो उसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता है। इस पर गंभीरता से विचार करना होगा। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि अपराधी प्रवृत्तियों के बीज कहीं न कहीं बचपन की परिवरिश में छुपे होते हैं। बाद मंे तो वह केवल पुष्पित-पल्लवित होते हैं।  

निश्चित रूप से प्रस्तुत पुस्तक यौन हिंसा के विविध पहलुओं को छूने की सफल कोशिश करती है। इस मुद्दे पर पाठक का एक स्वस्थ दृष्टिकोण विकसित करती है।किताब यौन हिंसा की स्थिति ,कारणों और उनसे निपटने के उपायों पर अपना पक्ष साफ-साफ रखती है। भले ही इस किताब में बड़े-बड़े व चर्चित नाम न हों पर हस्तक्षेप बड़ा और दमदार है। लगभग सभी लेखकों ने अपनी बात मजबूत तर्कों के साथ रखी हैं।सबसे अच्छी बात यह है कि दूरदराज क्षेत्रों में लिख रहे लोगों को इसमें शामिल किया गया है। इससे पता चलता है कि प्रगतिशील सोच चंद बड़े और आधुनिक शहरों तक ही सीमित नहीं है बल्कि छोटी-छोटी जगहों तक फैली है।एक अच्छी बात और है कि इस किताब मंे स्त्री-पुरुष लेखकों का बराबर प्रतिनिधित्व है। सीमाओं से मुक्त कुछ भी नहीं है इस किताब की सीमाएं होना भी स्वाभाविक है जैसा कि संपादक रोहित जोशी स्वयं स्वीकार करते है कि यूं तो इस किताब की भी अपनी सीमाएं हैं और इस विषय का समूचा विमर्श यहाँ भी नहीं समा पाया है। लेकिन रोहित ने उस दिशा में एक शुरुआत की यह प्रशंसनीय है। रोहित के भीतर हमेशा से कुछ हटकर करने का जज्बा रहा है आज इस किताब ने एक बार और साबित कर दिया है। प्रकाशन की दुनिया में इस किताब के माध्यम से प्रत्रकार प्रैक्सिस ने कदम रखा है आशा है उनके इस पहले कदम का हिंदी जगत स्वागत करेगा और यह किताब महिला की बेखौफ आजादी के विमर्श को आगे बढ़ाएगा।




समीक्षित किताब ....

उम्मीद की निर्भयाएं (आलेख संग्रह)
संपादक.... रोहित जोशी

प्रकाशक - पत्रकार प्रैक्सिस’   
         फ्लैट न0-25, तीसरी मंजिल
         प्रोप0न0.29 इ/जी वार्ड न0-1
         चंद्रो भवन डेसू रोड मेहरौली नई दिल्ली 110030
         मूल्य-एक सौ रुपए        
 


समीक्षक ...

महेश चन्द्र पुनेठा

संपर्क - शिव कालोनी
पियाना पोस्ट डिग्री कालेज
जिला .... पिथौरागढ़

पिन ... 262501


अविनाश कुमार सिंह की कवितायें

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     आज सिताब दियारा ब्लॉग पर अविनाश कुमार सिंह की कवितायें


रविशंकर उपाध्याय की कविताओं के माध्यम से सिताब दियारा को और सिताब दियारा के माध्यम से रविशंकर उपाध्याय के कवि रूप को जाना | वैसे मेरा व्यक्तिगत परिचय तो उनसे था ही |  खैर अब वे नहीं हैं | मैं उस होनहार कवि के आखिरी दिन रात भर सो न सका | इस कविता के सहारे उन्हें श्रद्धांजलि दे रहा हूँ | इसे आपको भेज रहा हूँ. शायद इसमें भी रवि का ही कोई निर्देश मिला हो .....| साथ ही एक पहले से लिखी कविता भी प्रेषित कर रहा हूँ |
                                                  
                                                  .............अविनाश कुमार सिंह 



एक ....

आत्मीय रविशंकर उपाध्याय के लिए
                          

तुम्हें जानने की वजह खूबसूरत थी
जैसे कविता
जैसे रास्तों को जानते हैं
इमली या गुलमोहर की लगातार किनारे पर मौजूदगी से
जैसे नदियों में एक खास किस्म की झाग रहती है
या कि मंदिर का सबसे सुंदर लैंडमार्क
सैय्यद दर्जी की नुक्कड़ वाली दुकान हुआ करती है
भरोसा होता है इन स्थायी लोगों पर
कि ये धोखा नहीं देंगे
गर जो नन्हीं वनपाखी कभी अचकचा जाती
और मंदिर का कोटर ढूंढें नहीं मिलता
लथर कर ढल जाती वनपाखी नुक्कड़ पर
सैय्यद मियां हरे धागे की लकीर खींच देते
कोटर तक और
वनपाखी की आँखे चहकने लगती

मेरी भी आँखे चमका करती थी रवि
तुम्हारी कविता का पता जब
सिताब दियारे से मिलता था
भरोसा था कि तुम तक जाने का रास्ता
स्थिर है और वहीँ है
पहुँचने से पहले ही तुम्हारी कविता तक
ढेर सा जीवन रास्ते में मिलता था
इमली और गुलमोहर के फर
पहले से ही तान दे रहे होते थे
नदियों का झाग कुछ खुद्बुदाता मिलता था
सैय्यद दर्जी की मशीनों से गजब का संगीत निसरता था
रवि !
तुम्हारी कविता में तुमसे मिलते थे
मेरे जैसे बहुत से लोग
वहाँ तुमसे कहते-सुनते
वनपाखी को देख मुस्कुरा लेते थे
वनपाखी कविता में थी
कविता में तुम थे और
सिताब दियारे से उझककर
जीवन कहीं रास्ते में
अभी-अभी
अचकचा गया था.

दो ....

यह मेरा बनारस नहीं था     

इसने आँखे खोली थीं
बच्चे की तरह
पहली अंगड़ाई की पुलक थामे
नन्हीं आहटों के साथ.

यह शहर जगा था

कहतें हैं कबीर रात को जगते-रोते
इस के माथे पर अपनी रतजगों का
डिठौना करते थे
बुरी नजर से बचाने के लिए, और
बचाने के लिए कमाल की
बेचैन कराहों को
अल्हड़ चंपा के हेरा जाने पर
अस्सी के मटियाले देवता ने सुनी थी वो कराह
सुनी थी वो आखिरी पुकार
तब से रात रहती हैं वहाँ
उतनी ही आशिक, मुदा
भोर कभी नहीं होती

फिर उसी रात
दालमंडी की मल्लिका के पाजेब भी टूटे थे
संधू महराज के दिलफरेब तबले की ताल अटक गयी थी
सुना है 
शहर के सबसे पुराने शिवाले में
उसी का घूँघरू पहला श्लोक गाता था

कहते हैं बनारस के पानदरीबे में
जो गिलौरियाँ पहली बार दाबी थीं
किसी बिल्किस बानों ने
अवध के नवाब के हरम में
उसकी लाली सुर्खुरू ही रही सारी उमर
जब ठुमरी अलापती थी बिल्किस अवध में
ज्ञानवापी की दीवारों पर उर्दू उतर आती थी
आह!
हमरी अटरिया पे...

कहते हैं बात देखा-देखी से तनिक आगे ही थी
और पंतग की डोर उलझ गयी थी, जब
अटरिया के बूढ़े पीपल में
अचकचा गए थे केदार बाबू और लगा कि
सारा बनारस तभी से
डोर सुलझाने के फेर में
एक टांग पर खड़ा है
हाँ, उसे अब यह लंगड़ा भाता है
गोया सारा रस यही बना हो
सारी नदियाँ
गंगा को अपनी बी जी मान बैठी हों
और हरजाई
संवरिया से मिलन की आस में
सारी गलियाँ
मणिकर्णिका को पीछे
ठेल रही हों.

कहते हैं शहर के सिरहाने बुद्ध मुस्कुराये थे
बनारस में मोक्ष नहीं वि-राग मिलता है
वि-राग वीत-राग नहीं होता
गया से सारनाथ के धूमिल रस्ते में
यही बोध मिला था उन्हें
प्रवर्तन से ठीक पहले
कि बनारस में सिर्फ राग बहता है
पैताने से निकलती है रसधार और
पूरे शहर को लोहटिया से पहले ही
पनियल कर जाती है
जो किरकरी दांतों में थामे
मडुवाडीह की हवा आती है
मोतीगंज की झील में
अल्हड़ बच्चे सी छलांग मार जाती है
और
कबीर के रतजगों का डिठौना
उसे फिर-फिर सवाँर लेता है

कहते हैं इतिहास ने डिठौनों से छल किया है अभी
पक्कामहाल और लंके में
दादी के चबूतरे को तोड़कर
मल्टीप्लेक्स का टेंडर हुआ था जिस पहर
अटरिया के बूढ़े पीपल का भी सौदा हुआ था  
शहर की दूसरी टांग में
जोर का दर्द उठा था
दांत किरकिरा गए थे अवध के और
यह बनारस नहीं था
गंगा बी जी पहली बार सहमी थीं

यह पान के ताम्बूल में तब्दील होने का
और पीकों के सियाह होते जाने का
खौफ़नाक दृश्य था
कुछ कटी-अधकटी पतंगों के पीछे
बेतहाशा भागते नन्हें शहर पर
यह बन्दर-गाहों की निगाहों का प्रक्षिप्त समय था
यह मेरा बनारस नहीं था.



परिचय और संपर्क

अविनाश कुमार सिंह

Ø  १० अक्टूबर १९८४ में चन्दौली (यू.पी.) में जन्म
Ø  परिकथा, संवदिया, पक्षधर, आरोह, प्रभात खबर (दैनिक) में कविताएँ व आलेख प्रकाशित
Ø  इस्पातिका नामक छमाही शोध पत्रिका का संपादन व प्रकाशन


पता : ३, न्यू स्टाफ क्वार्टर्स,

को-ऑपरेटिव कॉलेज कैम्पस,

सी.एच.एरिया, बिष्टुपुर,

जमशेदपुर, झारखण्ड ८३१००१


मो. ०९४७१५७६४०४  


सपने में बसी कस्तूरी गंध - सत्यनारायण पटेल की कहानी पर रोहिणी अग्रवाल का लेख

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बिजली और नेट की गंभीर समस्या के कारण 'सिताब दियारा ब्लॉग'लगभग एक महीने बाद ‘अपडेट’ कर पा रहा हूँ | आप सभी पाठकों और रचनाकारों को दिए गए इस भरोसे के साथ, कि आगे हमारी यह कोशिश रहेगी कि यह ब्लॉग कम से कम प्रत्येक रविवार को अवश्य ‘अपडेट’ होता रहे |
       

आज पढ़िए सत्यनारायण पटेल की कहानी 'लाल छींट वाली लूगड़ी का सपना'पर प्रख्यात आलोचक रोहिणी अग्रवाल का यह विस्तृत लेख ........
                                 
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सपने में बसी कस्तूरी-गंध

''डूंगा का गांव ए बी रोड के किनारे बसे अनेक गांवों में से एक था। गांव की एक बाजू में प्रदेश की व्यावसायिक राजधानी के नाम से विख्यात शहर और दूसरी बाजू में एक औद्योगिक शहर। दोनों शहर गांव के विकास औ उद्धार का डंका बजाते. . . अपनी मस्ती में मस्त सांड की तरह डुकराते . . .गांव की ओर बढ़ते . . . शहर के हस्तक्षेप से गांवों के हुलिए जिस गति से बदल रहे थे, उस तेजी से डूंगा सरीखे देख-समझ भी नहीं पा रहे थे।'' (पृ0 115)

''सभी के हुलिए बदल रहे थे, और न केवल हुलिए, बल्कि लोगों के रहन-सहन का ढंग, बातचीत के तौर-तरीके, त्योहार मनाने के तौर जैसा बहुत कुछ बदल रहा था। शादी-ब्याह में दिखावटीपन बढ़ गया था। बाल-विवाह, घ्ूंाघट, पवणई, मामेरा, त्यारी जैसी कई बुराइयां बरकरार थीं और उन्हें करते वक्त आधुनिकता हावी रहती थी। बाजार हावी रहता था। महंगी और अनावश्यक चीजों की भरमार और दबदबा रहता। रिश्ते तेजी से अविश्वसनीय होने लगे और अपने अर्थ भी बदलने लगे।'' (पृ0 120)

''डूंगा ऐसे समय और महान देश का किसान था, जिसमें डूंगा तो क्या उसके जैसे गांव के किसी भी रामा बा या सामान्य किसान का पेट भरने के अलावा कोई सपना देखना और मेहनत की फसल बेच कर जीते-जी सपना पूरा करने का सोचना गुनाह से कम न था। ऐसा करने का मतलब सरकार और उसकी नीतियों की खुल्लम खुल्ला तौहीन करना था। . . . सरकार ने बहुत ही विकसित और ताकतवर देशों की सरकारों की मंशानुसार जो नीतियां बनाई थीं, उन्हें समझना डूंगा जैसे धोती छाप गावदियों के बस का तो था ही नहीं।'' (पृ0 126)

मैं अब और ज्यादा देर लेखक की उंगली पकड़ कर नहीं चल सकती। जानती हूं विषाक्त वातावरण उतनी तेजी से दम नहीं घोंटता, जितनी तेजी से विषाक्त वातावरण में जीने की बाध्यता मनोवैज्ञानिक बेचैनी बन कर दम घोंटने चली आती है। अपनी फूली सांस पर काबू पाने की कोशिश में मैं डूंगा के सपने को आंख में भर लेना चाहती हूं। एक ऐसा सपना जो अपनी टूटी किरचों के बीच भी आशा की झीनी डोरी में बंधा सांस ले रहा है। 
'होरी! सपने की उस नस्ल को पहचान कर मैंने उसे पुकार लिया - ''गाय सरीखा सपना!''
होरी नहीं, होरी का पोता मंगल सामने चला आया। अपना नाम-धाम न बताता तो कहां पहचान पाती उसे। 1936 में जब होरी का मृत्यु हुई, पांच-छः बरस का बालक ही तो था वह। अब . . .  .होरी से ज्यादा बूढ़ा और जर्जर!
 
''विरासत में कंगाली के अलावा सपने ही तो मिलते हैं हमें।''वह मुस्करा दिया, ''पर देखो नकंगाली की इतनी आदत पड़ गई कि सपनों की ऐयाशी लूटने में भी कंगाली करने लगे हम।'' 
''हम . . माने?''अबूझ सी मैं उसके उलझे चेहरे की सलवटों में जवाब तलाशने लगी। 
''माने . . . डूंगा . . . गाय की बजाय लूगड़ी का सपना पूरा करने के पीछे ही हलकान हो गया छोरा!''

''छोरा . . . माने डूंगा तुम्हारा . . . ?''''हां जी, हां जी, डूंगा पोता है हमारा। और हम उसके दादा . . . ''मंगल के चेहरे की कठिन सलवटों में जैसे स्नेह की लुनाई दौड़ गई एकाएक।
मैं भौंचक। होरी के वंशवृक्ष में डूंगा . . . मैंने सोचा भी न था।
सत्यनारायण पटेल जानते थे यह सब?
तो क्या इसीलिए वे यहां डूंगा की नहीं, डूंगा के बहाने पीढ़ी दर पीढ़ी पराजय की यंत्रणा भोगते होरी की कहानी कह रहे हैं? सपने के टूटने की कहानी? उस दौर में जब सपनों के सौदागर आंखों पर तिलिस्म की पट्टी चढ़ा कर नकली को असली, सपने को हकीकत बताने-बनाने की कला में पारंगत हो चुके हैं?
बेशक!!!

शहर और शिक्षा की हवा पाकर जागरूक होती नई पीढ़ी को लेकर होरी की तरह डूंगा ने भी तो  उन्नत भविष्य की तस्वीरें गढ़ ली थीं। लेकिन अब  जब वही पीढ़ी  पूंजीवादी ताकतों की एजेंट बन कर अलग राह पर निकल गई है तो क्या करे वह? हत्प्रभ है डूंगा। बुढ़ापे की लाठी हाथ में न हो तो कांपती हड़ियल काया और दीठहीन आंखों के साथ कौन सी राह निकले वह? डूंगा की ही तरह कहानी भी तो मोहभंग, हताशा और दायित्वबोध के तिराहे पर ठिठकी खड़ी है ... स्तंभ और किंकर्त्तव्यविमूढ़ता के साथ। 

.  . . और संशय से घिरी मैं भी जहां की तहां खड़ी हूं कि जहां हर दूसरी-तीसरी कहानी किसी न किसी डूंगा की पीड़ा को लेकर लिखी जाती हो; जयशंकर प्रसाद की कहानी 'पुरस्कार'से लेकर प्रियंवद की कहानी 'दास्तानगो'तक कितनी ही सशक्त कहानियां भूमि अधिग्रहण समस्या को कई-कई आयामों में विश्लेषित कर चुकी हों, वहां 'लाल छींट वाली लूगड़ी का सपना'में मौलिकता और ताजगी की तलाश भी कर पाऊँगी मैं? सवाल अंधेरे का आवरण बन कर पूरी कहानी को ढांप लेता है। जानती हूं स्थिति से बाहर रह कर फतवे दिए जा सकते हैं, स्थिति की विकरालता को अनुभव बना कर जिया नहीं जा सकता। इसलिए घुप्प अंधेरे से घबरा कर बैठ भी नहीं सकती। भीतर उतरने के लिए मद्धिम ही सही, रोशनी का एक बिंदु तो चाहिए ही। यह भी जानती हूं कि भीतर के सर्जनात्मक लोक को अपने संवेदन और विवेक से आलोकित किए बिना मैं किसी और के सर्जनात्मक लोक में उतर नहीं सकती क्योंकि कहानी अपनी मूल संकल्पना में दो सर्जनात्मक व्याकुलताओं के बीच संवाद की प्रक्रिया ही तो है जो क्रमशः आलाप की ऐसी तान बन जाती है कि मनुष्य होने के अतिरिक्त इंसान की तमाम लौकिक पहचानों को छिन्न-भिन्न कर डालती है।
 
वक्त की तरह लेखक भी सदैव गतिशील रहने के लिए नियतिबद्ध है। ठहरने का 'सुख'तो वह जानता ही नहीं। अपनी सीमाओं और पाठक की बढ़ी हुई अपेक्षाओं के बीच दोलायमान वह जानता है कि कहानी भाषा, पात्रों, घटनाओं से बुने पाठ के भीतर नहीं होती, पाठ से तरंगायित होने वाले प्रभाव में होती है जो पाठक के बोध और चेतना के स्तर से आकार ग्रहण करती है और पाठक की सुस्पष्ट रुचि, दृष्टि एवं कोण के अनुरूप कहानी का पुनः सृजन करती है। या यूं कहें कि कहानी वह नहीं जो लेखक द्वारा पन्नों पर उतारी जाती है, बल्कि वह है जो पाठक द्वारा ग्रहीत की जाती है। इसलिए प्रत्येक कहानी के साथ उसके मूल्यांकन के निकष भी अनायास अलग हो जाते हैं और कहानी में निहित अनेकविध व्यंजनाओं को पकड़ पाना भी आसान हो जाता है। सार्थक कहानी अक्सर एक बिंब, भाव या सवाल बन कर चेतना को आप्लावित कर लेती है। और ठीक यहां मानो लेखक को मनचीता करने का रास्ता मिल गया है। श्म्हारे नी बेचनो है म्हारे खेतश् . खंजड़ी को कस कर पकड़ते रक्तरंजित डूंगा का आर्त्तनाद भावापूरित बिंब बन कर पाठक के भीतर तक उतरता चलता हैण्

डूंगी की जिद से ज्यादा डूंगा की बोली-बानी मन को बेचैन करती है। न बोली का प्रयोग अनायास भाव से नहीं हुआ है। यह बोली डूंगा की पहचान को उसकी मिट्टी के साथ जोड़ती है, और फिर उसके खून-पसीने के साथ घुल-मिल कर उसे एक भास्वर अस्मिता प्रदान करती है। तभी तो कहानी भूमि अधिग्रहण के खिलाफ खेत को बचाने की कवायद न रह कर अपनी मानवीय अस्मिता को बचाने की गरिमामयी लड़ाई बन जाती है जो वर्तमान विडंबनाओं से दिशा, परिप्रेक्ष्य और चुनौती लेने के बावजूद तात्कालिकता का अतिक्रमण करते हुए हर देश-काल को रचने वाले मनुष्य के संघर्ष की दास्तान बन जाती है। 

सत्यनारायण पटेल काल की चौखटों में बंधे रहना भी जानते हैं और पंख फैला कर व्योम को नाप आने का हुनर भी। अद्भुत किस्सागो हैं वे - चित-पट के खेल में माहिर। 'मैं'बन कर कथानायक के अंतस की बारीकियों की जांच भी कर डालते हैं (वर्टीकल एप्रोच) और निःसंग भाव से युगीन दबावों के बीच उसे टूटते-बनते देखते भी रहते हैं (हॉरीजोंटल एप्रोच); और इस प्रकार दोनों को ताने-बाने के रूप में पिरोने के कारण कहानी संश्लिष्ट डिजाइन के रूप में में उभरती है। सत्य पटेल के पास एक और खूबी है -निःसंग आसक्ति (डिटैच्ड इन्वॉल्वमेंट)। यह ऐसी विशिष्टता है जो कहानी के साथ लेखक के संतुलित सम्बन्ध को ही नहीं दर्शाती, पात्रों की बुनावट को हर तरह के लेखकीय हस्तक्षेप से मुक्त कर अपना वजूद आप अख्तियार करने का स्पेस भी प्रदान करती है। फिर भी सूत्राधार तो वे हैं ही। कहानी के शुरुआती पन्नों में ही वे ऐसे तीन स्थलों की नियोजना करते है जहां निःसंग आसक्ति के साथ डूंगा को एक निश्चित व्यक्तित्व देने के लिए एडी-चोटी का जोर लगा सकें। पहला स्थल है भदेस, विकृत, बीभत्स, अमानवीय स्थितियों में जीते डूंगा की लघुमानव सरीखी उपस्थिति। स्वयं लेखक देर तक बिंबों का खेल रचाते हुए उसे डूंड के रूप में प्रस्तुत करते हैं - लेटा हुआ डूंड, गेहूं के रंग का डूंड, हिलता हुआ डूंड, एक अदद पेट से लैस डूंड . . . नहीं, इतने भर से संतुष्ट नहीं है लेखक। अब वे 'तकिया'को डूंगा का रूपक बना कर उसका ब्यौरेवार विस्तार देने लगते हैं। तकिया यानी 'फटे चेथरों को खोल में भर कर बना माकणों (खटमलों) का घर'''जब किसी भी घर में सफाई अभियान के कारण माकणों पर घासलेट या फसलों पर छिड़कने वाली दवा से हमला किया जाता, तब माकणें गारे की भीतों की दरारों से, ईंस और पाए की दरारों से यानी जो जहां होता, वहां से जान हथेली पर लेकर भागता और डूंगा के तकिए में आकर राहत की सांस लेता।'' (पृ0 102) डूंगा की अनुपस्थिति में तकिए का अभिन्न हमदम है उसका पालतू कुत्ता ट गड़ा - नींद और 'सू सू'दोनों के लिए पाएदार दोस्त। टुल्लर को लगता रहे कि यह तकिया नहीं, 'ईंट के टुकड़ों से भरी छोटी बोरी'है, लेकिन डूंगा के लिए नींद (विश्रांति) और सपनों (संघर्ष) का आधार है। चूंकि इस पूरे प्रकरण में भावनाओं के अतिरेकी ज्वार से बचा गया है, इसलिए 'पीड़ा'और 'दया'की चिरपरिचित निष्कर्षात्मक अभिव्यक्तियों में दम तोड़ने की बाध्यता से मुक्त भी हो सका है। अपनी अंतिम परिणति में यह प्रकरण अनायास वॉन गॉग की विख्यात कलाकृति 'पोटेटो ईटर्स'का स्मरण करा देता है। तब पीड़ा, करुणा, सहानुभूति के साथ आक्रोश और घुटन के गोले पेट में उठने लगें और पूरी ताकत के साथ दिलोदिमाग को बेचैन कर दें तो यह रचनाकार की सफलता ही कही जाएगी न!

डूंड यानी डूंगा यानी भदेस बीभत्स लघुमानव . . . मैं सोचती हूं यह वर्ग हमारी दृष्टि, सोच और भावनाओं के दायरे से हर बार बाहर कैसे छूट जाता है? या कि हमारे भीतर का शुतुरमुर्ग ऐन वक्त पर रेत में गर्दन गड़ा कर सामने के दृश्य को मुल्तवी कर देता है? सत्य पटेल कहानी में कहीं संकेत तक नहीं देते, लेकिन जाने क्यों मुझे लगता है कि डूंगा का 'लहू पीने को आमादा 'टुल्लर'की आंतरिक बुनावट में वह हर शख्स मौजूद है जो जमीन और फसल के साथ इंसानी वजूद के घनिष्ठ सम्बन्ध को भूल कर त्रिशंकुनुमा चकाचौंध के पीछे लहालोट है। यकीनन इस टुल्लर का दायरा बहुत बड़ा है - हम सब के शतुरमुर्गी 'मैं'से बना हुआ। तो क्या इसीलिए यह कहानी डूंगा को सहानुभूति और दया देने की मांग नहीं करती? एक सवाल! लेकिन माकूल जवाब क्या गहरे उतरे बिना पाए जा सकते हैं?

दूसरे स्थल का चुनाव करते हुए लेखक ने अभाव की संतान डूंगा को श्रम के पर्याय के रूप में सर्जित किया है। यह स्थल लेखकीय स्टेटमेंट के रूप में आया है - ''डूंगा की धोती मानो धोती नहीं थी। उसकी कमर के आसपास लिपटा पूरा समुद्र थी।''इस समंदर में श्रम का पसीना है और हिम्मत-हौसले की गहराई जो पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होकर डूंगा के पास एक अदम्य विश्वास के रूप में आई है कि ''फसल के गोड़ में मेहनत, भावना और नींद के मिश्रण से बनी खाद''डालो, ''एक-एक पौधे को खून के पसीने''से सींचो तो ''फसल को अच्छा होना ही पड़ेगा।''इतना अच्छा कि तबाह करने को आमादा बैरी भी रश्क करने लगें और वैकल्पिक कूटनीति अपनाने को बाध्य हो जाएं कि ''यह ऐसी मेहनत करता रहा, ऐसी फसल काटता रहा . . . कर्जा तो यूं ही पटा देगा। पर रुपए के बदले रुपए लेने को थोड़े ही दिया था कर्जा। कर्जा दिया था ताकि उसके बदले खेत आ सकें।''मैं सोचती हूं ऐसे श्रमजीवी और मजबूत इरादे के धनी व्यक्ति को आखिर लेखक वक्त के हाथों पटकनी खाते क्यों दिखाना चाहता है? खासतौर पर सुविधाभोगी मानसिकता के उस युग में जब 'टके सेर भाजी टके सेर खाजा'सरीखी अंधेरनगरी 'मूल्य'बन गई हो और मिल्टन का कॉमिक हीरॉइक एपिक 'रेप ऑव द लॉक'वक्त का हसीन तब्सरा? या फिर इसलिए कि इसी लीक पर टकराहट, विडंबना और त्रासदी को घनीभूत करना जरूरी है ताकि निष्क्रियता के नीचे धड़कती सक्रियता वैचारिक प्रखरता और कर्मठता का बाना पहन कर हम अपने-अपने डूंगा की रक्षा में बाहर आ सकें? डूंगा और टुल्लर फिलवक्त पाले में आमने-सामने खड़े दो प्रतिद्वंद्वी भले ही हों, अंतस्संम्बन्ध के उस बिंदु को रेखांकित करने की मांग अवश्य करते हैं जहां कभी एकमेक होते हुए भी वे दो विरोधी रेखाओं की तरह एक-दूसरे को काटते हुए विपरीत दिशाओं की ओर तेजी से बढ़ते गए।

डूंगा का अनथक श्रम सपने को साकार करने की हुलस के साथ बंधा है और सपना सांस की डोरी बन कर डूंगा के मन-पा्रणों से लिपट गया है। माने अपनी निःसंग आसक्ति को लेखक ने डूंगा में पिरो दिया हो, और डूंगा के भीतर प्रतिष्ठित होते ही वह गीता के कर्मयोग सिद्धkaत में समा गया हो। सत्यनारायण पटेल कर्मयोगी डूंगा की इसी चारित्रिक दृढ़ता के साथ कहानी का पट खोलते हैं। शंख की फूंक से निष्प्राण डूंगा में गति, ऊर्जा, उत्तेजना, दृढ़ता और आत्मबल का संचार होना डूंगा की कन्विक्शंस को एक भक्त की अनासक्त दृढ़ता और ऊँचाई का रूप देते हैं। भक्ति कर्मकांडी भक्त की तरह डूंगा को पाखंडी नहीं बनाती, आत्मस्थ होने की उस कगार तक ले आती है, जहां विवेक के उजले आलोक में उसे अपना हौसला दी,खता है और लक्ष्य तक ले जाने वाल पथरीली डगर भी। मंदिर की आरती में रोज-रोज आत्मलीन होकर खंजड़ी बजाने वाला यह नास्तिक-भक्त हिंदी कहानी के विरल महानायकों में एक बन जाता है जो कर्म सौन्दर्य का नया शास्त्र रचने लगता है। डूंगा को कोई लघुमानव कैसे कहे? माना कि 'डूंगा का घर यानी मुसीबतों का पीहर', लेकिन इससे क्या वह हेमिंग्वे के उपन्यास 'ओल्ड मैन एंड द सी'के बूढ़े महानायक सा विराट नहीं हो जाता? सत्यनारायण पटेल की खासियत है कि वे अपनी ही स्थापनाओं को काट कर पात्र के साथ-साथ आगे बढ़ते हैं। शायद इसलिए कि अपने ही भंवर से मुक्त हुए बिना वक्त की लहर के साथ चला नही जा सकता।

'लाल छींट वाली लूगड़ी का सपना'कहानी डूंगा की पागल जिद का ऐलान है - अपनी बोली-बानी, परिवार-संस्कृति के साथ जड़ों और जमीन को बचाने की पागल जिद! फिर भी कैसी विडंबना कि खेत में फसल के रूप में नकदी उगाने वाला डूंगा स्वयं फटेहाल है और फसल दर फसल सृष्टि की विकास परंपरा को अविच्छिन्न आगे बढ़ाने वाला घटक वक्त के किसी शुरुआती मोड़ पर ठिठक कर आदिम सभ्यता का प्रतिनिधि ही बन कर रह गया है। राजाज्ञा (अनुकंपा?) की अवहेलना से खेत के बदले मिली थाल भर स्वर्ण मुद्राओं को राजा के ऊपर न्यौछावर करती मधूलिका (प्रसाद की कहानी 'पुरस्कार') की ठंडी निश्शब्द विद्रोह ज्वाला में डूंगा का पागल प्रतिरोध बौखला रहा है कि 'म्हारो नी बेचनो है म्हारो खेत'। लेकिन डूंगा में मधूलिका की तरह आड़ी-तिरछी चालें चल कर बिसात को पलट देने की चाह भी नहीं। दरअसल इस भूमिपुत्र को किसी भी तरह के शतरंजी खेल का कोई इल्म ही नहीं। उसकी हसरतें जितनी छोटी हैं, उतनी ही छोटी है दुनिया - घर, मंदिर और खेत के बीच फैली दुनिया में सपना एक है और चिंताएं अनेक जो डंकल औैर अंकल के डसने-हंसने के बीच अपने वजूद को बनाती-फैलाती चलती हैं। 'दास्तानगो'में प्रियंवद पुल पर पलटी घोड़ागाड़ी को लूटते भिखमंगों की फौज के अंतस्तल में नहीं उतरते, लेकिनं न जाने क्यों मुझे उस भीड़ में सम्पत माय के बेटे किशोर समेत रामा बा और डूंगा की आने वाली पीढ़ियां दिखाई देने लगी हैं। आखिर कब तक मंदी का आलम विश्व-बाजार के सैलाब को रोके रहेगा? फैटेंसी के तौर पर अच्छा लग सकता है कि मॉल और मल्टीप्लेक्सों की गोद से निकल कर विकास वापस खेत की ओर मुड़ जाएगा; कि ऊर्जाकेन्द्रित हवाई जहाज-एयरकंडीशर और रेफ्रीजिरेशन जैसी सुविधाओं की जगह दीए की टिमटिमाती लौ जल-जंगल-जमीन से हमारा रिश्ता पुख्ता कर देगी, लेकिन इतना तय है कि उठी हुई लहर कभी पीछे नहीं लौटती। डूंगा के सपने को बचाने के लिए लेखक मंदी जैसी किसी तात्कालिकता को समाधन के रूप में प्रयुक्त कर फौरी तौर पर भले ही समस्या की विकरालता से मुक्त हो जाए, लेकिन 'सोने की जमीन'को लीलने के लिए उठी ताकतों से निपटना इतना इकहरा और सरल तो नहीं। आश्चर्य नहीं कि ये तीनों कहानियां - पुरस्कार, दास्तानगो और 'लाल छींट वाली लूगड़ी का सपना'जमीन और जमीर की रक्षा में सन्नद्ध सेनानियों को औदात्य के शिखर पर ले जाती हैं। प्रसाद ने द्वंद्वग्रस्त मधूलिका के जरिए प्रतिशोध को राष्टद्रोही हरकत बेशक बताया हो, प्रतिरोध की ताकत को 'मृत्युदंड'के पुरस्कार के रूप में सम्मानित अवश्य किया है। भूख और बेहाली के कारण लूट-खसोट की दिशाहीन कारगुजारियों में विघटित होती भूमिहीनों की भीड़ को प्रियंवद ने उम्र और अनुभव से पके-तपे सेनापति का फौलादी नेतृत्व देकर वक्त को संजोने का प्रयास किया है। सत्यनारायण पटेल इन दोनों से अलग सपने की अहमियत और स्निग्धता के बरकस विकास, पूंजी, धर्म और राजनीति के चरित्र की परतें खोलने लगते हैं। अब ज्यादा देर अनासक्त बने रहना उनके लिए संभव नहीं रह गया है। कोई न कोई लेखकीय युक्ति ढूंढ उन्हें बाजार की सर्वग्रासी भूख से सपने और संघर्ष के प्रति व्यक्ति की आस्था को बचाए रखना है। वे जानते हैं कि जिंदगी अपनी रवानगी में इंसान को जय-पराजय का आकलन करने को वक्त नहीं देती। बल्कि सच तो यह है कि एक अकेले व्यक्ति की हार-जीत व्यवस्था या समाज पर कोई बड़ा प्रभाव भी नहीं डालती। लेकिन जीवन की अनुकृति होने के बावजूद कहानी जीवन जैसी जटिल अबूझ और अथाह नहीं। वह निश्चित कूल-किनारों में बंधी है और उतार-चढ़ाव के निश्चित ग्राफ के साथ जीवन की किसी एक विडंबना को अपनी नजर से तोड़ती-बुनती है। जाहिर है यहां जय-पराजय (दृष्टि) का मसला जीवन के साथ लेखक के सम्बन्ध का उद्घाटन करने लगता है और कहानी जीवन की कोख से निकलने के बावजूद जीवन का सृजन करने का जरिया बन जाती है। पाश्चात्य नाट्यशास्त्र में जिसे देनूमा (denoument) कहा गया है, वह उतार की क्लांत यात्रा नहीं, न ही सkaझ ढलने पर जाल समेटते मछुआरों की यांत्रिक गतिविधि है, बल्कि सरोकार और संवेदना की धुरी पर टिक कर त्रिलोक की यात्रा कर आने के बाद अपनी कन्विक्शंस को मूर्त रूप देने की ललक है। बेशक नाट्य अवस्थाओं को कहानी में ठीक उसी रूप में मूर्त करने की मांग बेमानी है, लेकिन देनूमा ही वह स्थल है जहां जीवन-समय-समाज के साथ अपने अतःसम्बन्धों को गुनते-रचते लेखक -पाठक को भी संवेदना और विचार के उसी धरातल पर ले आकर एक साझी दायित्वशीलता के साथ सृजन का नयौता देता है। काव्यशास्त्रीय प्रतिमान इसे उदात्तीकरण की भावभूमि का नाम देना चाहें तो देते रहें, मैं इसे लेखक की निजता और विशिष्टता का आधार-बिंदु मानूंगी जो किस्से में पहली बार प्राण-प्रतिष्ठा कर इसे 'कहानी'का रूप देता है, वरना इससे पूर्व तो वह चतुर किस्सागो द्वारा सुनाई जाने वाली रोचक दास्तान ही थी। यह वह स्थल है जहां लेखक के लिए किसी भी किस्म का मुखौटा पहनना संभव नहीं। मंदी यानी बाजार के पराभव की परिकल्पना कर लेखक कहानी के उद्देश्य को साफ-साफ शब्दों में बयान कर देते हैं कि ''जब तक खेत बचा है, खेती करने की इच्छा बची है, अपनी मेहनत की फसल के दम पर लाल छींटदार लूगड़ी लाने का सपना बचा है . . . बहुत कुछ बचा है'' (पृ0 135) डूंगा का सपना उनका अपना सपना है और आम आदमी के जीने का आधार भी। आधार बना रहेगा तो आस्था और संघर्ष की लौ भी जगमगाती रहेगी। इसलिए लेखक की गिरफ्त से छूट कर कहानी स्वयं डूंगा के सपने को टूटने-छीजने से बचाने की कवायद मे जुट जाती है। कहानी जो डूंगा के सपनों की नहीं, 'मेरे'सपनों की राजदार बन जाती है और जानती है सपना टूट गया तोे सम्बन्धों की मिठास और आपसी विश्वास का सूत्र भी टूट जाएगा। लूगड़ी पोशाक होती तो डूंगा कब का खरीद कर मां-पत्नी को पहना-औढ़ा चुका होता। लूगड़ी बतर्ज कबीर 'संतोषधन'है जहां अपनी न्यूनतम मानवीय गरिमा को बचाने के लिए इंसान को अभाव, आतंक, उत्पीड़न और कदाचार के दलदल में न उतरना पड़े। इसलिए कहानी डूंगा के पराभव की कहानी बन ही नहीं सकती थी। अपनी मूल संकल्पना में यह विकास की गति और नीति पर व्यंग्य की कहानी है। सपने के टूटने की नहीं, सपने को बचाने की जद्दोजहद की कहानी है। डूंगा सपने देखने में मग्न रहता तो शेखचिल्ली की तरह कब का भुला दिया गया होता। वह सपनों को साकार करने का हौसला बन कर सामने आता है। सपने को बचाने की खातिर परिवार और समाज से टकराता डूंगा अकेला खड़ा है - अडिग, अविचल, स्थिर। मानो परिवर्तन का चक्र सबको लाद कर चलता बना हो और डूंगा उसे समझाता ही रह गया हो कि ''किसान का बेटा खेत में खटता नी, अपने मन से जुटता है - अपनी धरती मां की गोदी में खेलता है।'

मैं सोचती हूं क्यों न रुक कर 'किसान का बेटा'कही जाने वाली शख्सियतों के साथ मुलाकात ही कर लूं। डूंगा, रामा बा, किशोर तो हैं ही, डूंगा का साला मदन और टुल्लर के छोरे भी तो हैं किसान के बेटे। लेकिन किशोर ने तीस लाख रुपए में दो बीघा खेत बेच कर घर के सामने कार खड़ी कर ली है; और मदन खेतीबाड़ी करने जैसी 'फिजूल'की दिनचर्या से मुक्ति पाकर दिनदहाड़े गांव के बीचोबीच जुआ खेल कर पैसा बनाने का चरखा चलाने लगा है। बेशक उसके साथियों में कुछ निठल्ले कामचोर बदमाश हैं तो कुछ उस जैसे 'समझदार'किसानपुत्र भी जांे हवा का  रुख भांपते ही अपनी कार्यशैली बदल लेते हैं। आखिर मदन और किशोर करें भी तो क्या करें? जब खेतों में फसल की जगह कारें, बंगले और मल्टियां लहलहाने लगें, खेत बेच कर इतने पैसे मिलें कि सम्हाले न सम्हलें तो फिर वे फकीरी और फटेहाली में क्यों रहें? उनके रोके विकास की आंधी रुकेगी तो नहीं। और फिर वे रोकें भी क्यों? जिन सपनों को देखने के लिए छुटपन से आंखे तरसतीं थीं, वही मानो अब सभी सीमाएं तोड़ कर उनके पास आने को बेचैन हैं। विकास की हवा ने खेत लील लिए है तो क्या, बेहद उर्वर 'रोजगार'भी तो मुहैया कराया है - जमीन की दलाली। गांव के भीतर तक घुस आए महानगरों को अपनी साख बनानs के लिए आनन-फानन में बहुत कुछ करना है - चौड़ी-चिकनी सड़कें, मल्टीप्लैक्स, पैट्रोल पंप, इंडस्ट्रियल टाउनशिप, पार्क। जमीन के बिना कुछ भी संभव नहीं। सो जमीन दिलाने का जिम्मा दलाली के नाम पर जमीन से बेदखल कर दी गई इसी आत्मरतिग्रस्त पीढ़ी के पास। 

अपने भविष्य से बेपरवाह यह पीढ़ी न श्रम के महत्व को जानती है, न जीवन-मूल्यों की उपयोगिता और न आत्मसम्मान की दमक। भोग, अनास्था, अराजकता और 'स्व'का संकरा कीचड़ भरा दायरा - इससे बाहर यदि कोई दुनिया है और उसमें डूंगा जैसे लोग अपनी प्रतिरोधी ताकत के साथ लाल छींट वाली लूगड़ी का सपना जुटाने का संकल्प लिए बैठे हैं तो यह एजेंट पीढ़ी छल से, बल से उन्हें धूल चटाने को तैयार है। निष्ठा और आतंक को एक-दूसरे का पर्याय मान कर इन्होने वफादारी और अपराध में पाए जाने वाले फर्क को मिटा दिया है। नहीं तो वे सिर्फ इस बात के लिए रामा बा की बेटी का अपहरण और सामूहिक बलात्कार न करते कि उसने खरे-खरे शब्दों में जमीन का सौदा करने से इंकार कर दिया है। दरअसल जब मिट्टी सोना बन जाए और जीवन देने की बजाय तृष्णाओं की तिजारत करने लगे, तब न विवेक शेष रहता है, न सम्बन्ध। महत्वपूर्ण हो जाता है अपना अहं और मूल्यवान हो जाती है अपनी हर इच्छा। जाहिर है बाधा पहुंचाने वाला हर व्यक्ति 'शत्रु'बन जाता है और युद्धनीति यही बताती है कि शत्रु का सिर कुचले बिना 'शांति'की स्थापना संभव नहीं। अलबत्ता सिर कुवलने की प्रक्रिया शत्रु को नष्ट करने भर के लिए नहीं होती, संभावित शत्रुओं के हौसले पस्त करने की टंकार भी होती है। इसलिए आश्चर्य नहीं कि डूंगा जैसे दिलेर को सपने में लूगड़ी की बजाय कभी रामा बा की बेटी की तरह अपनी बेटी पवित्रा नंगी-निचुड़ी दिखाई देने लगती है और कभी लहलहाती फसल राख का ढेर बन जाती है। यह अनिष्ट की आशंका से होने वाली सिहरन नहीं, अवश्यंभावी अनिष्ट के सामने छीजते चले जाने की स्वीकृति है।

माथे पर हाथ धर कर न बैठे तो डूंगा क्या करे? खेत बचाने के अलावा बेटी ब्याहने की चिंता भी है उसे। पढ़ी-लिखी संस्कारशील बेटी को ब्याहने के लिए उसके जोड़ का दूल्हा ही चाहिए, लेकिन पढ़-लिख कर 'भणे-गुणे'लड़के या तो पुलिस-फौज में जा रहे हैं या प्राइवेट नौकरियों में । खेती (गांव और मां-बाप में भी) में किसी की रुचि नहीं। नौकरीपेशा लड़कों को चाहिए ऊँचा दहेज। जो एक छींटदार लूगड़ी न खरीद पाया हो, वह दहेज का ढेर कैसे लगाए? और नौकरीपेशा लड़के भी क्यों न चाहें दहेज? जब खरबूजे को देख कर खरबूजा रंग बदल लेता हो और खातियों की शादियों में दहेज-दिखावा-औरतबाजी का चलन बढ़ गया हो तो ऊँची कही जाने वाली जातियां क्योंकर पीछे रहेंगी? आखिर होरी भी तो 'महतो' (जमीन से डेढ़ अंगुल ऊपर) होने के नशे में कहां-कहां समझौते नहीं करता फिरा? लेकिन डूंगा होरी नहीं। समझौताविहीन जिंदगी जीने की जिद ने उसे तोड़ दिया है। दमड़ी बंसोर के साथ मिल कर भाइयों से थोड़ा छल-फरेब करने की होरी-सरीखी कुशलता डूंगा में बिल्कुल नहीं। न ही अरमान (मर्यादा) और अवसर की लहर पर सवार होकर लड़कियों के ब्याह के लिए दो अलग-अलग तरह के निर्णय लेने की व्यवहारकुशलता। स्मरण रहे कि बड़ी बेटी सोना के ब्याह के समय समधियों द्वारा दान-दहेज न दिए जाने के निर्देश के बावजूद होरी कर्ज लेकर धूमधाम से ब्याह करता है क्योंकि परंपरागत भारतीय परिवार में शादी (और खासकर पहली शादी) के समय ही अपने रुतबे और ताकत को दिखाने की प्रथा है। लेकिन वही होरी अंतिम संतान रूपा के ब्याह के समय न केवल कुशकन्या देने का निर्णय लेता है, बल्कि वर से कन्या-शुल्क के रूप में दो सौ रुपए भी वसूलता है। बेशक कर्ज के तौर पर ही, लेकिन वह चोर-मन को समझाने की एक अदा भर है। डूंुगा के पास एक ही इल्म है - मेहनत करते हुए सूखी छड़ी-सा तन कर खड़ा रहना। इसलिए वह झुक/मुड़ कर प्रतिकूलताओं की विकरालता से स्वयं को बचा नहीं पाता, टूट जाता है। होरी के व्यक्तित्व में गुंथी लोचशीलता (व्यवहारकुशलता) धनाभाव एवं समयाभाव के बावजूद उसे 'पंच पोसाक'पहन कर जमींदार के दरबार में 'नजराना'और 'बेगार'पेश करने के लिए प्रेरित करती है, डूंगा का अड़ियल स्वभाव और कर्मठ वृत्ति कभी रुक कर अपने को भीतर-बाहर से निरख-परख कर 'चीन्हने'का अवकाश नहीं देती। अपने ही प्रति अनुदार डूंगा मानो अपने और अपने परिवार-परिवेश से अपरिचित होता जा रहा है। इतना अधिक कि आईने में खुद को न पहचान पाए। पलट कर पीछे देखे कि कौन बूढ़ा बैठा है। भीतर यौवन की उमंग और बाहर बुढ़ापे की ढलान - रियलाइजेशन (यथार्थ की प्रतीति) की इस प्रक्रिया में ठगा सा रह गया है डूंगा कि 'पुपलाता मुंह, धंसी आंखें, पुतलियों के आसपास फफूंद जैसा कुछ जमा हुआ, भाल-नाक और गाल पर मकड़जाल, और जाल के नीचे आटा छननी के माफिक छोटे-छोटे छेद -इस डूंगा को वह बिल्कुल नहीं पहचानता, ठीक वैसे जैसे दुर्गंधयुक्त खटमल भरे चीकट तकिए की असलियत से वह खुली आंखों दूर रहता है। तो क्या यह 'सिधाई' (जिसे मूर्ख कड़ियल जिद का नाम भी दे बैठते हैं लोग) ही डूंगा के व्यक्तित्व की बड़ी दरार है जो उसे धीरे-धीरे क्षरित कर रही है? ''कसो घनचक्क्र है हूं भी'' - खोपड़ी में एक टप्पू मार कर बुदबुदाता-हंसता डूंगा पाठकीय सहानुभूति बटोरने में जरा भी देरी नहीं लगाता, लेकिन सहानुभूति का उफान उतरते ही उसकी अति विनम्रता अहं की बू से गंधाती दीखने लगती है। बेशक 'सीधा'दीखता डूंगा इतना सीधा भी नहीं है। जमाने के हिसाब से अपना बदलना भले ही उसने मुल्तवी रखा हो, बदलते जमाने की चाल को पहचानता है वह, और उस चाल में कदम मिला कर चलने को बेताब पत्नी-बेटी की व्यकुलता को भी। जानता है कि टी वी धारावाहिकों को देखते-देखते पवित्रा ठीक वैसे ही जेवरों, सितारे जड़ी लाल चूनड़ी और राजकुमार सरीखे दूल्हे के सपने लेने लगी है। अनुमान भी है कि अपने को 'भणी-गुणी'लड़कियों की श्रेणी में रख कर वह ब्याह के बाद 'किसी के यहां गोबर सोरने और कंडे थेपने'का काम बिल्कुल नहीं करेगी। टी वी धारावाहिकों के डिजाइनर घर, डिजाइनर सम्बन्ध और डिजाइनर सपने एक पूरी पीढ़ी को भरमा रहे हैं, मेहनत की जगह तिकड़म को मूल्य बना कर पोस रहे हैं। जमीन मेहनत का पर्याय है, इसलिए वह आंख में खटकती है। कारखाना कारुं के खजाने का पर्याय है, जिसे लगाना बहुत आसान है। बस, जमीन बेच कर पैसे खरे करने हैं, और फिर उन्हें कारखाने की शक्ल में ढाल देना है। चाहो तो अपने सपने को पूरा करने के लिए लूगड़ी बनाने का कारखाना ही क्यों न खोल ले इंसान/डूंगा . . . . और कारखाना संभालने के लिए टी वी धारावाहिकों में आने वाले किसी हीरो को घरजंवाई बना ले। सब कुछ कितना आसान . . . और सपने की तरह भारहीन . . . सुहाना। जमीन की 'मुसीबत'बीच में से निकल जाए बस। ममत्व की डोर से बंधा डूंगा पवित्रा की तर्कहीन सोच पर सौ जान से फिदा है, लेकिन पारबती को प्रताड़ित करने से नहीं चूकता। अलबत्ता सीधे-सीधे पारबती से अपनी नाखुशी बयान करने का हौसला (स्पष्टता) उसमें नहीं, पारबती के भाई मदन के बहाने पारबती के कानों में सीसा सा घोल देता है कि ''. . . जिको मन जी (मां) का दूध से नी भरियो, जी का खून पीना से, गोश्त खाना से कैसे भरोगे?'' (पृ0 124) 

शायद यह प्रताड़ना पारबती के साथ-साथ अपने लिए भी है क्योंकि मन ही मन वह जानता है, भीतर बैठा 'चोर डूंगा'जमीन बिकने से मिले पैसों का पहाड़ देख-देख कर मुदित हो रहा है और कुलाबे बांध रहा है कि ''किशोर के दो बीघा के तीस लाख तो मेरे दस बीघा के कितने होंगे। अयं अयं! डेढ़ सौ लाख! बहुत ऊँची और चौड़ी खंडार होगी। पूरी बैलगाड़ी भर जाएगी। लेकिन एक बैलगाड़ी भर नोट में कितनी बैलगाड़ी भर लूगड़ी आएगी। फिर मैं, मेरी पडत्रोसन सम्पत काकी को ही नहीं, परगांव की भी कई सम्पत काकियों, पारबयिों और पवित्राओं को लूगड़ी दे सकूंगा। धरती मां की हरेक बेटी को लाल छींटदार लूगड़ी ओढ़ा दूंगा।'' (पृ0 118) इस चोर डूंगा का मुंह छेंकने के लिए डूंगा को सजग और लाउड होकर जगह-जगह सवालों के पहरेदार तैनात करने पड़ते हैं कि ''डूंगा, खेत बेच देगा तो काम क्या करेगा? रोटी कहां से कमाएगा? क्या तू धरती का बेटा धरती को बेचे पैसों से रोटी खरीद कर खाएगा? . . . खेत में मेहनत करे बगैर तुझे रोटी हजम हो जाएगी? नींद आ जाएगी? कोई बेटा अपनी मां का सौदा करके चैन से सो सकता है?'' (पृ0 118)

माया और मृगतृष्णाओं के आसमान से आच्छादित यह ठीक वही स्थल है जहां डूंगा और टुल्ल्र अपनी-अपनी किंकर्त्तव्यविमूढ़ता और अस्पष्टता के साथ विचलित से एक-दूसरे के सामने ठिठक कर खड़े हैं। दोनों के सामने एक ही सवाल है - बुनियादी भी और चुनौतीपूर्ण भी कि खेत बेच दिए तो खाओगे क्या? जवाब के तौर पर कोई ठोस जमीनी समाधान नहीं, देखी-सुनी बातों की नजीर कि अपनी 'सोने की जमीन'बेच कर दूर कहीं 'गारे की जमीन'खरीदो, हाली के ईमान के भरोसे जमीन और फसल छोड़ कर गांव लौट आओ; खाली वक्त में ताश-पत्ते खेलो; दूसरों की बहू-बेटियों को ताको; लोगों की जमीन बिकवाने का फायदेमंद धंधा अपनाओ। ऐसी नजीरें तृष्णाओं को हवा देने के लिए होती हैं, भविष्य का दीदार करने के लिए नहीं। इसलिए नोटों की गड्डियां और उनसे खरीदी ऐयाशियां दीखती हैं, धीरे-धीेरे चुक कर शून्य होता आर्थिक आधार नहीं दीखता। चंचला लक्ष्मी जिस गति से आती है, उससे दूनी तेजी से लौट भी जाती है, यह बात किसी से क्या छिपी है? लेकिन कड़वी सच्चाइयों का स्मरण स्वप्नाविष्ट अवस्था में कोई नहीं करना चाहता। इसलिए कार-बंगले-बंदूक और रुपयों की गर्मी में इतराती 'त्रिशंकु मानसिकताएं'नहीं देख पातीं कि अकर्मण्यता और अपराध की जुगलबंदी दो-तीन पीढ़ियों बाद उन्हें ठीक वैसे ही नेस्तनाबूद कर देगी जैसे भाखड़ा-नंगल बांध के लिए अधिग्रहीत जमीनों का मुआवजा पाने और हरित क्रांति के बाद पंजाब का मेहनतकश किसान अपना आपा खोकर धीरे-धीरे नशे, आतंक और अपराध का गुलाम बन बैठा। डूंगा इन सवालों और दूरगामी परिणामों पर विचार करना भी जरूरी समझता है। इसलिए नौ नकद न तेरह उधार वाली नीति को अपना मूलमंत्र मान कर चलता है। वह बखूबी जानता है कि सपने देखना और सपना पालना दो अलग-अलग चीजें हैं। पारबती की तरह सपने देखने का मोहाविष्ट क्षण उसे गुदगुदाता भी है (''जल्दी ही उसके घर के सामने भी कार खड़ी होगी और पवित्रा का लाड़ा कार को कपड़ा पहनाएगा। डूंगा और वह खाट पर बैठे-बैठे देखेंगे।'') और हूक बन कर किशोर के प्रति ईर्ष्याविदग्ध भी कर डालता है कि वह ''रोज एक-दो लूगड़ी का तेल तो फूंक ही देता होगा''लेकिन टुल्लर या किशोर की तरह अपने हाथ-पैर काट कर दूसरों को नहीं थमाता। डूंगा की जिद में उसका होश कायम है जो उसकी मानसिक शक्ति को और मजबूत करता है। रामा बा और किशोर ठोस उदाहरणों के रूप में उसे अपना कर्त्तव्य-पथ चुनने का विश्वास देते हैं। रामा बा हार कर भी विजेताओं के सामने चुनौती की तरह डटे हुए हैं जिन्हें नेस्तनाबूद करने में स्वयं पूंजीवादी ताकतों के छक्के छूट रहे हैं। किशोर अधकचरे प्रतिरोध की मिसाल है जो हारी हुई लड़ाई लड़ने का हुनर नहीं जानता; जरा सा दबाव आते ही घुटनों के बल बैठ जाता है और फिर रिरियाता हुआ पूंजीवादी ताकतों से पनाह मांगने चला जाती है। टुल्लर के लिए वह आसानी से हस्तगत किया जा सकने वाला मुहरा है और पूंजीवादी ताकतों के लिए अपनी जीत का ऐलान। सुविधाभोगी रीढ़विहीन लोगों के लिए किशोर प्रतिरोध और संघर्ष की मिसाल हो तो हो, डूंगा किशोर की तरह बाजार के बहकावे में आकर अपने पैरों तले की पुख्ता जमीन नहीं छोड़ सकता। वह पढ़ा-लिखा ज्ञानी न सही, अनुभव का ताप सह कर 'त्रिशंकु'होने की त्रासदी जान गया है। इसलिए मानता है कि नोटों की गड्डियों से खरीदे जा सकने वाले सपने आत्मसार्थकता का संतोष नहीं देते, मरीचिका की अंधी बदहवास दौड़ में धकेल देते हैं। पवित्रा और पारबती के सपने में शामिल होने की हर कोशिश उसे और भयभीत, अकेला और असुरक्षित कर देती है। वह जानता है कि मनचली पतंग की तरह सातवें आसमान की बुलंदी तक ले जाकर जब सपना इंसान को नीचे धकेलता है तो उसके बाद साबुत बचने की जरा सी भी गुंजाइश नहीं छोड़ता। गजाधर बाबू सरीखा (उषा प्रियंवदा की कहानी 'वापसी') होता डूंगा तो पत्नी को बेटीं, बाजार और मायावी सपनों के पाले में जाते देख अपना बोरिया-बिस्तर समेट अकेले आत्मसम्मान की दमकती जिंदगी जी लेता, लेकिन तभी जब परिवार सुरक्षित हो। वह तो नियति के उस दांव पर अवसन्न है कि अभावों के बीच भी दाम्पत्य के माधुर्य से पगा खेल खेलती सहचरी उम्र की ढलान पर आकर इतनी अपरिचित और तीखी क्यों हो गई कि डूंगा की आंख में तैरते सपने के परिपार्श्व में उगे असुरक्षा, भय और बेबसी को देख ही नहीं पा रही। रुपए क्या सम्बन्ध और संवाद दोनों से भारी पड़ने लगे हैं? क्यों नहीं समझती पारबती कि परिवार का सहारा मिले तो पूरे संसार से टक्कर ले सकता है आदमी? तो क्या जुझारु रामा बा की लड़ाई में उनका परिवार साथ है? डूंगा अनिश्चित सा मानो सिर खुजलाता जवाब की टोह में रामा बा के भीतर तक उतर जाना चाहता है। इतने बड़े हादसे के बाद दो-दो जवान बेटियों के बाप को क्या बेटियों और उनकी महतारी से किसी किस्म के सहयोग की अपेक्षा करनी चाहिए? डूंगा गुणा-भाग नहीं जानता, लेकिन रामा बा के मुकाबले अपने को बौना होते जरूर महसूस करता है। रामा बा उसकी प्रेरणा हैं और ताकत का सतत स्रोत भी। बाजार और व्यवस्था को चाहे वह पलट न सके, लेकिन अपने प्रतिरोध को दर्ज कराने का रचनात्मक दायित्व क्योंकर न सम्पन्न करे?

जाहिर है युग नाम बदल कर किसी भी रूप में क्यों न आए -सतयुग, त्रेतायुग, कलियुग - सत्-असत् का द्वंद्व कभी समाप्त नहीं होता। न ही मूल्यों के विघटन या अंत की हाय-हाय के बावजूद जीवन-मूल्यों के बुनियादी ढांचे में कोई हेर-फेर होता है। अपनी आदिम मनोवृत्तियों और महत्वाकांक्षाओं के साथ मनुष्य पतन, निष्कृति और उन्नयन के उन्हीं-उन्हीं द्वारों पर दस्तक देता चलता है जहां से गुजर कर उसके पूर्वज अपने वक्त में एक सकारात्मक हस्तक्षेप करने की आकांक्षा में कालजयी लड़ाइयां लड़ते चले गए। 'लाल छींट वाली लूगड़ी का सपना'कहानी अपनी मूल संकल्पना में वक्त को आज के फ्रेम में पिरोकर भी चीन्हती है और तमाम हदबंदियों से मुक्त कर अखंड समय के भीतर स्थित हो कर मनुष्य की जिजीविषा और संघर्षाकुलता के बरक्स आत्मपरक आततायी ताकतों की नृशंसता और स्वार्थपरता को संदर्भ भी देती है। तब डूंगा को सत् यानी संकल्पदृढ़ता, तेज और कर्म-सौन्दर्य का रूपक बना कर कहानी आम आदमी के लिए परिवार, सम्बन्ध और विश्वासपगी आत्मीयता को जीवन की हर सांस में पिरोने का आख्यान बन जाती है तो सपनों की सौदागर लम्पट पीढ़ी के लिए डूंगा को जमीन हथियाने के कारोबार का सबसे बड़ा रोड़ा बना देती है क्योंकि एकमात्र वह ही जानता है, जब तक सपने हैं, तब तक श्रम और संवेदन से उर्वर जमीन पैरों के साथ वजूद को भी टिकाए-बनाए रखने की ताकत देती रहेगी।  


समीक्षक ....

डॉ0 रोहिणी अग्रवाल
09416053847






अंजू शर्मा की कहानी - समयरेखा

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       सिताब दियारा ब्लॉग पर प्रस्तुत है अंजू शर्मा की कहानी ‘समयरेखा’ 
                             

                                 समयरेखा


"छह बजने में आधा घंटा बाक़ी है और अभी तक तुम तैयार नहीं हुई!  पिक्चर निकल जाएगी, जानेमन!!!"


मानव ने एकाएक पीछे से आकर मुझे बाँहों में भरते हुए ज़ोर से हिला दिया!  बचपन से उसकी आदत थी, मैं जब-जब क्षितिज को देखते हुए अपने ही ख्यालों में डूबी कहीं खो जाती, वह ऐसे ही मुझे अपनी दुनिया में लौटा लाता!  उसका मुझे 'जानेमन'कहना या बाँहों में भरकर मेरा गाल चूम लेना किसी के मन में भी भ्रम उत्पन्न कर सकता था कि वो मेरा प्रेमी है!  मेरी अपनी एक काल्पनिक दुनिया थी जिसमें खो जाने के लिए मैं हरपल बेताब रहती!  ढलते सूरज की सुनहरी किरणों में जब पेड़ों की परछाइयाँ लंबी होने लगती, शाम दबे पाँव उस प्रेमिका की तरह मेरी बालकनी के मनी-प्लांट्स को सहलाने लगती जो अपने प्रेमी की प्रतीक्षा करते हुए हर सजीव-निर्जीव शय को अपनी प्रतीक्षा में शामिल करना चाहती है!  ऐसी शामों के धुंधलकों में मुझे खो जाने देने से बचाने की कवायद में, तमाम बचकानी हरकतें करता, वह मेरे आँचल का एक सिरा थामे हुए ठीक मेरे पीछे रहता!  ऐसा नहीं था कि यह उसकी अनधिकार चेष्टा मात्र थी, कभी मैं भी उसकी हंसी में शामिल हो मुस्कुराती तो कभी कृत्रिम क्रोध दिखाते हुए उसकी पीठ पर धौल जमाते हुए ऐतराज़ जताती!


पर आज तन्द्रा भंग होना मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगा!  "जाओ न, मनु!  आज मेरा मन नहीं है!"मैंने नीममदहोशी में फिर से अपनी दुनिया में लौट जाने के ख्याल से दहलीज़ से ही उसे लौटा  देना चाहा!  मेरी आवाज़ में छाई मदहोशी से उसका पुराना परिचय था!


"
तुम्हारे मन के भरोसे रहूँगा तो कुंवारा रह जाऊंगा, जानेमन!"  उसने फिर से मुझे दहलीज़ के उस ओर खींच लेने का प्रयास किया!


"
शटअप मनु!  जाओ अभी!"  मैंने लगभग झुंझलाते अपनी दुनिया का दरवाज़ा ठीक उसके मुंह पर बंद करने की एक और कोशिश की और इस बार झुंझलाने में कृत्रिमता का तनिक भी अंश नहीं था!  सचमुच पिक्चर जाने का मेरा बिल्कुल मन नहीं था!  यूँ भी मानव की पसंद की ये चलताऊ फ़िल्में मुझे रास कहाँ आती थीं!  वो मुझे निरा अल्हड किशोर नज़र आता, जिसकी बचकानी हरकतें कभी होंठों पर मुस्कान बिखेर देती तो कभी खीज पैदा करतीं!  ये और बात है कि हम हमउम्र थे!  उसकी शरारतें मेरे जीवन का अटूट हिस्सा थीं, किताबों, सपनों और माँ की तरह!


"उठो अवनि, तुम्हारी बिल्कुल नहीं सुनूंगा!"  उसने कोशिशें बंद करना सीखा ही कहाँ था! 


 
न जाने मुझे क्या हुआ मैंने झटके से उसकी बांह पकड़ी और खुद को उसे दरवाज़े की ओर धकेलते हुए जोर से कहते सुना, "जाओ मानव, सुना नहीं तुमने, नहीं जाना है मुझे कहीं!  मुझे अकेला छोड़ दो, जाओ, प्लीईईइज़!"


उसे ऐसी आशा नहीं थी, मैंने पहले कभी ऐसा किया भी तो नहीं था!  मेरी लरजती आवाज़ की दिशा में ताकता वह चुपचाप कमरे के दरवाज़े की ओर बढ़ गया!   अजीब बात थी कि उसका जाना मुझे अच्छा नहीं लग रहा था!  अब मेरा दिल चाह रहा था वह बाँहों में भरकर छीन ले मुझे इस मदहोशी से, पर.…. पर वह चला गया और मैं रफ्ता-रफ्ता एक गहरी ख़ामोशी में डूबती चली गई! 


कभी कभी लगता है हम दोनों एक समय-रेखा पर खड़े हैं!  मैं पच्चीस पर खड़ी हूँ और अनिरुद्ध पैंतालीस पर!  मैं हर कदम पर एक साल गिनते हुये अनिरुद्ध की ओर बढ़ रही हूँ और वे एक-एक कदम गिनते हुये मेरी दिशा की ओर लौट रहे हैं!  ठीक दस कदमों  के बाद हम दोनों साथ खड़े हैं, कहीं कोई फर्क नहीं अब, न समय का और न ही आयु का!  इस खेल का मैं मन ही मन भरपूर आनंद लेती हूँ!   काश कि असल जीवन में भी ये फर्क ऐसे ही दस कदमों में खत्म हो जाता!  पर मैं तो जाने कब से चले जा रही हूँ और ये फर्क है कि मिटता ही नहीं, कभी कभी बीस साल का यह फासला इतना लंबा प्रतीत होता है कि लगता है मेरा पूरा जन्म इस फासले को तय करने में ही बीत जाएगा!


मार्था शरारत से मुस्कुराते हुए बताती है, मार्क ट्वेन ने कहा था "उम्र कोई विषय होने की बजाय दिमाग की उपज है!  अगर आप इस पर ज्यादा सोचते हैं तो यह मायने भी नहीं रखती!"  मैं खिलखिलाकर हँस देती हूँ, हंसी के उजले फूल पूरे कमरे में बिखर जाते हैं!  मार्था भी न, गोर्की की एक कहानी के पात्र निकोलाई पेत्रोविच की तरह  जाने कहाँ-कहाँ से ऐसे कोट ढूंढ लाती है!  शायद यही वे क्षण होते हैं जब मैं खुलकर हँसती हूँ!  घर में तो हमेशा एक अजीब-सी चुप्पी छाई रहती है! उस चुप्पी के आवरण में मेरी उम्र जैसे कुछ और बढ़ जाती है!  तब मैं और मेरी मुस्कान दोनों जैसे मुरझा से जाते हैं!


पच्चीस की उम्र में अपने ही सपनों की दुनिया में खोयी रहने वाली मैं अपनी हमउम्र लड़कियों से कुछ ज्यादा बड़ी हूँ और पैंतालीस की उम्र में अनिरुद्ध कुछ ज्यादा ही एनर्जेटिक हैं!  अपनी किताबों पर बात करते हुए वे अक्सर उम्र के उस पायदान पर आकर खड़े हो जाते हैं जब वे मुझे बेहद करीब लगते हैं!  उनकी आँखों की चमक और उत्साह की रोशनी में ये फासला मालूम नहीं कहाँ खो जाता है!  मुझे लगता है जब वो मेरे साथ होते हैं तब हम, हम होते हैं, उम्र के उन सालों का अंतर तो मुझे लोगों के चेहरों, विद्रुप मुस्कानों और माँ की चिंताओं में ही नज़र आता है!  उफ़्फ़, मैं चाहती हूँ ये चेहरे ओझल हो जाएँ, मैं नज़र घुमाकर इनकी जद से दूर निकल जाती हूँ पर माँ........!!!


बचपन में माँ ने किताबों से दोस्ती करा दी थी!  माँ की पीएचडी और मेरा प्राइमरी स्कूल, किताबों का साथ हम दोनों को घेरे लेता!  माँ अपने स्कूल से लौटते ही मुझे खाना खिलाकर अपना काम निपटा शाम को किताबों में खो जाती और मुझे भी कोई कहानियों की किताब थमा देती!  किताबों ने ही अनिरुद्ध से मिलाया था!  लाइब्रेरी के कोने में अक्सर वे किताबें लिए बैठे मिलते, एक सन्दर्भ पर दुनिया-जहान की किताबें निकाल-निकाल थमा देते!  मेरे शोध में मुझे जो मदद चाहिए थी वह उनसे मिली!  फिर पता ही नहीं चला कब वे मेरी दुनिया में प्रवेश पा गएजहाँ मैं थी, सपने थे, किताबें थीं, अब अनिरुद्ध थे उनसे जुडी तमाम फैंटेसियां भी थी!  वो लाइब्रेरी में मुझे किसी पन्ने को थामे कुछ समझा रहे होते और मैं उनके काँधे पर सर रखे एक पहाड़ी सड़क पर धीमे-धीमे चल रही होती!  अब  मैं सोते-जागते हर पल अनिरुद्ध साथ रहने को मज़बूर थी!  मेरे कल्पनालोक का विस्तार मेरी नींदों के क्षेत्र में भी अतिक्रमण कर चुका था! 


मार्था के पास इससे सम्बंधित कोट भी हैं, वह गंभीर मुद्रा में दीवार ताकते हुए कहती है "फ्रायड के अनुसार स्वप्न हमारी उन इच्छाओं को सामान्य रूप से अथवा प्रतीक रूप से व्यक्त करता है जिसकी तृप्ति जाग्रत अवस्था में नहीं होती।"  वह कहती है, "स्वप्न हमारी इच्छा का ही सृजन होते हैं और गहन इच्छाओं का परिणाम!  मन एक और संसार गढ़ता है!  हम स्वप्न संसार के पात्र होते हैं!  स्वप्न संसार मजेदार है अवनिकभी खूबसूरत वन, उपवन, तो कभी सूखे पेड़!  कभी मीलों तक फैलीं खामोशियां तो कभी कोलाहल से भरे कहकहे!"


मैं एक सोच का सिरा थाम रही हूँ, वे कौन सी इच्छाएं रही होंगी, जिन्होंने मेरे और अनिरुद्ध के बीच पसरे तमाम सालों के सफर पर जाना तय किया होगा!  मेरी विदुषी सहेली के पास इसका उत्तर भी है!  वह कहती है, मैं अनिरुद्ध में अपने पिता को ढूंढती हूँ जिन्हे मैंने अपने जन्म से पहले ही खो दिया था!  माँ ने अकेले माँ से पिता बनते हुए पिता की गंभीरता, उनकी कठोरता को ओढ़ लेना चाहा जिसकी कोशिश में उनके हाथों से कब वात्सल्य की कोमलता फिसलती गई ये वे भी न जान सकीं!  वे न पूरी माँ बन पाई और न ही पिता!  उनके भीतर सदा एक द्वन्द चलता रहता, उनके भीतर की माँ कभी पिता पर हावी हो जाती और कभी पिता माँ पर!  इन दोनों में संतुलन बिठाने की कोशिश में निढाल हुई माँ को किताबों में निजात मिलती!


"
रबिश, तुम कुछ भी बोलती हो मार्था!"


"
नहीं अवनियह सच है, अनिरुद्ध सर का साथ और स्नेह तुम्हारे अधूरेपन को पूरा करता है!  तुम्हारे अवचेतन में कहीं न कहीं पिता की कमी रही जो तुम्हे उनके साथ में निहित दिखती है!  इस 'मे-डेसेंबर'रोमांस में यही सबसे बड़ी रीज़निंग है अवनि! "


"
और मानव?"


"-----"

"
कहो न मार्था, तब मानव का मेरे जीवन में क्या  स्थान है?"


"
वह तुम्हारे भीतर की स्त्री को संतुष्ट करता है, जिसे स्नेह नहीं प्रेम चाहिए!  देह की अपनी भाषाएँ हैं अवनि और अपनी इच्छाएं!  राग, रंग, स्पर्श, छुअन, चुम्बन, मनुहार और भी बहुत कुछ।"


"
उफ्फ, बस करो, तुम्हारा फ्रायड मुझे ज़रा भी नहीं भाता!"


मार्था जा रही है और मैं लौट रही हूँ, इस बार  राग, रंग, स्पर्श, छुअन, चुम्बन, मनुहार की दुनिया में!  बालकनी में ठंडी हवा के झोंके में सिमटते हुए याद आया दो दिन से न तो मानव नहीं आया था न  ही उसका फ़ोन!


उस शाम मुझे एक  फालतू की बचकानी पिक्चर देखनी पड़ी, बड़े से मैदान में पचास बैकग्राउंड डांसर्स के साथ पीटी करते मानव के नायक-नायिका जाने किस दुनिया के वाशिंदे थे!  उसके पास बारिश में भीगती नायिका थी, बीस गुंडों से ढिशुम ढिशुम करता नायक था, फूहड़ कॉमेडी  वाले सीन थे और मेरे पास था उसका स्पर्श!  कल लाइब्रेरी जाकर मैं भी मार्था के फ्रायड को एक बार पढ़ने का सोच रही थी, पर बिना मार्था को बताये! 


कॉफ़ी टेबल  दूसरी ओर बैठे अनिरुद्ध आज बहुत दूर नज़र आ रहे थे!  उन्हें पंद्रह दिन के लिए विदेश जाना था!  अपनी इस यात्रा को लेकर वे बहुत उत्साहित थे!  विदेश में उनकी किताब के विदेशी अनुवाद  संबंधित था यह कार्यक्रम!  किताबों के अतिरिक्त बहुत कम बोलने वाले अनिरुद्ध आज धाराप्रवाह बात कर रहे थेउनकी किताब, उनका उत्साह, उनकी योजनाएं, विदेशी प्रसंशकउनके आयोजक और मैं?   मैं कहाँ हूँ अनिरुद्ध?


अजीब सा मन था मेरा उस दिन!  अनिरुद्ध के दूर जाने की कल्पना बेचैन किए हुए थीमार्था के शब्द जैसे मेरे चारों और एक कोलाज बना रहे थेराग... रंग.....स्पर्श..... छुअन.....चुम्बन.....मनुहार और भी बहुत कुछदेह की भाषा सुनने  की कोशिश में मैंने  अनायास ही उनका हाथ थामना चाहा, उन्होंने चारों ओर देखते हुए एकाएक उसे झटक दिया!


"
बिहेव अवनि!  क्या हुआ तुम्हे? बच्ची मत बनो!"


"-------"

इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ!  यह पहला अवसर था जब मैं भूल गई थी कि हम शहर के एक व्यस्ततम रेस्टोरेंट में बैठे हैं!  मैं सदा देह की भाषा भूलती आई थीमार्था कहती है देह की अपनी भाषा है और अपनी इच्छायेँ!  अनिरुद्ध ने तो दुनिया-जहान की किताबें पढ़ी हैं, क्या उन्हे देह की भाषा पढ़नी नहीं आती!  उन्होने कितने शब्दों को आकार दिया, पर कुछ शब्द  अभी भी उनसे छूट गए और मैं उन्ही शब्दों को पैरहन बनाकर ओढ़ लेना चाहती हूँ! मुझे याद है अभी तक वह शामकितने करीब थे हम!  इतना करीब कि उनके कंधे पर सर रखे मैं उनकी देह के स्पंदन को अपनी देह में स्थानांतरित होता महसूस कर पा रही थी!  वे मेरी ओर मुड़े, उनकी आँखों में हल्की-सी नमी थी!  पता नहीं क्यों उन जर्द आँखों में मुझे राग, रंग, स्पर्श, छुअन, चुम्बन, मनुहार और भी बहुत कुछ दिखने लगा था!   उनका चेहरा मेरे चेहरे के सामने था! मैंने होले से अपनी आँखें बंद कर ली, मेरी साँसे मानो थम सी गई थी!  उनकी साँसों की थिरकन से मैंने जाना, मेरे करीब आते हुए वे झुके, काँपते हाथों से उन्होने मेरे चेहरे को थामना चाहा फिर रुक गए!  मेरे माथे पर एक हल्का स्पर्श हुआ और मेरी आँखें खुलने से पहले ही वे कमरे से बाहर चले गए!


कल अनिरुद्ध की फ्लाइट थी!  उनके जाने के बाद मैं कब से बालकनी में बैठी उनके ही बारे में सोच रही हूँ!  जहां एक और अनिरुद्ध की मेच्योरिटी, उनकी गंभीरता, उनका संतुलित व्यवहार मुझे खींचता करता हैं जिसे मैं अपने आसपास के लोगों में देखने को मैं तरस जाती हूँ, वहीं अनिरुद्ध को कभी कभी मुझमें बचपना नज़र आता है!  नज़र घुमाती हूँ तो वहीं कुछ दूर मानव हैउसकी हरकतें, उसका अतिरिक्त उत्साह, चीजों और बातों को गंभीरता से न लेने की उसकी आदतें बचकानी लगती है, उसके लिए जीवन सेलेब्रशन है, मस्ती है, नशा है  जिसे वह मेरा हाथ थामकर जीभर जी लेना चाहता है!  वह मुझे जरूरत से ज्यादा गंभीर पाता है, बिल्कुल अलग और काफी हद तक बोरिंग!  तब वह क्या है जो मुझे अनिरुद्ध से और मानव को मुझसे बाँधें रखता है!


अपनी स्थिति को मैं समझ नहीं पा रही हूँ!  बचपन से ही जिस गंभीरता के  आवरण से लिपटी हुई हूँ जाने क्यों कभी कभी किन्ही खास क्षणों में छीजने लगता है!  मैं उसे उतार फेंकना चाहती हूँ, ज़ोर से खिलखिलाकर हँसना चाहती हूँ, अपनी बाहें फैला कर किसी को पुकारना चाहती हूँ!  कौन होगा जिसने प्रेम नहीं किया होगा!  लोग जाने कितने कारणों से प्रेम में पड़ते हैं पर ये सच है, सभी को बदले में प्रेम ही चाहिए होता है, उतना ही प्रेम, वैसा ही प्रेम!  बाकी कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं, कुछ भी तो नहीं!


आज मैं  फिर समय-रेखा पर हूँ!  पता नहीं क्यों पर इस बार समय-रेखा पर हम तीनों थे!  पच्चीस पर मानव, उससे दस कदम दूर, पैंतीस पर मैं और मुझे दस कदम दूर पैंतालीस पर अनिरुद्ध खड़े थे!  मुझे दस कदम बढ़ाने थे, पर किस दिशा में!  मुझे मानव की ओर लौटना था या अनिरुद्ध की ओर बढ़ना था!  देह की भाषा सुननी थी या मन की आवाज़!  वहीँ कुछ दूर माँ खड़ी हैं, ठीक मेरे क़दमों पर नज़र गड़ाएं!  मेरे कदम डगमगा रहे हैं, मैं गिरना नहीं चाहती, ओह, मुझे थाम लो माँ!!!!!!


मानव के जन्मदिन पर इस बार मैंने कुछ किताबें दीं हैं!  वह रैपर खोलता हुआ हैरानी से मेरी ओर देख रहा है!  उसे उस पैकेट में मनपसंद ब्रांड की शर्ट, ब्रूट उसका फेवरेट परफ्यूमउसकी तस्वीर से सजा कॉफ़ी मग, पसंद का म्यूजिक अल्बम या ऐसा ही कुछ पाने की उम्मीद रही होगी!  मैंने उदासी से किताबें उसके हाथ से लेकर टेबल पर रख दीं!  क्या हुआ है मुझेकभी मन चाहता है, मानव मेरे साथ लाइब्रेरी वक़्त बिताये या हम दोनों बालकनी में बैठकर खामोश सिम्फनी सुनें! और.…… और कभी चाहती हूँ अनिरुद्ध पीछे से आकर अचानक मुझे बाँहों में भींचते हुए 'जानेमन'कहें और मेरा गाल चूम लें!


कल अनिरुद्ध की मेल आई थी, वे अब जर्मनी से लंदन चले गए हैं!  बालकनी में तेज बर्फीली हवा चल रही है!  मनीप्लांट अब काँप रहे हैं!  मैं गोवा गई मार्था से पूछना चाहती हूँ, पूछो अपने फ्रायड से स्वप्न नहीं सपनों की दुनिया के मुहाने पर खड़े इंसान के लिए कौन सा रास्ता बचा है!  तुम्हारे फ्रायड का 'लिविडो'अधूरा है मार्था!  उन सपनों का क्या जो पूरे होने के लिए बने हैं!  यही मन आज आकांक्षा, इच्छा की सीमा के पार जाकर भविष्य के भी दृश्य देखना चाहता है!  उनमें अपनी इच्छाओं की स्थापना देखना चाहता है!  स्वप्नों की परिणति चाहता है!  तुमने ही तो कहा थामन तो काल के भीतर है न!  वह काल के तीनों आयामों में आवाजाही करता है- भूत में जाता है तो स्मृति और भविष्य में जाता है तो आकांक्षा!  मैं स्मृतियों को जीते हुए ऊबने लगी हूँ, मार्था, अब स्मृतियों को नहीं, सपनों को नहीं अपनी आकांक्षाओं को जीना चाहती हूँ, भरपूर जीना चाहती हूँ!  मेरे पास स्मृतियाँ ही स्मृतियाँ हैं और आकांक्षाओं के सिरे छूटने लगे हैं!  अपने आज के इस आधे-अधूरे सच को लेकर मैं किसके पास जाऊँ!  मार्था के भेजे कुछ रोते हुए, उदास स्माइली मेरे मोबाइल की स्क्रीन पर चमक कर मुझे मुंह चिढ़ा रहे हैं!  मेरी दुविधा का उत्तर शायद उनके पास भी नहीं!


रात पता नहीं कल कब आँखें बंद हो गई, सुबह माथे पर गीले से, ठंडे से स्पर्श से आँख खुली तो पायामेरा सिर बुखार से तप रहा है, मानव मेरे सिर पर गीली पट्टी रख रहा है और माँ नाश्ते की ट्रे और दवा लिए खड़ी हैं!  मैं समझ गई थी माँ ने ही मानव को कॉल किया होगा और वह कुछ मिनटों में ही  ऑफिस की बजाय यहाँ होगा!  अब माँ आश्वस्त हैं, मानव के इशारे पर मुझे उसकी देखरेख में छोड़कर वे स्कूल जा रही हैं, उनके साथ ही मैं मानव के भीतर के उस बच्चे को भी जाता देख रही हूँ!  उसके हाथ से नाश्ता खाते हुए मैं एक बार भी उसके चेहरे से नज़रे नहीं हटा रही हूँ!  थर्मामीटर ट्रे में रखकर मानव ने मुझे दवा दी, नैप्किन से मुंह साफ किया और हाथ के सहारे से बिस्तर पर लिटा दिया है और हौले से मेरे बालों में उँगलियाँ फिरा रहा है!  अब ये जो मेरे हाथ में है, यह मानव का हाथ नहीं है, स्मृतियाँ नहीं, सपने भी नहीं मेरी आकांक्षाओं के सिरे हैं!  मैंने उन्हे कसकर थाम लिया है! आज समयरेखा पर मेरे पाँव डगमगा नहीं रहे हैंमैं आँखें बंद कर दस कदम गिन रही हूँऔर जानती हूँ वे किस दिशा में होंगे!




परिचय और संपर्क


अंजू शर्मा

विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और ब्लागों में कवितायें/लेख प्रकाशित
बोधि प्रकाशन से कविता संग्रह ‘कल्पनाओं से परे समय’ प्रकाशित
सम्प्रति - स्वतन्त्र लेखन
दिल्ली में रहनवारी    



नेपाली कवि प्रमोद धीतल की कवितायें

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नेपाल में पिछले एक-डेढ़ दशक से जो हो रहा है, एक पडोसी देश होने के नाते हम सब उससे परिचित हैं | हम परिचित हैं कि राजतंत्र के चंगुल से एक कठिन संघर्ष के बाद मुक्त होने के बावजूद यह मुल्क अभी भी जनतंत्र से कोसों दूर है | नेपाली कवि प्रमोद धीतल की कवितायें इसकी झलक देतीं हैं, और भविष्य के लिए उम्मीद की किरण भी |


       तो आज सिताब दियारा ब्लॉग पर प्रमोदधीतल कीतीनकविताएँ



एक .....

वक्त कोसवाल


दिनहैयाढहनाबाकिराह  है?
निष्ठाहैयानिष्ठा केउपरघातहै ?
राज्यहैयाकमीशन तन्त्र काजहरहै ?
लोकतन्त्रहैयाशोकतन्त्र कामरुस्थलहै ?


स्थिरहैमेरीआँख
शंकाग्रस्तहैविश्वास
हर दिनटेलिवीजन में
दिखतेबासीचेहरा नेताहैं
यातिलस्मीअभिनेता ?

देशभक्तिऔरजनहित के
कर्णकटुमन्त्रों का भाषणहैं
याखुल्लासड़क केजादूगर का कमाल ?
बारबारसरकार में
मन्त्रीबदलतेहैंयाविदूषक ?


दो .....

उम्मीदऔरजीवन


जीवनयात्रा में
चलतेचलतेरास्ते में
खायाअसंख्यचोट
नहीमिलाअभीतककोईगन्तव्य
थकान सेभरा हुआहैदिल

चाँद काशीतलप्रकाश
औरशरद कास्निग्धआकाश
वासन्तीफूलों की महक
औरभोरकेसूर्य की चहक
देखानहींअभीतकमैने

मेरेभाई
इन सब केबीच मेंभी
हैमेरी एकदोस्त
उम्मीद
जोचलतेरहने केलिए
कहतीहैमुझको
स्वप्न सजोयेरहनेकेलिए
कहतीहैमुझको




तीन ....

फैसला

बरामदकरनाहै
लुटाहुआभोर
अंधेरीगुफासे,
बचानाहैसपनों को
मुर्दों केजुलुस से


आदत में ढालनाहै
मुक्ति केहठ को
बुद्धिविलास केकैद से,
बेनकाबकरनाहैचेहरों को
आदमीकेमुखौटों से


विजय कोसुनिश्चितकरने वाले
पराजयों सेहाथमिलाएचलनाहै
फिर सेखुद केसाथ
युद्धघोषणा केलिए
खोयाहुआसाहसजुटानाहै



               
परिचय और संपर्क
       
प्रमोद धीतल

दांग, नेपाल
मो. न. 9847826417

ई.मेल ...
dhitalpramod@gmail.com

pramoddhital28@yahoo.com

कविता श्रृंखला "कमाल की औरतें" - शैलजा पाठक

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शैलजा पाठक की कवितायें और डायरी के पन्ने आप पहले भी सिताब दियारा ब्लॉग पर पढ़ चुके हैं | कहना चाहता हूँ कि युवा हिंदी कविता की इस संवेदनशील आवाज को बार-बार पढने की ईच्छा होती है | एक ऐसी आवाज को, जिसमें हमारी आधी दुनिया का पूरा सच सामने आता है | और वह भी पूरी संवेदनशीलता के साथ | पूरी कलात्मकता के साथ | यहाँ प्रस्तुत “कमाल की औरतें” नाम की इस कविता-श्रृंखला को पढने के बाद शायद आप मुझसे असहमत नहीं होंगे | तो लीजिये प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लॉग पर ......        

         
           शैलजा पाठक की कविता श्रृंखला  “.....कमाल की औरतें .....”
                 

एक ....

ये तहों में रखती हैं अपनी कहानियां
कभी झटक देती है धूप की ओर
अपने बिखरे को बुहार देती हैं

ये बार बार मलती हैं आँख
जब सहती हैं आग की धाह
ये चिमटे के बीच पकड़ सकती है धरती की गोलाई
धरती कांपती है थर थर

ये फूल तोडती हुई मायूस होती है
पूजा करती हुई दिखाती हैं तेजी
बड बडाती है दुर्गा चालीसा
ठीक उसी समय ये सीधी करती है सलवटें
पति के झक्क सफ़ेद कमीज की

इनकी पूजा के साथ निपटाए जाते हैं खूब सारे काम
ये नमक का ख्याल बराबर रखती हैं
बच्चों के बैग में रखती हैं ड्राइंग की कॉपी
तो बड़ी हसरत से छू लेती है उसमे बने मोर के पंखों को

ये छोटे बेटे के पीछे पंख सी बन भागती है
कि छूटती है बस स्कूल की
"तुम हमेशा टिफिन बनाने में देर कर देती हो मम्मा '
इनकी हाथों में लगा नमक इनकी आँखों में पड जाता है

ये बार बार ठीक करती है घडी का अलार्म
आधी चादर ओढ़ कर सोई ये औरतें
पूरी रात बेचैन कसमसाती है सांस रोके
इनकी हथेलियों में पिसती हैं एक सुबह
आँख में लडखडाती है एक रात

ये उठती है तो दीवार से टिक जाती हैं
संभलती है चलती है पहुचती है गैस तक
खटाक की आवाज के साथ जल जाती हैं

और तुम कहते हो कमाल की औरतें हैं
चाय बनाने में इतनी देर लगाती हैं ...|



दो .....


देर तक औरते अपनी साड़ी के पल्लू में
साबुन लगाती रहती है 
कि पोंछ लिए थे भींगे हाथ
हल्दी का दाग अचार की खटास या थाली की गर्द 
या झाड लिया था नमक
पोंछ ली थी छुटका का मटियाना हाथ 
साथ इसके ये भी
कि गठिया कर रखी थी ज़माने भर का दर्द 
सर्द बिस्तर पर निचुडने के बाद
माथा पोंछा था शायद 
बाद मंदिर की आरती की थाली भी 
बेचैनियों पर आँख का पानी भी
ज़माने भर के दाग धब्बे को 
एक पूरा दिन खोसें रही अपने कमर के गिर्द
अब देर तक अपना पल्लू साफ़ करेंगी औरते 
कि पति के मोहक छड़ों में
मोहिनी सी नीले अम्बर सी तन जायेंगी 
ये कपडे को देर तक धोती नजर आएँगी 
मुश्किल के पांच दिनों से ज्यादा मैले कपडे
ज़माने का दाग 

ये अपनी हवाई चप्पलों को भी
धोती है देर तक 
घर की चहारदीवारी के बाहर
पैर ना रखने वाली घूमती रहती हैं 
अपनी काल्पनिक यात्राओं में दूर दराज 
ये जब भाग भाग कर निपटाती है अपने काम 
ये नाप आती है समन्दर की गहराई
देख आती है नीली नदी 
चढ़ आती है ऊँचे पहाड़ 
मायके की उस खाट पर
अपने पिता के माथे को सहला आती है 
जो जाने कबसे बीमार है 
इनके चप्पल हज़ार हज़ार यात्रा से मैले है 
ये देर तक ब्रश से मैल निकालती पाई जाती है 

ये देर तक धोती रहती है मुंह की आग
कि भाप को मिले घडी भर आराम 
ये चूड़ियों में फंसी कलाइयों को
निकाल बाहर करती है जब धोती हैं हाथ 
ये लाल होंठो को रगड़ देती है
सफ़ेद रुमाल में उतार देती हैं तुम्हारी जूठन 
ये चौखट के बाहर जाने के रास्ते तलाशती है
पर रुकी रह जाती है अपने बच्चों के लिए

ये देर तक धोती है अपने सपनें
अपने ख्याल अपनी उमंगे
इतनी कि सफ़ेद पड जाए रंग 
ये असली रंग की औरतें
नकली चेहरे के पीछे छुपा लेती है
तुम्हारी असलियत 
ये औरतें अपने आत्मा पर लगी
तमाम खरोचों को भी छुपा ले जाती हैं 

और तुम कहते हो ..
कमाल की औरतें हैं..
इतनी देर तक नहाती हैं ..... |


तीन .....


औरतें भागती गाड़ियों से तेज भागती है 
तेजी से पीछे की ओर भाग रहे पेड़ 
इनके छूट रहे सपनें हैं 
धुंधलाते से पास बुलाते से
सर झुका पीछे चले जाते से 
ये हाथ नही बढाती पकड़ने के लिए 
आँखों में भर लेती है
जितने समा सकें उतने 

ये भागती हिलती कांपती सी चलती गाडी में ..
जैसे परिस्थितियों में जीवन की 
निकाल लेती है दूध की बोतल ..
खंघालती है उसे  
दो चम्मच दूध और आधा चम्मच चीनी का
प्रमाण याद रखती है 
गरम ठंढा पानी मिला कर बना लेती है दूध 
दूध पिलाते बच्चे को गोद से चिपका
ये देख लेती है बाहर भागते से पेड़ 
इनकी आँखों के कोर भींग जाते हैं
फिर सूख भी जाते है झट से 

ये सजग सी झटक देती है
डोलची पर चढ़ा कीड़ा 
भगाती है भिनभिनाती मक्खी
मंडराता मछ्छर 
तुम्हारी उस नींद वाली मुस्कान के लिए 
ये खड़ी रहती है एक पैर पर 

तुम्हारी आँख झपकते ही
ये धो आती आती है हाथ मुंह 
मांज आती है दांत
खंघाल आती है दूध की बोतल 
निपटा आती है अपने दैनिक कार्य 
इन जरा से क्षणों में
ये अपनी आँख और अपना आँचल
तुम्हारे पास ही छोड़ आती हैं 

ये अँधेरे बैग में अपना जादुई हाथ डाल 
निकाल लेती है दवाई की पुडिया तुम्हारा झुनझुना 
पति के जरुरी कागज़ यात्रा की टिकिट 
जिसमे इनका नाम सबसे नीचे दर्ज है 

अँधेरी रात में जब निश्चिन्त सो रहे हो तुम 
इनकी गोद का बच्चा
मुस्काता सा चूस रहा है अपना अंगूठा 
ये आँख फाड़ कर
बाहर के अँधेरे को टटोलती हैं 
जरा सी हथेली बाहर कर
बारिश को पकड़ती है 
भागते पेड़ों पर टंगे
अपने सपनों को झूल जाता देखती हैं 
ये चिहुकती हैं बडबडाती है
अपने खुले बालों को कस कर बांधती है 
तेज भाग रही गाडी की बर्थ नम्बर ५३ की औरत 

सारी रात सुखाती है बच्चे की लंगोट
नैपकिन खिडकियों पर बाँध बाँध कर 
भागते रहते हैं हरे पेड़
लटक कर झूल गए सपनों की चीख
बची रह जाती है आँखों में 
भींगते आंचल का कोर
सूख कर भी नही सूखता 
और तुम कहते हो की कमाल की औरतें हैं 
ना सोती है ना सोने देती हैं 

रात भर ना जाने क्या क्या खटपटाती हैं ............... 


चार .....

ये औरतें अपनी ख़राब तबियत को टालती हैं
जितना हो सकता है परशानियाँ पालती हैं
फिर झल्लाकर उसे महीन चलनी से छानती हैं
छन जाती है उतने से ही काम निपटाती हैं
कुछ स्थूल चीजों पर नही जाता इनका ध्यान

जैसे उनका मन उनके सपने
अपनी बातें दुःख दर्द
ये उसे घर के कूड़ा कचरे के साथ
बाहर वाले घूरे पर डाल आती हैं

ये कम ही बची रहती हैं
पर काम पूरे करती हैं
औरतें अपने जीवन के सबसे सुन्दर समय में
उठाती है घर की जिम्मेवारी
जनती है बच्चे करती हैं परवरिश
ये बीत गये उम्र की औरतें
रीत जाती हैं घर की घर में

इनकी आँखों के इर्द गिर्द धूप जमा होती हैं
पर ये देखने लगती है पहले से कम

ये नही भूलती अपनी पहली कविता की डायरी
४०० की बाधा दौड़ की ट्रोफी
ये नही भूलती अपनी गुडिया अपना खेल
अपने बच्चो के साथ
अपने बचपन को दुहराती है
अपने गुड़ियाँ की हंसी देख
अपने आप को बिसर जाती है

आग हवा पानी मिटटी से बनी औरते
जितना बचती हैं उतने से ही रचती है इतिहास

अपने बॉस के फिरंगी रंग
औरतों के सामने शर्मिंदा होते हो तुम-
कि मैं बस हॉउस वाइफ हूँ !
उस वक्त मैं चीख कर बताना चाहती हूँ -
कि तुम सब की संतुष्ट डकार के लिए
रसोई में कितना मिटी हूँ मैं
एक पैर पर खड़ी जुटाती रही छप्पन रंग
कि तुम्हारी तरक्की के सपनों को मिले नया आकाश !

दर्द की पट्टियाँ बदलती औरतें
घूमती धरती पर जम कर खड़ी है
तुम्हारी दीवारों में घुली है गारे मिटटी की तरह
तुम्हारे बिस्तर पर तुम्हारी चाह बनकर

और तुम कहते हो कमाल की औरते है
दिन भर घर में पड़ी रहती है..
खाती है मोटाती हैं
शाम को बेहोश पसर जाती हैं
ना कहीं आती हैं ना जाती हैं ............. |


पांच ....


ये औरतें
ससुराल आते ही दर्ज हो जाती हैं
राशन कार्ड पर मुस्कराती सी
अब घर में ज्यादा शक्कर आता है
महीने में कुछ ज्यादा गेहूं
इनके जने बच्चों के भी नाम
दर्ज होते हैं फटाफट
ये कार्ड में संख्या बढाती है।

और अपने ही नाम पर मिले मिटटी तेल
से एकदम अचानक ही भभक कर जल जाती हैं
इनके बाल झुलसे आँखे खुली 
देह राख हो जाती हैं
रसोई में बिखरी होती है 
इनके हिस्से की चीनी
जो गर्म नदी में तब्दील हो जाती है
इनकी चूड़ियाँ चुप हो जाती हैं

बस राशन कार्ड पर एक और बार ये एक 
नये नाम से दर्ज हो जाती हैं
ये कमाल की औरते फिर एक बार
अपने नाम पर मिटटी का तेल लाती है ......|



परिचय और संपर्क

शैलजा पाठक
       
बनारस से पढाई-लिखाई
मुंबई में रहनवारी
कई पत्र-पत्रिकाओं और ब्लागों में कवितायें प्रकाशित ....

ग़ालिब-ए-ख़स्ता के बगैर ..... अशोक आज़मी

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                                अशोक आज़मी


सिताब दियारा ब्लॉग पर धारावाहिक के रूप में छपने वाला यह दूसरा संस्मरण है | इसके पहले विमल चन्द्र पाण्डेय के चर्चित संस्मरण ‘ई ईलाहाबाद है भईया’ को आप लोग इस ब्लॉग पर पढ़ चुके हैं | हमारे लिए यह अत्यंत सुखद है कि कई दिनों/सप्ताहों की झिझक के बाद युवा कवि/आलोचक अशोक आजमीने जब अपनी स्मृतियों को दर्ज करने का फैसला किया, तो इसके लिए उन्होंने ‘सिताब दियारा’ ब्लॉग को चुना | हालाकि अभी वे इस बात पर जोर दे रहे हैं कि इसे अनियतकालीन ही रहने दिया जाए | और इसके लिए अपनी लम्बी-चौड़ी व्यस्तताओं का हवाला भी दे रहे हैं | फिर भी हमारी दिली ख्वाहिश है कि हम सब प्रत्येक रविवार को इसे ‘सिताब दियारा’ ब्लॉग पर पढ़ें | मुझे उम्मीद है कि पाठकों की तरफ से आने वाली प्रतिक्रियाएं उन्हें इसे आगे लिखने के लिए प्रेरित करेंगी |

               
            तो आईये पढ़ते हैं युवा कवि/आलोचक अशोक आज़मी के संस्मरण 
                                           
                            ग़ालिब-ए-ख़स्ता के बगैर...
                                              
                                की पहली क़िस्त  

स्मृतियों के बारे में जब भी कुछ दर्ज़ करने की इच्छा होती है तो कोई चार साल पहले ग्वालियर के पास के अपने जन्मस्थान से लौटे वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना का उदास चेहरा याद आता है. उन्होंने कहा था, “जहाँ की स्मृतियाँ बहुत सुखद हों, वहाँ लौटकर नहीं जाना चाहिए...स्मृतियाँ नष्ट हो जाती हैं. फिर शुरू करें तो कहाँ से करें? सारी स्मृतियाँ अर्जित नहीं होतीं. माँ और पापा ने जितना कुछ बताया है बचपन के बारे में वह सब याद्दाश्त के सहारे दर्ज है मष्तिष्क में... जो जन्म के पहले से शुरू हो जाता है. लगता है जाड़े की वह अँधेरी रात और हसन हुसैन की याद में सीना पीटते मातमी लोगों के साथ मुंह में रुई के फाहे से दूध पिलाती छोटी बुआ का चित्र वैसे के वैसे अंकित है. आधी रात को जाकर भजन मंडली बुक कराते बाबा की हुलस और सारे शरीर पर निकले दानों के साथ इस हास्पीटल से उस हास्पीटल घूमते माँ पापा मेरी इस याद्दास्त में शामिल हैं. रायपुर का वह खपरैल का छत और उसमें इकलौते टेबल फैन पर तौलिया निचोड़ कर रखता वह बालक और पड़ोस के साइकल मैकेनिक की बेटी शब्बो जैसे इस ब्लैक एंड व्हाईट एल्बम में सबसे बीच के पन्ने पर सजे हुए हैं और ऐसे ही कितने सारे चित्र जिन्हें माँ पापा की बातों ने गढा है.

फिर यह ख्याल कि आखिर ऐसा क्या अलग है इस ज़िन्दगी में कि किसी की दिलचस्पी हो? चालीस की उम्र का खिचड़ी बालों और उभरते खल्वाट वाला दागों से भरे काले चेहरे और बेडौल शरीर वाला यह कलमघसीट आख़िर क्योंकर किसी की दिलचस्पी का बायस हो? वह भी तब जब इस चालीस साल का हासिल महज कुछ काले सफ़ेद पन्ने और ढेर सारी नाकामियाँ हों? बारह साल कविता लिखने के बाद जिसके पास एक अदद पुरस्कार तक न हो और जिसे साल में भूले भटके कोई दो एक बार कविता पढने बुलाता हो उसे खुद को कवि कहने का हक़ भी पता नहीं है या नहीं? ऊपर से एक ऐसी विचारधारा का झंडा उठाने का दुस्साहस जिसका फैशन अब बीत चुका हो, वह भी किसी संगठित गिरोह के प्रमाणपत्र के बिना! या फिर यह होना ही अलग होना है? अगर सिर्फ इतना ही अलग होना है तो ऐसे अलगकी ऐसी की तैसी कर देनी चाहिए न? तो फिर यह लिखना यह ऐसी की तैसीकरना ही हो तो एक वजह बनती है शायद. लेकिन अपनी ऐसी तैसी कर पाना आसान है क्या? फिर आसान काम करने में मज़ा भी क्या है? तो लब्बोलुआब यह कि बस लिखने का मन है...खुद से बतियाने का मन है. जहाँ तक मुमकिन हो. काम मुश्किल और आसान दोनों इसलिए है कि न कभी डायरी लिखी न कोई नोट्स लिए. तो जो स्मृति में अपने आप रह जाए बस वही था याद रखने लायक. जो भूल गया वह शायद भूल जाने लायक था. आखिर खाना खाना भूला जा सकता है, सांस लेना थोड़े न भूला जा सकता है!

मूर्त स्मृतियों की सबसे पुरानी कड़ी स्कूल की ही है. यह भी एकदम साफ़ नहीं है. पुराने ब्लैक एंड फोटो को जैसे किसी ने अनजाने में गोंद लगा के चिपका दिया हो और फिर उसमें उभर आये धब्बों के बीच से कुछ कुछ पहचानने की कोशिश कर रहा हो. देवरिया...जहां पापा इकलौते साइंस कालेज में भौतिक विज्ञान पढ़ाते थे. पारस नाथ श्रीवास्तव का बहुमंजिला मकान जिसका दूसरा हिस्सा उनके सबसे छोटे भाई का था और कुल मिलाके पंद्रह से अधिक किरायेदार उन दोनों हिस्सों में रहते थे. पारस लाल जी पटवारी से प्रमोट होके कानूनगो हो चुके थे. उम्र इतनी थी कि हम उन्हें बाबा कहते थे. उनके दोनों पुत्र हुए चाचा और चारो पुत्रियाँ बुआ. अगल बगल ऐसे चाचाओं और बुआओं की भीड़ थी. इन मकानों से किरायेदार तभी निकलते थे जब उनके अपने मकान बन जाते. विश्वास अभी बाकी था तो न कोई लिखा पढ़ी होती न कोई डील या बिचौलिया. बस लोग रहने लगते और फिर उसके रहवासी बन जाते. हम पहली मंजिल पर रहते थे. पापा के गुरूजी होने की अलग इज्जत थी. तीन कमरे थे एक चौका एक बड़ा सा आँगन जिसके बीचोबीच खटिया का नेट बनाकर हम बैडमिन्टन खेलते थे..हम यानी मैं और पापा. छोटा भाई बहुत छोटा था. छत से चिड़िया टकराए तो फाउल होता था. पापा की सारी दुनिया घर से थी. सुबह अखबार पढके नहाने जाते और फिर नाश्ता करके कालेज. शाम को क्लास छूटते ही साइकिल सीधे घर पर आके रूकती. न पान की कोई गुमटी, न चाट का कोई अड्डा.

यह सब मुझे करना था पर उसमें अभी वक़्त था. अभी तो सरस्वती शिशु मंदिर का टिन से बना गुमटी वाला रिक्शा था जिसमें बैठ के रोज़ आना जाना था. अभी उसमें बैठे बच्चों का मुझे अशोक मसाले कह कर चिढ़ाना था और मेरा उनसे लड़ना. अभी तो विश्राम जी थे, सुदर्शन जी थे, रामाश्रय जी थे...और तमाम आचार्य जी लोगों की उपस्थिति में रोज़ सरस्वती वंदना से भोजन मन्त्र, शान्ति मन्त्र और प्रेरक प्रसंगों के बाद वन्दे मातरम गा के लौटना था. जी. वन्दे मातरम...जनगण मन नहीं. देश में सरकारी शिक्षा का भगवाकरण भले अब हो रहा हो लेकिन इन शिशु मंदिरों के ज़रिये गैर सरकारी स्तर पर यह बरसों से ज़ारी है. संघ के प्रचारक ही इसमें शिक्षक होते हैं. इतिहास से लेकर हिंदी तक की किताबें भगवा रंग में रंगी होती हैं और साथ में प्रेरक प्रसंगों से लेकर सुभाषित और प्रातः स्मरण बचपन से एक साम्प्रदायिक मानस का निर्माण करते हैं. इतिहास गा रहा है में जो इतिहास है वह इन दिनों टी वी सीरियल्स में दिखाए जा रहे इतिहास से बहुत अलग नहीं होता. यहाँ गोलवलकर और हेडगेवार पूज्य होते हैं तो ज़ाहिर है उनकी शिक्षाएँ गीता के श्लोकों सी होती हैं. शहर का वणिक समुदाय जो कभी इनका सबसे बड़ा फाइनेंसर होता था, अब जो अपने स्कूल खोल रहा है उनमें भी संस्कृति के नाम पर यही सब परोसा जाता है. उस दौर में छोटे शहरों का सवर्ण मध्यवर्ग अपने बच्चों को कान्वेंट के सांस्कृतिक प्रदूषण से बचाने सरकारी स्कूलों की जगह इन स्कूलों में भेज रहा था. वही बच्चे आज बड़े होकर संघ और भाजपा के समर्थन वाले मध्यवर्ग में तब्दील हुए हैं.

खैर डायलेक्टिक्स भी एक चीज़ होती है! हमने उस स्कूल में सीखा भाषण देना. जिस दिन हमारी कक्षा को प्रेरक प्रसंग कहना होता उस दिन अक्सर कोई किस्सा गढ़ लेते. आखिर जो सुनाये जाते थे वे भी तो गढ़े ही हुए थे न. एक और चीज़ सीखी. नेतागिरी. शिशु मंदिर में छात्र कार्यकारिणी का अध्यक्ष बना तो विद्या मंदिर (मिडिल स्कूल) में भी शायद विज्ञान मंत्री था. शुद्ध हिंदी में ओजस्वी भाषण देता था और पढने में भी ठीकठाक था. भाषण देने की यह कला बाद में भी और अब भी बहुत काम आती है. स्कूल के कुछ किस्से और...लेकिन अगली किस्त में.


                                    ...........जारी है

परिचय और संपर्क

अशोक आज़मी  ...(अशोक कुमार पाण्डेय)

वाम जन-आन्दोलनों से गहरा जुड़ाव
युवा कवि, आलोचक, ब्लॉगर और प्रकाशक
आजकल दिल्ली में रहनवारी


           

ग़ालिब-ए-ख़स्ता के बगैर - दूसरी क़िस्त - 'अशोक आज़मी'

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संस्मरण की पहली क़िस्त में हमने ‘अशोक आजमी’की उहापोह भरी हिचकिचाहटो को देखा था, जिसमें वे इसे ‘लिखने और न लिखने’ के बीच झूल रहे थे | और फिर यह सोचकर उन्होंने लिखने का फैसला किया था कि इसे ‘खुद से बातचीत’ करने के तौर पर और ‘जिंदगी को एक बार फिर से जीने’ के तौर पर दर्ज किया जाना चाहिए | पहली क़िस्त में वे शुरूआती दिनों की कही-सुनी स्मृतियों से होते हुए आगे बढे थे | आज इस दूसरी क़िस्त में वे अपने प्राथमिक कक्षाओं के दिनों को याद कर रहे हैं |
          
         
         आईये पढ़ते हैं अशोक आज़मी के संस्मरण                       
               

               “ग़ालिब-ए-ख़स्ता के बगैर”की दूसरी क़िस्त   


                   “अचार जी अचार नहीं खाते”


स्कूल बड़ी मजेदार चीज़ होती है. मेरे लिए तो और मजेदार रही. पहला क़िस्सा एडमिशन का ही है. पापा ने शोध रायपुर से किया. रविशंकर विश्वविद्यालय में उनके सहपाठी और मित्र थे. उनके निर्देशन में शोध करते हुए तीन साल से अधिक समय रायपुर में ही गुज़ारा. वहां हम यूनिवर्सिटी के पास ही किसी ऐसी चाल में रहते थे जहाँ एक बड़े सेठ ने अपने मकान के पीछे के कम्पाउंड में कई घर बना रखे थे. सबके छत खपरैल के थे. हमारे ठीक पड़ोस में एक रिक्शा मैकेनिक रहते थे. उनकी बेटी शब्बो मेरी हमउम्र थी और जब तक वहाँ रहे वह मुझे राखी बांधती रही. पापा के पास उन दिनों कैमरा था और उसके साथ की कई ब्लैक एंड व्हाईट तस्वीरें अब भी हमारे पास हैं. वहीँ किसी स्कूल में हम पढने जाते थे. देवरिया लौटे तो हमारे मकान मालिक का ही स्कूल था “लाल बहादुर शास्त्री शिशु मंदिर.” एक साल तो वहीँ पढ़े. बड़े मजे थे. प्रिंसिपल कनक मौसी थीं तो टीचर बेबी बुआ. दोपहर में मम्मी एल्यूमिनियम के डब्बे में गर्म पराठे सब्जी पहुँचाती. मतलब घर का स्कूल. फिर अगले साल पापा तीसरी कक्षा में एडमिशन के लिए सरस्वती शिशु मंदिर ले कर गए. वहाँ टेस्ट लिया गया. रिजल्ट यह कि तीसरी की जगह चौथी में एडमिशन मिला और हम चतुर्थ क के विद्यार्थी हुए.


पढ़ाई में मैं औसत था और इसका श्रेय मुझे एकदम नहीं जाता है. मैंने हमेशा ख़राब विद्यार्थी होने की कोशिशें कीं. लेकिन शिक्षक पिता, अपना सारा प्रेम भूल पढ़ाई के लिए सख्त हो जाने वाले बाबा और पुत्रहीन नाना के रहते ख़राब विद्यार्थी होना मेरे बूते के बाहर की बात थी. यह डेमोक्रेसी और चाइल्ड राईट सब बाद की बातें हैं. हम तो पापा के शानदार बैक हैण्ड के बाद गालों पर उभरी पांच अँगुलियों के छाप वाले ज़माने के हैं. पापा पढ़ते समय सामने की कुर्सी पर बैठते और ग़लती होने पर उनका टेबल टेनिस का अभ्यस्त हाथ उसी चपलता से चलता. बाबा मारते नहीं थे लेकिन कम नंबर आने पर उनकी इकलौती कहानी पहले पैरा से शुरू होती और भयंकर ग़रीबी में पढ़कर टाप करने वाले उनके बेटों का पूरा क़िस्सा ग़ालिब-ओ-फ़िराक के शेरों और पुरबिहा सुभाषितों के साथ इतनी बार सुना कि अब तक कंठस्थ है. नाना के पास गीताप्रेस और उपनिषदों-पुराणों के अतिरिक्त डोज़ थे तो क़िस्सा कोताह यह कि ठीक ठाक विद्यार्थी होने के अलावा उस नन्हीं जान के पास कोई और विकल्प नहीं था.


पहले दोस्त शिशु मंदिर में ही बने. वहां का समाज शास्त्र बहुत साफ़ था.  कस्बानुमा शहर के परम्परावादी मध्य वर्ग और निम्नमध्यवर्ग के बच्चे और सेठ-साहूकारों के बच्चे. बाक़ी जो ज़्यादा फीस दे सकते थे या जिन्होंने दुनिया देखी थी उनके बच्चे कान्वेंट में पढ़ते थे. उनका लहजा थोड़ा अलग होता. जैसे हम वनली बोलते थे तो वे ओनली. तो हम उन्हें “बन बन के बोलने वाले” कहते थे. सेठ साहूकारों के बच्चे वैसे तो पढ़ाई के मामले में अक्सर बैक बेंचर ही होते थे लेकिन बाक़ी चीजों में सम्मान उन्हें अधिक ही मिलता था. हमारे प्रधानाचार्य थे शंकर जी मिश्र. ज़्यादातर आचार्य जी लोग पंडित या ठाकुर साहब ही थे. कुछ बहन जी भी थीं. आचार्य लोग सफ़ेद धोती कुर्ता पहनते थे और बहन जी लोग नीली एकरंगी साड़ी. शंकर जी हमेशा बीमार रहते थे. कोलाइटिस था शायद. स्कूल के अलावा मिलने की जगह थी शाखा. आचार्य जी लोग सुबह सबेरे खाकी कच्छा और सफ़ेद शर्ट पहनकर शाखा लगवाते. भगवा झंडा लगता और हिटलर वाले अभिवादन की मुद्रा में गाया जाता – नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमि. तो हम भी उत्साह में दो तीन दिन शाखा में गए. चौथा दिन रहा होगा, पापा ग्राउंड पर पहुँचे और पहले तो कान पकड़ के हमें एक किनारे किया फिर आचार्य जी को जो डांट लगाईं तो आचार्य जी आचार्य मुद्रा से सीधे विद्यार्थी मुद्रा में आकर जी सर जी सर करने लगे. वह पापा के विद्यार्थी रहे थे. बुरा तो लगा लेकिन कालेज के शिक्षक होने का वह रौब दिमाग में ऐसा दर्ज़ हुआ कि तय कर लिया बड़ा होके कालेज का टीचर ही बनना है. खैर इस तरह हमारा मन एक और बार मारा गया और हमारा शाखा में जाने का कार्यक्रम हमेशा हमेशा के लिए ख़त्म हो गया. लेकिन नज़र तो हम पर पड़ ही चुकी थी आचार्य जी की.


स्कूल में साम्प्रदायिक मानस बनाने का काम संघ बहुत होशियारी से करता है. ऐसा नहीं है कि सीधे सीधे दंगा भड़काने की भाषा बोली जाय. बहुत आहिस्ता आहिस्ता आपके मन में यह भर दिया जाता है कि हिन्दुस्तान हिन्दुओं का देश है, मुसलमान सिर्फ आक्रमणकारी थे और उन्होंने हमारे धर्म पर हमला किया, हमें ग़ुलाम बनाया जिसके ख़िलाफ़ वीरों ने अपने प्राणों की आहुति दी. जो प्रेरक प्रसंग सुनाये जायेंगे उनका सन्देश अक्सर यही होगा कि किस तरह आक्रमणकारी मुसलमानों ने हमारी माँ-बहनों के साथ उत्पात करने की कोशिश की और किसी वीर ने उसका प्रतिकार किया. अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई में सभी हिन्दू योद्धाओं को उनके विचारों से अलग कर सिर्फ मातृभूमि और धर्म के लिए लड़ने वाले वीरों में तब्दील कर दिया जाता है. गुरुओं की महानता को लेकर जिस तरह से बताया जाता है वह बच्चों के पूरे मनोविज्ञान पर असर डालता है. मैं याद करूँ तो दो चीज़ें मेरे साथ हुईं, पहला अपने ब्राह्मण होने को लेकर एक अभिमान और दूसरा अपने काले रंग का होने को लेकर हीनभावना का जन्म. ज़ाहिर तौर पर इन दोनों के लिए सिर्फ स्कूल जिम्मेदार नहीं था. देवरिया जैसे ब्राह्मण बाहुल्य वाले शहर में एक शिक्षक का बेटा होना और पिपरपांती जैसे गाँव में ननिहाल का होना, घर बाहर हर जगह ब्राह्मण ही ब्राह्मण थे. मुझे नहीं याद आता कि हमारे घर आने जाने वालों में कोई मुसलमान या दलित परिवार था. स्कूल भी ऐसा जहाँ मुसलमानों के बच्चे नहीं पढ़ते थे. जिस मोहल्ले में था वहाँ श्रीवास्तव लोगों का बहुमत था. पापा के कालेज में जो विभाग पंडितों और ठाकुरों में बंटे हुए थे. दलित पिछड़े हमारे जीवन में घर में काम करने वाली बाई, हमारे कपडे सिलने वाले टेलर मास्टर, हमारे जूतों की मरम्मत करने वाले, हमारे घरों में रंगाई करने वाले जैसी भूमिकाओं में ही थे. तो वह मानस बनाने के लिए एक तरफ  स्कूल में वैचारिक ट्रेनिंग थी तो दूसरी तरफ समाज में हमारी अवस्थिति. रंग को लेकर कई चीजें थीं जिन पर आगे बात करूँगा. अभी इतना ही कि हमारा वह शिशु मंदिर ‘को-एड’ वाला था.  (यहाँ एक स्माइली देखी जाय)


आजकल स्कूली बच्चों के प्रेम आदि पर बहुत चिंता की जा रही है. मैं आपको कोई तीस साल पहले के दौर में ले जा रहा हूँ. शिशु मंदिर में वार्षिक आयोजन के लिए एक नाटक होना था. कृष्ण के जीवन पर. राधा बनीं हमारे पंचम ख की एक लड़की. कृष्ण बनने के लिए दो लड़कों में लड़ाई हो गयी. और इस क़दर हुई कि नाटक कैंसिल करना पड़ा. उसी सांस्कृतिक कार्यक्रम में एक और नाटक था. शायद खुदीराम बोस पर. मुझे उसमें वकील की भूमिका मिली. कारण अलग थे, पर नाटक वह भी नहीं हुआ. हाँ, अध्यक्ष होने के नाते भाषण देने का मौक़ा ज़रूर मिला. शिशु मंदिर सांस्कृतिक आयोजनों और भाषण वगैरह को लेकर शुरू से बहुत सक्रिय थे. सांस्कृतिक आयोजनों के सहारे विचारधारा का जो प्रसार वे बच्चों के बीच करते हैं, उसका आजीवन प्रभाव रहता है. मैं कम्युनिस्ट नहीं हुआ होता तो पक्का संघ का बड़ा प्रवक्ता होता.


एक और चीज़ जो उनसे सीखनी चाहिए वह थी उनकी नेट्वर्किंग. उनके लिए एक बच्चा एक परिवार तक पहुँचने का साधन होता है. आचार्य जी लोग कभी भी आपके घर आ सकते थे. बहाना बच्चों की पढ़ाई से लेकर किसी आयोजन के लिए चंदा मांगने तक कुछ भी हो सकता था. घरों पर आचार्य जी लोगों का शानदार स्वागत होता था. कभी बाहर से कोई अतिथि, अक्सर संघ के प्रचारक, आते तो उन्हें चुनिन्दा परिवारों के भोजन करने ले जाया जाता. वे घर आते, अभिभावकों से बतियाते और खाना खा के जाते. इतना समय प्रभावित करने के लिए काफी था. मेरे घर भी अक्सर आना जाना लगा रहता. ऐसे ही एक दिन शंकर जी एक संघ प्रचारक के साथ भोजन के लिए आये हुए थे, खाना लग रहा था. छोटा भाई अचार की प्लेट लेकर गया तो कोलाइटिस के मरीज़ शंकर जी ने अचार के लिए मना कर दिया. वह वहीँ से चिल्लाता हुआ भागा, मम्मी, अचार जी अचार नहीं खाते. पूरा घर ठहाकों से भर गया. इस नन्हे बच्चे को आगे चलकर शिशु मंदिर के सबसे प्रतिभावान विद्यार्थियों में शामिल होना था. 


लेकिन इन सब कोशिशों का हम बच्चों पर इतना प्रभाव भी नहीं पड़ता था. हममें से अधिकाँश अपनी पढ़ाई लिखाई के अलावा फ़िल्मी गानों और बदलती दुनिया के नए रिवाजों के साथ बड़े हो रहे थे. उस जातिवादी और धार्मिक मानस के बावजूद हममें से अधिकाँश दूसरे सामान्य बच्चों से ही थे. हम प्रेम करते थे, मिथुन की नक़ल में डिस्को डांस करते थे और मानव देह के गोपन रहस्यों के बारे में फुस्फुसा के बात करते थे. छठीं में विद्यामंदिर पहुंचें तो ‘को-एड’ ख़त्म हुआ. हमारी प्रेमिकाएं, जिन्हें निश्चित रूप से हमारे प्रेम के बारे में कुछ नहीं पता था, कस्तूरबा गर्ल्स कालेज या मारवाड़ी गर्ल्स कालेज में गयीं और हमें देखकर शर्माने लगीं. उनके लिए आगे संघ का स्कूल नहीं था. उन्हें इन गर्ल्स स्कूलों में अच्छी महिलायें बनने के गुर सीखने थे. शिशु मंदिर के जिस इकलौते जोड़े, पारिजात और दिवा ने बाद में प्रेम विवाह किया उनके प्रेम के बारे में तब तक तो हमें कुछ पता न था, बल्कि पारिजात तो कृष्ण की जिस भूमिका के लिए लड़ा उस नाटक में राधा कोई और थी.  मैं इन सब के बीच उन दिनों अजीब कशमकश में रहता. कवितायें लिखना शुरू हो गया था. कापी के पिछले पन्नों पर छंद में गीत लिखा करता. देशभक्ति गीत या फिर प्रेम गीत. विरह से भरे प्रेम गीत. बहुत बाद में जब लम्बी कहानी लिखी तो स्कूल से ही कवितायें लिखने वाले अफज़ल से उन्हीं कापियों के पिछले पन्नों पर जो कविता लिखवाई वह उसी दौर की स्मृति में बची एक कविता है.


जिसे आजकल टीनेजर कहते हैं, उसकी बहुत बुरी स्मृतियाँ हैं मेरे खाते में ...   वह आगे ...|

                                                  जारी है ........

परिचय और संपर्क

अशोक आज़मी .... (अशोक कुमार पाण्डेय)

वाम जन-आन्दोलनों से गहरा जुड़ाव
युवा कवि, आलोचक, ब्लॉगर और प्रकाशक
दिल्ली में रहनवारी 

   

 


"ग़ालिब-ए-ख़स्ता के बगैर" --- तीसरी क़िस्त ---- 'अशोक आज़मी'

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                                  अशोक आज़मी



पिछली किस्तों में ‘अशोक आज़मी’अपने बचपन के दिनों को याद कर रहे हैं | उन दिनों को, जिसमें किसी भी मनुष्य के बनने की प्रक्रिया आरम्भ होती है | वे ‘संघ’ संचालित शिशु मंदिर के उस माहौल में शिक्षा ग्रहण कर होते हैं, जहाँ ‘कट्टरता’ कुलांचे मार रही होती है | आज इस तीसरी क़िस्त में वे 1984 के सिख-विरोधी दंगों के पागलपन को याद कर रहे हैं, जिसमें बहुसंख्यक समाज ‘विवेक-च्युत’ होता हुआ दिखाई देता है | और जो चाहता है कि किसी एक व्यक्ति के गुनाह की सजा सारे समुदाय पर थोप दी जाए | ......



     तो आईये पढ़ते हैं सिताब दियारा ब्लॉग अशोक आज़मी के संस्मरण                       
               

            “ग़ालिब-ए-ख़स्ता के बगैर”की तीसरी क़िस्त
           
             

           देवियों के कोप अक्सर बेक़सूर मासूमों पर होते हैं




हम पांचवीं में पढ़ते थे जब सन चौरासी आया. उस दिन छुट्टी थी शायद. वजह जो भी पर स्कूल नहीं गया था मैं. लाल बहादुर शास्त्री शिशु मंदिर के मैदान में क्रिकेट जमा हुआ था. उसके पीछे ही हमारे मकान मालिक के भतीजे विनोद चाचा की फैक्ट्री थी जिसमें लोहे के चैनल, गेट वगैरह बनते थे. विनोद चाचा मजेदार कैरेक्टर थे. उनके पापा चकबंदी अधिकारी थे और भ्रष्टाचार तब तक गर्व करने लायक़ चीज़ बन चुका था. चार लड़कों और चार लड़कियों का भरापूरा परिवार उस आठ दस कमरों के आलीशान मकान में जिस शान से रहता था उस शान से तो आई एस एस अधिकारी की तनख्वाह में भी नहीं रहा जा सकता. विनोद चाचा सबसे बड़े थे और सबसे छोटा सुबोध हमसे एक क्लास पीछे था. कोई साढ़े पांच फुट के विनोद चाचा का वज़न कम से कम सौ किलो रहा होगा. समोसे के ठेले पर खड़े होते तो बीस से कम नहीं खाते, अंडे वाला रोज़ दर्ज़न भर उबले अंडे काट और तल के पेश करता. कभी गुपचुप पर कृपा होती तो हाफ सेंचुरी लगाए बिना पिच से नहीं टलते. और किसी की छोड़िये थोड़े दिनों बाद जब उनके बच्चे चन्दन और कुंदन बड़े हुए तो हम सब देख कर आनंद लेते कि विनोद चाचा समोसों पर भिड़े हुए हैं और बच्चे उनकी टांगों से उलझे एक समोसे की मांग के साथ ठुनक रहे हैं . अंत उनका दुखद रहा. चालीस पार करते न करते देह रोग का घर बन गयी और बीमारी के चंद सालों बाद वह चल बसे. बड़े बच्चों को अक्सर माँ बाप की सख्ती बर्बाद करती है और मुहब्बत भी.

खैर, उस दिन अचानक रेडियो हाथ में लिए लिए विनोद चाचा फैक्ट्री से बाहर आये और लगभग रुंधे हुए गले से कहा, “इंदिरा गांधी के मार दिहलें कुल.” बाल हाथ में लिए लिए दीपू भैया ने पूछा, “मरि गइलीं?” सब के सब स्तब्ध, दुखी और शिशु मंदिर की शिक्षा का असर देखिये कि मेरे मुंह से बेसाख्ता निकला, “नीक भईल.” मेरा यह कहना था कि बच्चों की वह पूरी टोली, विनोद चाचा और उनकी फैक्ट्री के कामगारों की भृकुटियाँ तन गयीं. पिटने का पूरा चांस था लेकिन छत पर से पापा बुलाने आये और मैं घर भागा. घर पर जैसे मुर्दानगी छायी हुई थी. रेडियो लगातार बज रहा था और माँ-पापा भरी आँखों से उसे घेरे बैठे थे. मैं समझ नहीं पा रहा था कि कल तक इंदिरा गांधी की इतनी आलोचना करने वाले पापा इतने दुखी क्यों हैं?  वक़्त बीतने के साथ शहर और बाहर से ख़बरें आनी शुरू हो गयीं. दुकानें लुटने की ख़बरों के साथ सरदारों की दुकानों से लूटा हुआ समान लाते पड़ोस के भैयाओं और चाचाओं को हमने देखा. पापा बेहद परेशान थे. तब फोन वगैरह था नहीं और उनके कालेज के जमाने के अजीज दोस्त हरदयाल सिंह होरा शहर के दूसरे छोर पर रहते थे. शाम होते होते वह निकल पड़े और होरा जी के घर पहुँचे. स्थानीय इंटर कालेज में भौतिकी के लेक्चरार होरा जी को उनके पड़ोसियों से घेरा हुआ था. किसी बाहरी की हिम्मत नहीं हुई उनका बाल भी बांका करने की. लेकिन यह क़िस्मत शहर में फैली उनके रिश्तेदारों की दुकानों की नहीं थी. वे लूट ली गयीं. जला दी गयीं. दहशत का वह पहला दौर था जो हमने इतने क़रीब से देखा था. बहुत बाद में गोधरा के बाद हुए दंगों के दौर में गुजरात में रहते हुए इस दहशत को और नंगे रूप में देखा. स्कूल कई दिनों तक बंद रहा. एशियाड देखने के लिए आई टीवी पर हमने इंदिरा जी का शवदाह देखा, भीगी आखों वाले राजीव को देखा और बड़े पेड़ गिरने पर धमक होने वाले उनके अमानवीय बयान को सुना. अमानवीय यह अब लगता है, तब तो रातोरात वह हम सबके प्रिय बन गए. इस क़दर कि जब चुनाव में उनके साथ अमिताभ बच्चन के आने की ख़बर सुनी तो पैदल मैदान तक पहुंचे और अमिताभ के न आने पर भी उनका पूरा भाषण सुने बगैर नहीं लौटे.

दंगो का असर टी वी के बाहर बाद में दिखा. हमारी क्लास में पढने वाले गुरुमीत सिंह नाम के दो लड़कों में से एक की पढ़ाई छूट गयी थी. सब्जी मंडी के पिछले मुहाने पर जहाँ कभी उसकी पक्की दुकान थी अब एक ठेला था जिस पर वह और उसके पिता लालटेन वगैरह का रिपेयर किया करते थे. सैंतालीस के दंगों के वक़्त बेघर होकर यहाँ वहाँ भटकते तमाम सिखों ने तीस पैंतीस सालों में जो कुछ खड़ा किया था वह सब एक पीढ़ी के भीतर गँवा चुके थे. जिस दुकान से पापा जूते खरीदते थे वह लुट चुकी थी, जिस दुकान से माँ रेडीमेड कपड़े खरीदतीं थीं वह लुट चुकी थी. जगह जगह मार पीट हुई थी. हाँ इतना संतोष कि कम से कम हमारे उस कस्बे में कोई बलात्कार नहीं हुआ था, कोई जान नहीं गयी थी. लेकिन देश के दीगर हिस्सों में क्या क्या नहीं हुआ! बेअंत सिंह और सतवंत सिंह के उस गुनाह का बदला देश भर के सिखों से लिया गया था और देश जैसे एक क़त्लगाह में बदल गया. सरकारी टीवी से कम लेकिन अखबारों से वे ख़बरें घर घर में पहुँच रही थी. हमारे शिशु मन प्रभावित होते ही थे, वह दौर कि जब आतंकवाद का नाम हमने पहली बार सुना था और उसका चेहरा किसी सिख के चेहरे जैसा लगता था. बाद में उसे एक मुस्लिम चेहरे में बदलते देखा. माँ देवरिया से ही पढ़ी थीं, उनकी स्मृति में तमाम सिख घरों के फर्श से अर्श पर जाने के किस्से थे. कैसे नंदा बहनजी ने कस्तूरबा में पढ़ाते हुए अविवाहित रहकर भाइयों को सेटल किया और अब उनकी इतनी दुकानें और इतने घर हैं, कैसे फलां सरदार जी ठेले पर अंडे बेचते बेचते इतना बड़ा बिजनेस खड़ा कर गए...और उस कौम ने अपना जीवट तब भी नहीं छोड़ा. एक बार फिर से सब खड़ा करने की कोशिश में लग गए. जली दुकानों की राख बुहारी और झोंक दिया फिर से खुद को और एक दशक के भीतर भीतर सब फिर से खड़ा भी हो गया लेकिन इस दिखाई देने वाले दृश्य के पीछे कितने गुरमीतों का बर्बाद बचपन था वह कोई नहीं देख पाता. देवरिया जाने पर गुरमीत से कई बार मुलाकात हुई, बातचीत हुई पर हमारे दरम्यान वह लम्हा पत्थर सा जम गया था. 

पाँचवी के बाद जब हम सरस्वती विद्या मंदिर पहुँचे. पहले न्यू कालोनी के किसी वक़ील साहब के घर में चलता था. दो किलोमीटर होगा वह और मैं पैदल ही जाया करता था. स्कूल के सामने दीनदयाल पार्क था जो स्वाभाविक रूप से हमारा प्ले ग्राउंड बना. इसके अलावा दो मकान छोड़ के एक प्लाट ख़ाली था तो वह भी खेल के मैदान की तरह उपयोग होता था. हमारा गणवेश बदल गया था और हम नीली गेलिस वाली हाफ पैंट की जगह खाकी हाफ पैंट और सफेद शर्ट पहनने लगे थे. ग्राउंड्स की यह उपलब्धता हमारे भीतर के क्रिकेटर को जगा दिया था. क्रिकेट अब रेडियो से निकल के सशरीर टीवी पर आ चुका था और धीरे धीरे एक दिवसीय क्रिकेट का जादू सब पर तारी हो रहा था. तिरासी का विश्वकप फाइनल हमने लाइव देखा था. उस रात माँ नानी के यहाँ गयी हुई थीं. ननिहाल मेरी बमुश्किलन दो किलोमीटर की दूरी पर थी और माँ अकसर साइत वाइत के बिना जाती आती रहती थीं. मौसा आये हुए थे फैज़ाबाद से और एक रिश्ते के मामा भी. पापा और मैंने भारत के जीतने की शर्त लगाई थी और उन दोनों लोगों ने वेस्ट इंडीज के जीतने की. नतीजतन उस राटा मैच ख़त्म होने पर खिचड़ी उन दोनों लोगों ने बनाई. कपिलदेव हम सबके हीरो थे. पापा कभी कालेज की टीम से क्रिकेट और टेबल टेनिस दोनों खेल चुके थे. आफ स्पिन डालना उन्होंने ही मुझे सिखाया था. लेकिन एक्सपेरिमेंट तो विद्या मंदिर के लंच में उन्हीं मैदानों में हुआ. प्लास्टिक की एक रुपये की बाल आती थी और बैट कोई भी हो सकता था, आधी टूटी टेबल से लेकर लकड़ी के किसी लम्बे टुकड़े तक. कभी कभी कोई असली वाले बैट का जुगाड़ कर देता तो समझिये उसका दर्ज़ा सुनील गवास्कर से कम नहीं होता. मुझे याद है उसी दौर में रवि शास्त्री दूरदर्शन पर एक कार्यक्रम में क्रिकेट सिखाया करते थे तो उनसे भी खूब सीखा. वैसे तो सब आल राउंडर हुआ करते थे तो हम भी, लेकिन मजा ओपनिंग बैटिंग और स्पिन बालिंग में आया करता था. स्कूल के अलावा मोहल्ले में भी क्रिकेट की बहार थी. स्कूल से लौटते ही बस्ता फेंककर सीधे मैदान में. भूप्पन भैया हुआ करते थे पूरे मोहल्ले के आदर्श.

भूप्पन भैया यानी भूपेन्द्र श्रीवास्तव. पिता किसी सरकारी महकमें में काम करते थे, शायद रेलवे में. उन दिनों वह लोग किराए पर रहते थे. भूप्पन भैया दरम्याना क़द के बेहद स्मार्ट युवक. देवरिया की टीम में खेलते थे. पहले प्लेयर जिन्हें हमने सच्ची में हेलमेट, पैड, एडी और ग्लब पहन के खेलते देखा था. ओपनिंग बैटिंग करते थे और उस ज़माने में स्कूटर से घूमते थे. अक्सर खेलने के लिए गोरखपुर, लखनऊ वगैरह जाया करते. फुर्सत में हमें बैटिंग सिखाते थे. बैट पकड़ना, क्रीज के पास खड़ा होना, एक कदम आगे बढ़ा के बल्ले पर पूरा बाडी वेट डालकर डिफेंड करना, स्क्वायर कट, स्टेट ड्राइव वगैरह, वगैरह. मैं शायद नौवीं में रहा होऊंगा. उस दिन दशहरा था. मोहल्ले की सबसे बड़ी जो झांकी सजी थी उसके कर्ता धर्ता भूप्पन भैया ही थे. दस बजे रात तक हम सब वहीँ थे. फिर सुबह उठे तो ख़बर आई. रात में भैया गोरखपुर गए थे. सुबह सुबह मोटर साइकल से लौटते हुए एक्सीडेंट हुआ और वह कोमा में चले गए. पूरे मोहल्ले में ख़बरें तैर रही थीं कि पूजा के चंदे से शराब पी थी उन्होंने और जब लौट रहे थे तो देवी का कोप हुआ. देवी का कोई कोप गुरमीत को जलाने वालों पर नहीं हुआ था. देवी का कोई कोप नहीं हुआ था पड़ोस की उस लड़की के ससुराल वालों पर जिन्होंने उसे जला के मार डाला था. हर बच्चे को समलैंगिक सम्बन्ध के लिए फांसने वाले दीपू भईया पर भी कोई कोप नहीं. बस भूप्पन भैया पर हुआ जो मोहल्ले के सभी बड़ों का पाँव छुआ करते थे, जो क्रिकेट के दीवाने थे, जिनका एक हफ्ते पहले उत्तर प्रदेश की टीम में चयन हुआ था...कई सालों तक वह बिस्तर पर रहे. उठे तो आधा अंग बेकार हो चुका था. हम जब अपने घर में शिफ्ट हुए तो उधर टहलते हुए आया करते थे. आधी देह से संघर्ष करते, एक एक वाक्य बोलने में हाँफते भूप्पन भैया. अपनी ज़िद में इस हालत में रोज़ दो किलोमीटर टहलते भूप्पन भैया. बहुत दिन हुए नहीं देखा उन्हें. किसी ने बताया कि काफी हद तक सामान्य हो चुके हैं अब. शादी वादी भी हो गयी शायद. कुछ करते ही होंगे, बस क्रिकेट नहीं खेलते होंगे भूप्पन भैया.

                                                                                                          
                              .........................................जारी है .....

परिचय और संपर्क

अशोक आज़मी .... (अशोक कुमार पाण्डेय)

वाम जन-आन्दोलनों से गहरा जुड़ाव
युवा कवि, आलोचक, ब्लॉगर और प्रकाशक
आजकल दिल्ली में रहनवारी    


  


सोनी पाण्डेय की कवितायें

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आज सिताब दियारा ब्लॉग पर डा.सोनी पाण्डेय की कविता आ रही हैं | बलिया से उनका जुड़ाव 

है, इसलिए उन्हें इस ब्लॉग पर देखते हुए थोड़ा और अच्छा लग रहा है | तो लीजिये प्रस्तुत है, 

उनके संक्षिप्त आत्मकथ्य के साथ, उनकी कविता श्रृंखला - 'तीसरी बेटी का हलफनामा' |

                          




वस्तुतः मेरा उद्देश्य कभी कवि बनना नहीँ रहा, जीवन धारा जिधर ले चली, बहती रही , किन्तु 

एक टीस अन्दर ही अन्दर बचपन से बेचैन करती रही .जहाँबेटे और बेटी के बीच घोर  

असमानता थी ।मेरे हलवाहे, चरवाहे के घर की औरतेँ पुरुषोँ के बराबर अभावोँ मेँ खडीमुस्कुरा 

रही थीँ और मेरे घर के चौखट के भीतर राजा और प्रजा का अन्तरालथा । जब मेरा जन्म माँ   

की तीसरी कन्या सन्तान के रुप मेँ हुआ तो बौद्धिकपरिवारोँ मेँ अपनी विशेष पहचान रखने वाले 

ननिहाल मेँ चूल्हा नहीँ जला औरबाबा ने पिताजी पर दूसरे विवाह का दबाव बनाना आरम्भ कर 

दिया ।माँ का जीवन नारी संघर्ष का महाकाव्य है, ये कविता माँ को अर्पित करतीहूँ क्योँकि 

उसने सदा भोगे हुए सत्य को लिखने के लिए प्रेरित किया

                        
                                                   ...... डा. सोनी पाण्डेय

 *तीसरी बेटी का हलफनामा*


एक ....


सुनिए बाबूजी

मैं धरती -आकाश

अन्न-जल

अग्नि-हवा को

हाजिर-नाजिर मानकर

यह स्वीकारती हूँ कि

मै आपके लिए हमेशा

अछूत अनगढ़ पहेली ही रही

और मै लडती रही हूँ आज तक

खुद से

ये बताने के लिए कि

मैं भी आपकी बेटी हूँ


दो ...



सुनिऐ बाबूजी

मैँ हर बार आपकी चुनौतियाँ

स्वीकारती रही

और करती रही अकथ श्रम

आपने सीमेंट . बालू रख लिया

अपनी अन्य संतानोँ के लिऐ

मैँने ईँट . गारे से ही

बना डाला सीढी

और पायदान दर पायदान चढती रही

आप व्यग्य से मुस्कराकर कर निकलते रहे

आपने बनाया था अन्य के लिऐ

महल

और छोड दिया मेरे लिऐ

बूढे बरगद का कोटर

मैने वहीँ उगाया

रजनीगंधा

जिसकी महक आज भी घुली है

आपके महल की आत्मा मेँ

मैँ गढती रही राजा के लोहार के बेटे की तरह धारदार तलवारेँ

और आप व्यंग्य से मुस्करा कर निकलते रहे

फिरभी लोहार पुत्र की तरह मैँने कभी नहीँ सोचा कि

उतार लूँ अपनी तेज धारदार तलवार से आपकी गरदन

काश आप देखपाते उन्हेँ

जो अपनी भोथरी छूरी से काटते रहे आपकी नाक

और मैँ जंगल दर जगल भटकती रही

खोजती रही संजीवनी

जिसकी मारकता से आज भी जिँदा है आपकी नाक

आप लाते रहे सबके लिऐ

ढेर सारे खिलौने

दिखाते रहे दिवास्वप्न

कि . उनका भाग्य आपकी मुट्ठी मेँ है

और मैँ माँ की पुरानी साडियोँ को पहन दो टूक कहती रही

मेरा भाग्य मेरे कर्म मेँ है

काश .

आप देख पाते मेरे होने का अर्थ

और सुन पाते तीसरी बेटी का दर्द ।


तीन ....


मैँ जानती हूँ

वो रात अमावस थी

अम्मा के लिए

आपके लिए प्रलय की थी

जब मैं आषाण मेँ

श्याम रंग मेँ रंगी

बादलोँ की ओट से

गिरी आपके आँगन मेँ ।


माँ धसी थी

दस हाथ नीचे धरती मेँ

बेटी को जन कर

बरसे थे धार धार

उमड घुमड आषाढ़ मेँ

सावन के मेघ

अम्मा की आँखोँ से

कहा था सबने

एक तो तीसरी बेटी

वो भी अंधकार सी

और मान लिया आपने

उस दिन से ही

मुझे घर का अंधियारा

मनाते रहे रात दिन

तीसरी बेटी का शोक।


चार ....


देखा है मैँने आपको

उगते हुऐ पूरब से

फैलते हुऐ आकाश तक

अपराजेय योद्धा की तरह

विजयी सर्वत्र

किन्तु .

यह भी कटु सत्य है

सूरज के घर मेँ भी

होता है दक्खिन का कोना

जहाँ नहीँ पहुँती सभ्यता की रोशनी

विकास का भोर होता है केवल

दरवाजे पर

सादर फाटक पर बैठताहै

आज भी पुरुष का अहं

और दक्खिन के कोन मेँ

बनायी जाती है

छोटी सी खिडकी

यहीँ से निकलती है

सभ्यता के चौपाल पर

सूरज की बेटी।

यहाँ पाप है बेटी का बिहान

यहाँ महापाप है बेटी का प्रेम

यहाँ क्षय है संस्कृति का

बेटी का होना

इस लिऐ आज भी मिलता है

दक्खिन का कोना ।


पांच ....



सुनिऐ बाबूजी !

मेरे अन्दर जो दहकता हुआ

बहता है

गर्म लावा

वो मेरी उपेक्षा का दंश

और बेटियोँ की प्रतिभा का

दम घोँटू सन्नाटा है

जहाँ जलता है भभककर

सभ्यता का उत्कर्ष ।


माँ कहती थी

बेटियाँ गंगा की बाढ है

समय रहते ही बांध दो

ब्याह के बन्धन मेँ

और मैँ सोचती रही

क्या विवाह ही

औरत का जीवन है?

जहाँ नून . तेल

नाते . परते

के गुणा गणित मेँ खो बैठती है 

जीवन भुला देती है अपने सपने

और गाय की तरह खूँटे से बंधी

परम्पराओँ के नाम पर सहती है

अनमेल विवाह

अकथ पीडा

फिर भी माँ गाती थी

भिनसारे

आँगन बुहारते हुऐ

जाहिँ घर कन्या कुमारी नीँद कैसे आयी


छः ...



मेरे पास रास्ते नहीँ थे

चौखट के बाहर

परम्पराओँ के पहरे थे

बेटी और बेटा मेँ

गहरा अन्तराल था

बेटे के लिऐ सादर फाटक

मंहगे स्कूल और प्रतिष्ठान थे

बेटी के लिऐ दक्खिन का कोना और दहेज का रोना था।


क्योँ बाबूजी ?

क्या मैँ नहीँ करसकती थी

डाक्ट्रेट की पढाई ?

क्या मैँ नहीँ बन सकती थी

प्रसाशनिक अधिकारी ?

एक बार कहते मुझसे अपनी अभिलाषा

और तलाशते अपने मैँ का पैमाना

मैँ तब भी खरी थी

आज भी खरी हूँ

ध्यान से देखिए

मेरे एक एक शब्द मेँ

आपके श्रम का श्वेद

बहता है अविरल

और तीसरी बेटी करती है

रात -दिन अकथ श्रम

भरती है जतन से आपके मैँ

की तिजोरी ।

ये तीसरी बेटी है

आप मानेँगे एक दिन

आपकी बेटा न बेटी

वो लायक सन्तान है

जो पकडे रही नीव को

गाठेँ रही आँचल के कोर मेँ

आपके मर्यादाओँ की गठरी।





परिचय और सम्पर्क

डा. सोनी पाण्डेय

जन्मस्थान – मऊनाथ भंजन, उ.प्र.

पेशे से शिक्षक

साहित्यिक पत्रिका ‘गाथांतर’ का संपादन 






ग़ालिब-ए-ख़स्ता के बगैर - अशोक आज़मी - चौथी क़िस्त

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इस संस्मरण के बहाने ‘अशोक आज़मी’अपने बचपन के उन दिनों को याद कर रहे हैं, जिसमें किसी भी मनुष्य के बनने की प्रक्रिया आरम्भ होती है | पिछली किश्त में उन्होंने 1984 के सिख-विरोधी दंगों के पागलपन को याद किया था, जिसमें बहुसंख्यक समाज ‘विवेक-च्युत’ होता हुआ दिखाई देता है | इस चौथी क़िस्त में वे किशोरावस्था के उन वर्जित प्रदेशों की यात्रा कर रहे हैं, जिसके बारे हमारे समाज में कहने और सुनने की एक अघोषित सी मनाही रखी गयी है |  
                                  



    तो आईये पढ़ते हैं सिताब दियारा ब्लॉग अशोक आज़मी के संस्मरण                       
               


             “ग़ालिब-ए-ख़स्ता के बगैर”की चौथी  क़िस्त

                         

                          “मुंहासों ने बचाया मुझे”



तेरह चौदह की उम्र बड़ी ग़ज़ब होती है. अब जो रासायनिक बदलाव आते हैं वो तो आते ही हैं लेकिन सबसे जबरदस्त होता है बड़े हो जाने का एहसास. मेरे साथ यह अलग से रहा है कि मेरी हमेशा अपनी उम्र से अधिक उम्र के लड़कों से दोस्तियाँ हुई हैं और खुद को अपनी उम्र से अधिक महसूस करने की एक ख़ब्त रही है. तो तेरह चौदह का होते होते मेरी मोहल्ले के तमाम दादा टाइप लोगों से दोस्ती हो चुकी थी. उस मोहल्ले का समाजशास्त्र भी थोड़ा अलहदा था. कसया ढाला के उस पार की बसाहट को देवरिया में आधुनिक माना जाता था. और हमारी ओर वाले को बैकवर्ड. पुराना मोहल्ला था गलियों और गंदगी से भरा पूरा. सबसे बड़ी आबादी श्रीवास्तव लोगों की थी. इसके अलावा कथित छोटी जाति के लोग भी प्रचुर मात्रा में थे. मोहल्ले के पीछे खाली मैदान थे जहाँ अब तमाम नए बने घरों में से एक मेरा भी है. तब हम उसमें क्रिकेट खेला करते थे. श्रीवास्तव लोगों के साथ ख़ास बात यह थी कि लगभग सब एक दूसरे के रिश्तेदार थे. जनसंख्या के मामले में भी तब ये परिवार बड़े उत्पादक थे. हमारे मकान मालिक की चार लडकियाँ और दो लड़के थे. बाक़ी घरों में भी कमोबेश ऐसी ही स्थिति थी. आम तौर पर लोग सरकारी नौकरियों में बाबूगिरी करते थे. भ्रष्टाचार रोज़ सुनाये जाने वाली गर्वोक्ति थी. पापा इन सब को लेकर थोड़ा सुप्रियारिटी काम्प्लेक्स में रहते थे. स्केल की भी और ईमानदारी की भी. उन्हें हम भाइयों का मोहल्ले के आम लड़कों से मिलना जुलना पसंद नहीं था. भाई तो खैर कम से कम छात्र जीवन तक उनका श्रवण कुमार ही रहा, लेकिन मैं हमेशा से सरदर्द रहा. क्रिकेट का नशा बढ़ता जा रहा था और क्रिकेट के लिए संगत तो उन्हीं की मिलनी थी. सख्ती खूब होती थी, पिटाई हफ्ते में एकाध बार तो हो ही जाती थी, कई बार तो फील्ड से ही पिटते हुए आये लेकिन सुधरने वाले हम तब भी नहीं थे.


एक तरफ पापा के कालेज के शिक्षकों की सोसायटी थी, जिसे आप शहर का अपक्लास कह सकते हैं. उन दिनों एक दूसरे के घर जाना, मिलना जुलना लगभग नियमित सी चीज़ थी तो पापा के ग्रुप के तमाम लोगों के बच्चे हमारे अच्छे दोस्त थे. मजेदार बात यह कि इनमें लडकियाँ ज्यादा थीं. कई कान्वेंट में पढ़ती थीं. अंग्रेजी बोलती थीं, तो पापा की जो रोज़ की इंग्लिश स्पीकिंग क्लास थी उसके भरोसे मुझे वहां भी बहुत बेईज्जत नहीं होना पड़ता था. दूसरी तरफ मोहल्ले का गैंग था. शुद्ध भोजपुरी बोलने वाला. वहाँ मैं सहज भी था और उसके लिए पापा की किसी ट्रेनिंग की ज़रुरत भी नहीं थी. इस तरह कुल मिला जुला के दिन अच्छे गुज़र रहे थे. 

इस बीच वह हुआ जिसने मेरे पूरे किशोर जीवन पर एक काली छाया सी डाल दी. इस उम्र तक फ़िल्मी जानकारी के अलावा सेक्स के किसी ज्ञान से मैं अनभिज्ञ था. उम्र के साथ जो एक अतिरिक्त आकर्षण होता है, उसके अलावा कल्पनाओं में भी अभी किसी दैहिक फंतासी का कोई प्रवेश नहीं हुआ था. वह जाड़े का कोई दिन था, छुट्टी का दिन. हम हमेशा की तरह पीछे स्कूल के मैदान में क्रिकेट खेल कर वापस लौटने से पहले बैठ कर गप्पें मार रहे थे. आमोद और दीपू भैया अचानक उठ के दूसरी तरफ चले गए. एक दो और लड़के थे जो देख देख के मुस्कुरा रहे थे. मेरी समझ में कुछ नहीं आया तो मैंने पूछा. उन्होंने आपस में कुछ इशारा किया और मुझे साथ आने को कहा. हम पीछे प्रमोद चाचा की फैक्ट्री की तरफ गए तो उन्होंने मुंह पर उंगली रख के चुप होने का इशारा किया. एक कोने में कटरेन का पर्दा डाल कर पेशाब वगैरह के लिए आड़ कर दी गयी थी. उसी की एक दरार से उन्होंने भीतर देखने का इशारा किया. मैंने देखा कि दीवार पर दोनों हाथ रखके आमोद टिका हुआ है और उसके पीछे दीपू भैया ने उसे कंधे से पकड़ा हुआ है और धीमे धीमे हिल रहे हैं. दोनों की पैंट्स घुटने के नीचे सरकी हुईं थीं. एक पल मेरी समझ में कुछ नहीं आया. मैं वहां से निकला और तेज़ी से घर की तरफ भागा. पहले छत पर एक कोने में बने स्टोर में दीपू भैया को अलग अलग लड़कों के साथ जाते, और हमारी नज़र पड़ने पर हमें डांट के भगाते कई बार देखा था. तब कुछ समझ में नहीं आया था. इस घटना के बाद न जाने क्या हुआ कि दीपू भैया से डर और बढ़ गया. मैं उनसे भागा भागा रहने लगा. वह होते तो मैदान तक जाके भी क्रिकेट नहीं खेलता. छत पर वह पतंग उड़ा रहे होते तो मैं नीचे उतर आता.

दीपू भैया का घर हमारे ठीक नीचे था. आँगन के बाद लोहे का एक जाल लगा था जिसके नीचे उनका आँगन था. मकान मालिक के रिश्तेदार थे वे लोग तो किराया नहीं लगता था. उनके पापा शायद सिंचाई विभाग में बाबू थे. दो बहने और तीन भाई. सबसे बड़े दीपू तब बारहवीं में थे और सबसे छोटा शोभित जो तब अभी जन्मा भी नहीं था. उनके पापा रोज़ शराब पी के आते और अक्सर दीपू भैया पिटते थे. नशे में अगर पापा से टकरा गए तो एक ही लाइन दुहराते, “प्रणाम गुरु जी. आपके त बतिये निराला बा. देखेलीं आपके लइकन के त जिऊ जुरा जाला. हमरो दुइये ठो होतं स त देखा देतीं दुनिया के” और पापा किसी तरह पिंड छुडा के निकल पड़ते. बड़ी दीदी दीपू भैया से एक साल छोटी थीं और उसके बाद बुच्चन दीदी मुझसे एक साल बड़ी. दोनों बहनें मुझे राखी बाँधती थीं. जब तक देवरिया आना जाना रहा यह रिश्ता बना रहा. मैं गोरखपुर से लौटता और मिलने जाता तो अन्दर बच्चन दीदी के कमरे में हम घंटों गप्पें मारते. वह पूछतीं, “कोई गर्लफ्रेंड बनी कि वहां भी दीदी ही बना रहे हो सबको” और ठहाका लगा कर हंस पड़तीं. मैं पूछता, “आपको मिला कोई?” तो कहतीं, “अपनी किस्मत में को लाला ही आयेगा. किसी सरकारी विभाग का बाबू.” दीपू भैया पढाई वगैरह में तो फिसड्डी थे लेकिन बाक़ी सर्वगुण संपन्न. मकान में किसी की लाईट खराब हो जाए, किसी का नल खराब हो जाए, किसी के यहाँ कोई फंक्शन हो, दुर्गापूजा हो, जन्माष्टमी हो, दीपू हैं तो कोई टेंशन नहीं. बाद में उन लोगों ने मकान बनवा लिया मोहल्ले के पीछे के मैदान के ही एक टुकड़े में. अंकल का पीना बदस्तूर ज़ारी रहा. जाड़े की एक रात देर से पीकर लौटे तो किसी ने दरवाज़ा ही नहीं खोला. वह गालियाँ देते, दरवाज़ा पीटते थक गए तो बरामदे में ही सो गए. घरवाले सबक सिखाना चाहते थे. शायद वह सीख भी गए. लेकिन उस सबक का कोई असर लेने की हालत में नहीं रहे. सुबह चाची ने दरवाज़ा खोला तो वह वैसे ही पड़े थे...बस अब साँस भी नहीं चल रही थी. दीपू भैया इन दिनों अनुकम्पा नियुक्ति में मिली उसी नौकरी में हैं और खूब पैसा पीट रहे हैं.


खैर, सेक्स से वह मेरा परिचय जिस तरह हुआ था वैसे ही और घनिष्ठ होता गया. पूरा मोहल्ला जैसे सेक्स से बजबजा रहा था. समलैंगिक सम्बन्ध तो इतने कामन थे कि एक बार समझ के आने के बाद वह चारों तरफ नंगे दिखाई देते थे. हालत यह कि खुद दीपू भैया नहीं जानते थे कि उनके शिकारों का सबसे बड़ा शिकार उनका अपना छोटा भाई है. एक बार खुल जाने के बाद उन लड़कों ने मुझसे ये बातें करनी शुरू कर दीं. किसका किससे क्या चल रहा है, यह जानने की रूचि उस उम्र में सारे आदर्शों पर भारी पड़ती थी. फिर प्लास्टिक की पन्नी में पैक वे रद्दी काग़ज़ पर छपीं किताबें. एक तरफ पापा और नाना के आदर्श थे, गीता प्रेस की किताबें थीं तो दूसरी तरफ मस्तराम की किताबें और मोहल्ले के कोनों अतरों में फैले ये किस्से. पापा का डर और माँ की सख्त निगरानी थी कि लम्बे समय तक इनका हिस्सा बनने से बचा रहा. लेकिन वर्जित फल खाने की वह इच्छा कब तक रोकता? समलैंगिक संबंधों से मुझे घिन आती थी, तो दोस्तों ने दूसरा इंतजाम किया. वह लड़की हमारी गली के अंतिम छोर पर रहती थी. वैसे तो हिंदी का लेखक होने से यह सुविधा है कि लगभग तय है कि यह संस्मरण उसके पास तक नहीं पहुंचेगा, फिर भी उसका नाम नहीं ले रहा. स्कूल में ही उसे बुलाया गया था. एक ठेले के अन्दर वह इंतज़ार कर रही थी. मैं कांपते पैरों से पहुँचा. बाक़ी दोनों दोस्त वहीँ खड़े हो गए और मुझे अन्दर जाने के लिए कहा. जब मैं अन्दर गया तो उसने मुझे एक निगाह देखा और फिर बाहर निकल आई. उन लड़कों से कुछ कहा और चली गयी. मैं हतप्रभ. निकल कर उनके पास गया तो उनमें से एक ने कहा, “ अबे तोरी चेहरा पे ई मुंहासा बा न. कहतिया छुअले से ओहू के हो जाई. एहिसे भाग गईल ह.” 


मैं घर लौट आया. सीधे शीशे के सामने जाकर खड़ा हुआ. दोनों गालों पर उगे मुंहासों को गौर से देखा. काले चेहरे पर गंदे मुंहासे. मैं फोड़ दिया करता था तो तमाम निशानात बन गए थे. अपना चेहरा इतना बदसूरत कभी नहीं लगा था. एक आलमारी में माँ का फेस पाउडर रखा था. उसे अब रोज़ चोरी चोरी लगाने लगा. पापा जो साफी लाये थे उसे बिला नागा दिन में दो बार दो चम्मच पीने लगा. जो आता चार सलाहें दे जाता. मेरा चेहरा देशी दवाइयों की प्रयोगशाला बन गया. लेकिन मुंहासे न खत्म होने थे, न हुए.


एक अजीब सी हीन भावना भरती चली गयी. जिन लड़कियों से साथ बचपन से खेला था उनके सामने पड़ने से कतराने लगा. मिलना ही पड़े तो नज़रें चुराता. वे किसी बात पर हंस पड़तीं तो लगता मुझ पर ही हंस रही हैं. पढ़ाई का बहाना करके शादियों, पार्टियों में जाने से बचता. अजीब अजीब से सपने आते. एक सपना तो बरसों आता रहा. मेरी शादी हो रही है. पंडित जी मंत्रोच्चार करा रहे हैं, अचानक लड़की उठ कर खड़ी हो जाती है और कहती है “इसके चेहरे पर मुँहासे हैं, मैं नहीं करुँगी इससे शादी. 


इंटर में पढता था तो हिंदी पढ़ने मिसेज शुक्ला आंटी के यहाँ जाता. उनके पति पापा के दोस्त रहे थे और उनकी अकाल मृत्यु के बाद आंटी की उन्हीं की जगह नियुक्ति हुई थी. मिसेज शुक्ला आंटी जैसी जीवट वाली और मृदुभाषी महिला मैंने आज तक के जीवन में नहीं देखी. मेरी पहली कविता पापा ने आंटी को ही दिखाई थी और उन्होंने कहा था, “इसे रोकियेगा मत. इसमें कवि होने की क्षमता है.” अभी हाल में कहीं मेरी कविता पढ़ के उन्होंने फोन किया और खूब आशीर्वाद दिया. वैधव्य के पहाड़ से दुःख और उस छोटे से क़स्बे के तमाम अनर्गल लांछनों के बीच उन्होंने पम्मी दीदी और मिनी को जिस तरह की परवरिश दी वह अद्भुत थी. मिनी एकदम मेरी उम्र की थी. पहले किसी संदर्भ में जिस दिवा का नाम लिया है वह यही मिनी थी. पहले आंटी हनुमान मंदिर के बगल वाली गली में एक मकान के पहले तल्ले पर रहतीं थीं. बाद में देवरिया ख़ास में उन्होंने मकान बनवा लिया.  हम अक्सर उनके घर जाते और हम तीनों लूडो, व्यापार वगैरह खेलते थे. लेकिन अब हालत यह थी कि मिनी मुझसे सहजता से हाल चाल पूछती, पढ़ाई की बात करती और मेरे मुंह से हाँ-ना कुछ नहीं निकलता. वह झुंझला जाती या कभी कभी हंस पड़ती और मैं पढ़ाई ख़त्म करते ही इतनी तेज़ भागता कि एक बार आंटी ने पापा से कहा कि “बहुत तेज़ साइकल चलाता है सोनू.”


यह हीनभावना वर्षों मेरे भीतर भरी रही. कालेज आने के बाद भी और एक हद तक अब भी. लेकिन उस रोज़ तो मुंहासों ने ही मुझे बचाया. उस घटना के बाद मैंने उन दोस्तों और उन बातों से खुद को पूरी तरह काट लिया. इसकी एक दूसरी वजह थी नाना के यहाँ आने वाली पत्रिकाएँ. धर्मयुग और सारिका से वह मेरा पहला परिचय था. समझ में कितना आता था यह पता नहीं लेकिन हर रविवार को वहाँ जाने पर इन पत्रिकाओं में डूब जाता. राजनीतिक पत्रिकाएं भी उनके पास खूब होती थीं. रेलवे लाइब्रेरी से वह साहित्यिक किताबें भी ले आते. मैं उन्हें चाट जाता. उन दिनों पढ़ी एक किताब अब तक याद है, मास्ति वेंकटेश आयंगर का उपन्यास चिक्क्ववीर राजेन्द्र. सच कहूं तो नाना की किताबों की वह छोटी सी आलमारी और शुक्ला आंटी का पढ़ाना ही मुझे साहित्य और राजनीति की दुनिया में ले आया. कवितायें पहले भी लिखता था अब खूब लिखने लगा. कई कई डायरियां भर गयीं. पापा कभी रोकते नहीं थे. यह सब बारहवीं के उस रोज़ तक चला जिस रोज़ कालेज की प्रार्थना के बीच जाकर मैंने और मेरे कुछ दोस्तों ने स्कूल बंद करवा दिया. वह किस्सा आगे. अभी उसी दौर के एक गीत से बात ख़त्म करता हूँ, बहुत सारी दूसरी चीजों की तरह इस गीत का भी एक बंद भूल गया है.


वेदना की आरती से
प्रिय तुम्हारी वंदना है
टूटी बिखरी ज़िन्दगी की
अश्रु ही अभिव्यंजना हैं

नेह का पावस नहीं है
शत शरद के गीत झूठे
देख ना प्रिय वेश बदले
ग्रीष्म ही सावन बना है

वेदना की आरती से...

चाहता था पुष्प के
कुछ माल गूथूं पर प्रिये
कंटकों के इस नगर में
पुष्प तो बस कल्पना हैं

वेदना की आरती से ...


                                         ....................जारी है .....
                           


परिचय और संपर्क

अशोक आज़मी .... (अशोक कुमार पाण्डेय)

वाम जन-आन्दोलनों से गहरा जुड़ाव
युवा कवि, आलोचक, ब्लॉगर और प्रकाशक
आजकल दिल्ली में रहनवारी      





ग़ालिब-ए-ख़स्ता के बगैर - अशोक आजमी - पांचवी क़िस्त

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इस संस्मरण के बहाने ‘अशोक आज़मी’अपने बचपन के उन दिनों को याद कर रहे हैं, जिसमें किसी भी मनुष्य के बनने की प्रक्रिया आरम्भ होती है | पिछली किश्त में उन्होंने किशोरावस्था के उन वर्जित प्रदेशों की यात्रा की थी, जिसके बारे में हमारा समाज न तो कुछ कहना चाहता है और न ही सुनना | इस पांचवी क़िस्त में वे मंडल आन्दोलन के बहाने उस पूरे दौर की मानसिकता को समझने की कोशिश कर रहे हैं | 
                                  
      
    तो आईये पढ़ते हैं सिताब दियारा ब्लॉग पर अशोक आज़मी के संस्मरण                       
               

               “ग़ालिब-ए-ख़स्ता के बगैर”की पांचवी क़िस्त

             

          “जब नौकरी मिलनी ही नहीं है तो पढ़ के क्या फ़ायदा”



शिशु मंदिर में एक दैनन्दिनी दी जाती थी. इस डायरी के पहले पन्ने पर नाम वगैरह के साथ एक सवाल था “बड़े होकर क्या बनना चाहते हैं’ मैंने लिखा था “एम एल ए, एम पी फिर प्रधानमन्त्री!” यह पांचवी क्लास का हाल था!


राजनीति में मेरी रूचि जाने क्यों आम लड़कों की तुलना में शुरू से कहीं अधिक थी. राजीव गांधी जब देवरिया आये थे तो पापा बीमार थे. माँ ने दवाई लाने भेजा था और हम साइकिल लिए लिए उनका भाषण सुनने चले गए. उनका वह कांख के नीचे से निकाल कर शाल ओढ़ने वाला स्टाइल इतना भाया कि मम्मी की एक क्रीम शाल उसी स्टाइल में ओढ़ कर कहीं निकल जाता था. एक बार अटल बिहारी बाजपेयी रामलीला मैदान में आये तो वहाँ पहुँच गया और उनकी पाज देकर बोलने वाली स्टाइल अपनाने की कई असफल कोशिशें कीं. हमारे मकान मालिक रिटायरमेंट के बाद नगरपालिका सदस्य का चुनाव लडे तो रिक्शे पर बैठकर माइक लेकर प्रचार करने निकल जाता “आदरणीय भाइयों और बहनों, नगरपालिका परिषद् देवरिया के वार्ड 17 के सदस्य पद प्रत्याशी श्री पारस नाथ श्रीवास्तव को मछली पर मुहर लगा के विजयी बनाएं. याद रहे भाइयों और बहनों..मछली. मछली.मछली. आप सबका चुनाव निशान मछली.


अख़बारों में राजनीतिक ख़बरें भी बहुत गौर से पढता था. तब हमारे यहाँ जनसत्ता और आज आते थे. इसके कारण शायद उस दौर के राजनीतिक हालात में रहे होंगे. राजीव गांधी का इंदिरा जी की मृत्यु के बाद एक स्वप्नदर्शी युवा के रूप में उभरना, संचार क्रान्ति का आरम्भ वगैरह जो एक उत्साह लेकर आया था उसके तुरंत बाद बोफर्स का मामला क्या उठा, एक तूफ़ान खड़ा हो गया.  वी पी सिंह अचानक देश में मसीहा की तरह स्थापित हो गए. हम पगला गए थे उस दौर में. अभी पहले रोएँ चेहरे पर आना शुरू हुए थे लेकिन जहाँ कहीं सभा होती पहुँच जाते. उनका आफसेट पर छपा एक पोस्टर अपने घर के बाहर वाले खम्भे पर चिपका दिया. पापा वी पी सिंह को पसंद करते थे लेकिन मेरी इस दीवानगी से चिंतित भी रहते थे. तो पढ़ाई पर जोर बढ़ा दिया गया. सुबह पांच बजे उठा के कुर्सी पर बैठा देते थे, एक कप चाय खुद बना के देते थे और फिर स्कूल से आने के बाद चार से पांच घंटे रोज़. घर से निकलना मुश्किल हो गया था. लेकिन उस दिन तो हमारा मसीहा शहर में आने वाला था.


उनकी मीटिंग शाम छः बजे से थी. मैं कालेज से घर गया ही नहीं. प्रशासन ने सख्ती बढ़ा दी थी. रामलीला मैदान में होने वाली सभा कैंसिल कर दी गयी और  आखिरी समय पर हमारे राजकीय इंटर कालेज का मैदान दिया गया. नारा लगा “ बोफर्स के दलाल मुर्दाबाद”, “तानाशाही नहीं चलेगी”, “राजा नहीं फ़क़ीर है, भारत की तक़दीर है” और इन नारों के साथ हम राजकीय इंटर कालेज के मैदान में पहुँचे. कोई पांच सौ लोगों की भीड़ थी तब तक. कुछ लोगों को रिक्शे पर लगे माइकों के साथ जगह बदलने की सूचना के साथ शहर की गलियों और मुहल्लों में भेजा गया. बाक़ी लोग व्यवस्था में लगे. सबसे बड़ी समस्या थी मंच की. कालेज का मैदान खेल का मैदान था. वहाँ कोई राजनीतिक सभा होती ही नहीं थी तो कोई स्थाई मंच था नहीं. जितनी भीड़ की उम्मीद थी उनके बीच जीप वगैरह पर खड़े होकर बोलने से काम चलने वाला नहीं था. इसी बीच सलाह आई कि ट्राली जोड़ के मंच बन सकता है. आनन फानन में दो ट्रैक्टर ट्राली मंगवाए गए. लेकिन पुलिस ने कालेज गेट पर उन्हें रुकवा दिया. बड़ी हुज्जत की नेता लोगों ने. लेकिन पुलिस वाले टस से मस न हुए. बोले “ट्राली ले जाओ लेकिन ट्रैक्टर नहीं ले जाने देंगे.” अब बिना ट्रैक्टर ट्राली कैसे टस से मस हो. किसी ने उत्साह में नारा लगाया, खींच के ले चलो. नेताजी लोग सहम गए. सफ़ेद झकाझक कुर्ता पैजामा में ट्राली कैसे खिंचाती. चार पांच युवा आगे बढ़े..पीछे से मैं और मेरे जैसे कुछ और विद्यार्थी और देखते देखते दो ट्रालियां जोड़ के मंच बना. गद्दे बिछा दिए गए. शाम के छः बजे...फिर सात...आठ...वी पी सिंह नौ बजे आये महिन्द्रा जीप से. कालेज का छोटा सा मैदान पेट्रोमेक्स की रौशनी में लोगों से ठसाठस भरा था. वी पी सिंह की एक झलक पाने के लिए लोग बेक़रार थे. हम मंच सजाने के बाद वहीँ रह गए थे...कब धक्के लगे और कब मंच नेताओं से भर गया पता ही नहीं चला. हम नीचे खड़े थे. वी पी सिंह बगल से गुज़रे. मैंने नमस्कार किया तो लगा उन्होंने जो हाथ जोड़ा था वह मेरे ही जवाब में था. नारे और बुलंद हो गए. जहाँ वह खड़े थे वहां से उनकी छाया मुझ पर पड रही थी. दुबला पतला शरीर और मुचमुचाया कुर्ता पैजामा. गले में गमछा. पूरबिहा लोच वाली सधी आवाज़. लगा जैसे अपने ही कोई चाचा-मामा बोल रहे हैं. मंत्रमुग्ध सुनता रहा. बीच बीच में नारे. ग्यारह बजे घर लौटा तो पता ही नहीं चला पापा ने कितना डांटा...उनके थप्पड़ों में जैसे उस दिन कोई जान ही नहीं थी.


उस बार जनमोर्चा या (जनता दल ?) से चुनाव एक ठाकुर साहब लड़ रहे थे. नाम अब याद नहीं. भीखमपुर रोड पर उनका दो मंज़िला मकान था साधारण सा. मैं वहां नियमित जाने लगा. शाम को मीटिंग होती थी और उसमें गाँव गाँव के वोट का हिसाब लगाया जाता था. एक दिन मैं बैठा था और मेरे ननिहाल पीपरपांती की चर्चा चल निकली. वे मेरे उस गाँव से रिश्ते को नहीं जानते थे. किसी ने कहा “ऊ त बभनन क गाँव ह. अहिरन क वोट मिल जाई. चमटोली त कांग्रेस के देई और पंडिज्जी लोग भी कांग्रेसे के वोट दिहें.” ठाकुर साहब बोले “देख शारदा मिसिर क वोट त समाजवादे के जाई. अ ऊ चमटोलियों से दिअइहें.” मेरा सीना गर्व से फूल गया. शारदा मिश्र मेरे नाना थे!


उस चुनाव में सुबह से हम सब सक्रिय थे. घर घर जाके पर्ची बाँट रहे थे. सुभाष विद्यालय में बूथ था. वहीँ चौकी पर जमे हुए थे. कोई तीन बजे एक जीप आई. हम चार पांच लोगों की ओर इशारा कर किसी ने कहा, “चल लोगिन” मैंने पूछा, “कंहवा.” “चल पहिले. “रस्ता में बतावल जाई.” हम लद गए. जीप देवरिया से दो एक किलोमीटर दूर किसी गाँव में रुकी. हमें सीधे बूथ के भीतर ले जाया गया. उंगली में स्याही लगी और वी पी सिंह की पार्टी को पांच वोट मिल चुके थे!


वी पी सिंह आये और उनके पीछे पीछे आया मंडल कमीशन. हम सब जो उनके भक्त थे रातोंरात उनके विरोधी बन गए. घर में, मोहल्ले में, कालेज में हर जगह उन्हें गालियाँ दी जाती थीं. स्थानीय अखबार मंडल कमीशन के खिलाफ उठ रहे आन्दोलनों के विस्तृत समाचारों से भर गए. एक गुस्सा हम सब के भीतर कसमसा रहा था. एक शाम यों ही बैठा था तो मम्मी बोलीं, “पढ़ क्यों नहीं रहे?” मैंने कहा “जब नौकरी मिलनी ही नहीं है तो पढ़ के क्या फ़ायदा!” पापा हमसे तो नहीं लेकिन घर आने जाने वाले चाचा लोगों से ऊंची आवाज़ में मंडल कमीशन की लानत मलामत करते. दलितों का आरक्षण पचा पाना पहले ही सवर्ण कही जाने वाली जातियों के लिए मुश्किल था. अब पिछड़े भी! कालेज के इंटरवल में अब क्रिकेट की जगह मंडल की बातें होने लगीं. एक दिन यह तय किया गया कि कल से आन्दोलन शुरू करना है.


अगले दिन भी रोज़ की तरह सुबह प्रार्थना के लिए सभा लगी. प्रार्थना अभी ख़त्म भी न हुई थी कि मैं भाग के स्टेज पर पहुँचा. आवाज़ तब भी इतनी भारी थी कि माइक की ज़रुरत नहीं थी. भाषण देना शुरू किया. प्रिंसिपल साहब सहित सारे शिक्षक भौंचक्के! उन दिनों इलीट माने जाने वाले जी आई सी के इतिहास में ऐसी पहली घटना थी यह. होरा सर तो सीधे अंकल ही थे. पर उस दिन न किसी का डर लगा न कोई हिचक. भाषण ख़त्म होते होते अपील की गयी स्कूल के बहिष्कार की और किसी ने छुट्टी की घंटी बजा दी. सारे छात्र सड़क पर निकल आये. नारे गढ़ लिए गए. “मंडल आयोग मुर्दाबाद”, “बर्बादी का दूसरा नाम – राम विलास पासवान”, “राजा नहीं रंक है, देश का कलंक है”...जुलूस महाराजा अग्रसेन इंटर कालेज पहुँचा. छुट्टी की घंटी बजा दी गयी. सारा कालेज मैदान में और एक ऊंची जगह खड़े होकर मेरा भाषण. फिर यही कहानी बी आर डी इंटर कालेज में. फिर एस एस बी एल इंटर कालेज. रास्ते में कस्तूरबा गर्ल्स इंटर कालेज था पर उसके पास जाने की किसी की हिम्मत नहीं हुई. कोई ढाई हज़ार छात्र! सड़क पर चक्का जाम का वह किस्सा होरा अंकल आज भी सुनाते हैं. सड़क पर लेटे हुए हम लोग. चीखते हुए “हमारी लाश से लेकर जाओ गाड़ी”...सारा जुलूस पहुँचा जिलाधीश कार्यालय और सभा में तब्दील हो गया. तभी अचानक शहर के डिग्री कालेज के नेता लोग आ गए. मंच पर चढ़ गए. मुझे मदन शाही और शिवानन्द शाही के नाम याद हैं. और लोग भी थे. ये सब वी पी सिंह के समर्थक रहे थे कभी. लड़कों ने नारा लगाया, “नेता नूती नीचे उतरो”, “हमारा नेता अशोक पांडे” वे बडबडाते हुए नीचे उतर आये. मैंने कोई आधे घंटे भाषण दिया. नीचे उतरा तो कुछ दोस्त चाय और समोसे लेकर खड़े थे...कई अखबारों के फोटोग्राफर और पत्रकार बात करने के लिए इतेज़ार कर रहे थे. अगली सुबह मैं छात्रनेता अशोक कुमार पाण्डेय में तब्दील हो चुका था...आश्चर्य इन सबके बीच न पापा की कोई डांट थी न मार. 


आन्दोलन एक बार शुरू हुआ  तो बढ़ता गया. मंडल आयोग विरोधी छात्र मोर्चा बना. मुझे उसका संयोजक बनाया गया. कोई विनीत त्रिपाठी बनारस से संयोजित करने आये थे. राघवनगर के एक घर में मीटिंग होती थी. रोज़ बयान ज़ारी होते. तय किया गया कि डी एम के बंगले के सामने क्रमिक अनशन हो. पंडाल बन गया. माइक वगैरह की सारी व्यवस्था हो गयी. रोज़ दो लोग सुबह से शाम तक अनशन करते फिर शहर का कोई गणमान्य व्यक्ति जूस पिलाकर अनशन तुड़वाता. पहले दिन मैं बैठा. मेरी ज़िद आमरण अनशन की थी लेकिन सबने मना कर दिया. इस बीच एक दिन तय हुआ कि सांसद मोहन सिंह को घेरा जाय. चार मोटरसाइकिलों से हमलोग उनके घर पहुँचे. मैं मदन शाही के पीछे बैठा था. ज्योंही हम उनसे बात करना शुरू किये उन्हें किसी बात पर गुस्सा आ गया. किसी ने शायद उनके ठाकुर होके नानजात के लोगों की तरफदारी पर छींटाकशी की थी. वे चिल्लाए, “छात्र बनते हैं ससुरे. अंग्रेजी आती है?” मुझे जाने क्या सूझा, बोला “कौन सी सुनेंगे? लालू वाली कि मुलायम वाली.” मेरा यह कहना था कि उनका पारा सातवे आसमान पर, “मारो सालों को” की आवाज़ गूंजी और वर्दीधारी लाठियाँ हमारे पीछे. मदन शाही ने तेज़ी से गाड़ी भगाई तो एक सिपाही ने डंडा चला के मारा. पीठ का वह हिस्सा अब भी कभी कभी दुखता है. अभी हाल में जब मोहन सिंह जी की मृत्यु हुई तो मुझे वह घटना याद आई. 


क्रमिक अनशन का कोई असर नहीं हो रहा था. हम कुछ ऐसा करना चाहते थे कि हंगामा हो. आत्मदाहों का दौर शुरू हो चुका था. लेकिन हम इसके एकदम खिलाफ थे. आखिर खुद मरने से क्या होगा मारना है तो उन सबों को मारो जो हमारी ज़िन्दगी चौपट कर रहे हैं. एक दिन मैं, आशुतोष, मनीष पाण्डेय और शायद रीतेश सिंह साथ बैठे थे. योजना बनी कि मनीष के घर के सामने जो गोदाम है उसमें आग लगा दी जाय. वह ऍफ़ सी आई का गोदाम था. रात का कोई समय तय किया गया. हम एक लीटर के करीब डीजल लेकर पहुंचे. वहां समझ आया कि इतने तेल से तो एक बोरी अनाज फूंकना मुश्किल था. फिर भी तर्क आया कि ज़रा सी आग लग गयी और अनाज तक पहुँच गयी तो बाक़ी अपने आप हो जाएगा. तो दीवार के एक कमज़ोर लग रहे हिस्से पर डीजल डाला गया. माचिस रगड़ी गयी. पर माचिस जले ही नहीं. एक एक करके तमाम तीलियाँ ख़त्म हो गयीं. धमाके की हमारी योजना धरी की धरी रह गयी. रीतेश इन दिनों लन्दन में डाक्टर है. आशुतोष शायद कृषि वैज्ञानिक. मनीष इंजीनियर बनने दक्षिण के किसी कालेज में गया था. वहीँ उसे नशे की लत लग गयी. मैं तो बीच के दिनों में शहर से एकदम ग़ायब ही रहा लेकिन उसके घर के पास रहने वाले एक दोस्त ने पिछले दिनों लखनऊ में बताया कि उसके नशे की लत इतनी भयानक हो गयी थी कि लाखों का क़र्ज़ हो गया था. एक दिन उसकी लाश उसके घर में ही पंखे से लटकती मिली. उसकी मम्मी मारवाड़ी इंटर कालेज में हिंदी की शिक्षक के रूप में बहुत प्रसिद्द थीं. पापा प्रदेश के जाने माने शिक्षक नेता थे. भैया देवरिया से रुड़की इंजीनियरिंग कालेज में प्रवेश पाने वाले पहले छात्र. मनीष शुरू से अलमस्त तबियत का था. नशे ने ख़त्म न किया होता तो आज वह हमारे बीच होता.


खैर, इस योजना की समाप्ति के बाद बनी गिरफ्तारी देने की योजना. रोज़ कुछ लोग गिरफ्तारी दे रहे थे. जिस दिन मेरा नंबर था मेरे साथ कालेज के कुछ और मित्रों को गिरफ्तारी देना था. उस दिन ननिहाल में कोई फंक्शन या पूजा थी. रात भर वहीँ रहा था. नानी को छेड़ता रहा, “ए नानी हम जेल चलि जाईं त तू रोअबू?” नानी कहतीं, “अब बुढौती में इहे कुल दिन देखाव तू. ” सुबह सीधे वहां से तय जगह पहुँचा. जुलूस निकला. गिरफ्तारी की जगह तक पहुँचते पहुँचते दसेक लोग रह गए. गिरफ्तारी के पहले दरोगा ने कहा कि “अच्छे खासे पढ़े लिखे शरीफ घर के लड़के लग रहे हो तुम लोग. क्यों जेल जाना चाह रहे हो. घर जाओ.” “संख्या तीन रह गयी” जेल के दरवाजे पर फिर उसने जब यही दोहराया तो एक और मित्र शहीद हुए. अंत में मैं और एस एस बी एल का एक छात्र जेल के भीतर पहुँचे.


भीतर पार्टी का माहौल था. जलेबी, समोसे, कचौरी चल रहे थे...पर मेरा मन तो अटका था कि पापा को पता चलेगा तो क्या होगा?

                                      ....................जारी है .....
                                      

परिचय और संपर्क

अशोक आज़मी .... (अशोक कुमार पाण्डेय)

वाम जन-आन्दोलनों से गहरा जुड़ाव
युवा कवि, आलोचक, ब्लॉगर और प्रकाशक
आजकल दिल्ली में रहनवारी      


“ग़ालिब-ए-ख़स्ता के बगैर” की छठी क़िस्त - 'अशोक आज़मी’

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इससंस्मरणकेबहानेअशोकआज़मीअपनेअतीतकेउनदिनोंकोयादकररहेहैं, जिसमेंकिसीभीमनुष्यकेबननेकीप्रक्रियाआरम्भहोतीहै | पिछलीकिश्तमेंउन्होनेमंडलआन्दोलनकेबहानेउसपूरेदौरकीमानसिकताकोसमझनेकीकोशिशकीथी | इसछठीक़िस्तमेंअपनेजेलकेअनुभवोंकेसहारेवेउसेऔरविस्तारदेरहेहैं
                                 
                                  
      
         तोआईयेपढ़तेहैंसिताबदियाराब्लॉगपरअशोकआज़मीके संस्मरण                      
               

                    “ग़ालिब--ख़स्ताकेबगैर की छठीक़िस्त


                       या देवी सर्वभूतेषु



किसी भी शहर या कस्बे में जेल हमेशा शहर के बाहर होती है. शरीफ लोग जेल से दूर ही रहना पसंद करते हैं. पहली जेलयात्रा के बाद से अब तक जेलें बहुत सी देखीं हैं मैंने. ग्वालियर में किले पर कभी जाएँ तो वहाँ मानमहल है. राजा मान सिंह ने बनवाया था उसे जिनके बारे में कहा जाता है कि वह न केवल बहुत वीर थे बल्कि कलाओं, ख़ासकर संगीत में निपुण थे. ध्रुपद के अच्छे गायक थे और इस विधा को उन्होंने ही सबसे पहले राज्याश्रय दिया. इस महल की दो मंज़िलें ज़मीन के ऊपर हैं और बाक़ी (शायद पाँच) ज़मीन के नीचे. इन्हीं में से एक मंजिल में एक वृत्ताकार हाल है. बताते हैं कि राजा मान सिंह के राज में उनकी सात रानियाँ उसमें झूला डाल के झूलती थीं. उसके नीचे एक तालाब बना था. चारों ओर जबरदस्त सुरक्षा. फिर जब उन्होंने मृगनयनी से शादी की तो उसने वहाँ रहने से इंकार क्यों किया होगा? उसने अलग और खुला महल बनाने की मांग क्यों की होगी? वही जगह मुग़ल शासकों को बाद में जेल बनाने के लिए सबसे मुफ़ीद क्यों लगी होगी? बताते हैं मुगलों ने न सिर्फ उसे जेल बना दिया बल्कि ज़्यादातर राजद्रोह के अपराधियों को वहीँ रखा. सिखों के छठे गुरु हरगोबिन्द सिंह को जहांगीर ने यहाँ तमाम दूसरे राजाओं के साथ बंदी बनाकर रखा था. बाद में जब वह रिहा किये गए तो उनके साथ के राजाओं ने उन्हें साथ ले चलने की फ़रियाद की. जहांगीर ने कहा कि जितने राजा दामन पकड़ के आ सकते हैं गुरु का उन्हें ही रिहा किया जाएगा. रात भर थिगलियाँ जोड़ी गयीं और फिर उनका दामन पकड़कर 52 राजा निकल आये थे. किले पर इसी घटना के स्मृति में एक खूबसूरत गुरुद्वारा है जिसे “दाता बंदी छोड़ गुरुद्वारा” कहा जाता है. मान महल के भीतर अब भी वह गोल बारामदा भुतहा सा लगता है. जैसे उन क़ैदियों की कराहें गूँज रही हो उसमें.


एक जेल मुंगावली में देखी थी. खुली ज़ेल. जनता शासन के दौरान यह प्रयोग किया गया था. दीवारें नहीं थीं उसमें. क़ैदी स्वच्छंद घुमते थे. उन्हें तमाम शिल्प कलाएं सिखाई जाती थीं कि अपराध छोड़कर वे अपने पैरों पर खड़े हो सकें. लेकिन यह प्रयोग असफल हुआ. कई बार वक़्त से पहले आदर्शवादी तरीक़े से लागू कर दी गयी चीज़ें असफल होने के लिए अभिशप्त होती ही हैं. अब वहां खंडहर हैं उस आदर्शवादी स्वप्न के. उसी मुंगावली की असली वाली जेल में गणेश शंकर विद्यार्थी की वह मूर्ति वर्षों क़ैद रही जिसे वहां के पत्रकार चौराहे पर लगाना चाहते थे. विद्यार्थी जी का रिश्ता रहा था उस क़स्बे से सो आज़ादी के बाद उनकी मूर्ति गिरफ़्तार हुई वहाँ.


खैर, विषयांतर कर बैठा. माफ़ी चाहूँगा. हमारे पहले कोई पचीसेक लोग गिरफ्तारी दे चुके थे. इनमें से ज़्यादातर छुटभैये नेता और डिग्री कालेज के छात्रनेता थे जिन्हें जेलों का अच्छा खासा अनुभव था. हम उनके बीच बच्चे ही थे. मैं तो सबसे कम उम्र का था. अन्दर चले तो गए पर एक डर मन में था. जेल को लेकर एक छवि बनी हुई थी. लेकिन उस जेल में तो हम जैसे अतिथि थे. वहां तो उत्सव का माहौल था. शहर के सबसे अमीर सुनार और संघ के प्रतिबद्ध कार्यकर्ता रामा बाबू के यहाँ से रोज़ सुबह जलेबियों, समोसों, कचौड़ियों वगैरह का नाश्ता आता. एक कांग्रेसी नेता थे जिनके यहाँ से शाम का नाश्ता आता था. जनता दल की तो युवा शाखा के तमाम बड़े नेता जेल में थे ही. जेलर साहब अक्सर टहलते हुए चले जाते और हमारे सुर में सुर मिला कर आरक्षण की आलोचना करते. दिन भर पत्रकारों का आना जाना लगा रहता और हम सबकी तस्वीरें अगले दिन सुबह देवरिया के पन्ने पर छपतीं. शाम का खाना सबकी तरह मेरा भी घर से आया लेकिन उसके पहले किसी के सौजन्य से पूड़ी सब्ज़ी आ चुकी थी.


पापा को ख़बर मिली श्रीधर भैया से. वह हमारे नए पड़ोसी थे. राम गुलाम टोले के पीछे के खाली मैदान में बसे इस नए मोहल्ले में अभी कम लोग आये थे और सबसे पुराना बाशिंदा होने के कारण पापा का विशेष सम्मान था. जब कोई नया घर बनता तो पानी, चाय वगैरह की व्यवस्था हमारे ही घर से होती. श्रीधर भैया का बचपन कलकत्ता में गुज़रा था और अब उन लोगों ने यहाँ मकान बनवाया था जिसमें चाची जी और भैया रहते थे. चाची की उम्र काफी थी लेकिन ग़ज़ब की मेहनती थीं. अकेले दम पर पीछे की कोई दो कट्ठा ज़मीन में सब्ज़ी उगातीं. चाचा जी से उनकी बोलचाल नहीं थीं. लोग बताते थे कि श्रीधर भैया की एक बहन ने अपनी मर्ज़ी से शादी कर ली थी जिसका सारा गुस्सा चाचा जी ने चाची पर निकाला था. उनकी भाषा में बंगाली और भोजपुरी का ग़ज़ब मिश्रण था. कलकत्ते में रहने के कारण एक तरह का श्रेष्ठता बोध था उनमें. हमसे कहतीं, कलकत्ता में न एक ठो बहुते बड़ा चिरैयाखाना है. बजार तो इतना बड़ा है कि दू ठो देवरिया आ जाए उसमें. उहाँ की आलमारी में सात आठ सौ साड़ी पड़ा है हमारा. ला ही नहीं पाए.” श्रीधर भैया उनकी इकलौती संतान थे. उस दिन जेल भरो आन्दोलन में वह भी साथ गए थे लेकिन इन्स्पेक्टर साहब के समझाने पर समझ कर लौट गए थे. पापा को ख़बर मिली तो सीधे जेल आये. मुझे बुलावा आया मिलने का तो रूह सूख गयी. किसी तरह पहुँचा. पहला सवाल आया, जब सब लड़के वापस लौट गए तो तुम क्यों नहीं लौट आये? मैंने कहा, “ मैं नेतृत्व कर रहा था उस दिन, मैं कैसे पीछे हटता?” याद नहीं उन्होंने और क्या-क्या पूछा था और मैंने क्या बताया था, लेकिन जो भी था वह उतना बुरा नहीं था जितनी मैंने कल्पनाएँ की थीं.


रात हुई तो नेताजी लोगों की बाक़ी व्यवस्थाएं भी हो गयीं. सिगरेट तो सुबह से चल रही थी, अब दारू भी आ गयी थी. दो पैग अन्दर गए तो उनके भीतर के असली अमानुष बाहर आने लगे. उस उम्र में तो मैं सिगरेट के धुंए से भी दूर रहता था शराब पीते तो शायद जीवन में पहली बार किसी को साक्षात देखा था. उसके बाद के अश्लील गाने और बातें! उफ़ रूह काँप गयी थी. यही लोग थे जो मंच पर भाषण देते थे. जो ग़रीबों और युवाओं के नाम पर इतनी बड़ी बातें करते थे. बात बात में लोहिया-जयप्रकाश को कोट करते थे. वे मुझे अपने जैसा मान के चल रहे थे. जब सिगरेट बढ़ाई गयी हमारी ओर तो उसे “ख़तना” ही कहा गया. लेकिन मैं मन ही मन तय कर रहा था. मुझे इनमें से एक नहीं होना है.


अगली सुबह पापा जमानत के लिए दौड़ भाग करते रहे. उनके एक दोस्त थे वकील तो जमानत का इंतजाम उन्हीं के भरोसे था. लेकिन सब करते कराते शाम हो गयी और अब जमानत अगले ही दिन मिल सकती थी. एक और रात मुझे जेल में काटनी थी. शाम को जब महफ़िल जमने वाली थी तभी जेलर साहब आ गए. हमें देख के बोले “अभी से शुरू कर दिए पंडिज्जी?” हमने कहा “नहीं सर. मैं शराब नहीं पीता.” तो बोले चलो असली जेल दिखा के लाते हैं आपको. मैं उनके पीछे पीछे लग गया. मेरे साथ जो एक और लड़का गिरफ्तारी देके आया था एस एस बी एल का वह पहले ही दिन ख़ुशी ख़ुशी खतना और बप्तिस्मा दोनों करा चुका था. बाद में वह छात्रनेता ही बना. अंतिम मुलाक़ात उससे मेरी कोई दस साल पहले हुई थी जब मैं अपने एक रिश्तेदार से मिलने पहली और आखिरी बाद लखनऊ के विधानसभा मार्ग पर स्थित भाजपा के दफ्तर गया था. खैर, जेलर साहब मुझे लेकर जेल के तमाम हिस्से घुमाते रहे. हत्या के आरोप में गिरफ्तार एक खूंखार अपराधी को मैंने देखा जो सारी सारी रात भजन करता था और रोता था. एक डकैत को देखा जिसकी अगले हफ्ते रिहाई होनी थी और वह परेशान था कि दो महीने से कोई उसके घर से मिलने भी नहीं आया था. एक वार्ड में ढेर सारे लोग थे. कोई जेबकतरा था, कोई छोटी मोटी चोरी करके आया था, कोई छिनैती में, कोई मार पीट में. ये लोग ऐसे खेल कूद रहे थे जैसे अपने गाँव में हों. उन्हीं में एक लड़का था जो बिना टिकट यात्रा में पकड़ा गया था और तीन महीने बीतने के बावजूद जमानत नहीं हुई थी. मैंने कुर्ता जींस पहना हुआ था और जेलर के साथ बोलते बतियाते देख के उसने मुझे कोई नेता समझा. वह पैर पकड़ कर रोने लगा, “हमके छोड़ा देईं ए नेताजी. एक्को पइसा नाही रहे ओ दिन. रिस्तेदारी में मर गइल रहे केऊ. माई मरी जाई हमरे बिना. हमके छोड़ा लेईं. राउर गोड लाग तानी. राउर गुलामी करब...” मेरी कुछ समझ में नहीं आया. मैंने लाचारगी की निगाह से जेलर साहब को देखा. उन्होंने मेरा पैर छुड़ाया और बोले, “चलिए.”


अगले दिन मेरी जमानत हो गयी. पापा स्कूटर से लिवाने आये थे. रास्ते भर कुछ नहीं बोले. घर पहुँचा तो माँ से बोले, “लीजिये आ गए आपके सपूत. अब खीर पूड़ी खिलाइए और स्वागत कीजिए.” मम्मी का रो रो के बुरा हाल था. नाना, मौसी और जाने कौन कौन घर पर जमा था. सब मुझे कुछ न कुछ उपदेश दे देना चाहते थे. मैं चुपचाप भीतर गया और खुद को कमरे में बंद कर लिया. कोई घंटे भर बाद पापा आये. सामने कुर्सी पर वह थे और बेड पर मैं. थोड़ी देर यों ही बैठे रहे. फिर कहा, “यही सब करना चाहते हो जीवन में? इतना तेज़ दिमाग है. इतना दुनिया भर का पढ़ते लिखते रहते हो यह नहीं समझ पाते कि कच्ची मिट्टी दीवार में नहीं लगती. नेतागिरी करनी है तो इन लफंगों जैसा नेता बनके क्या मिलेगा? नेहरु हों, इंदिरा हों, लोहिया हों..ये सब बहुत पढ़े लिखे लोग थे. पढ़ लिख लो. डिग्री ले लो. चीजों को खुद समझो. फिर जो करना है करो.” जीवन में पहली बार पापा इतनी शान्ति से समझा रहे थे. शायद उन्हें मेरे बड़े होने का अहसास हो रहा था. मैंने एक शब्द कहा बस “जी.” वह उठ खड़े हुए और कहा, कल पूजा है. तैयारी कर लो. बोर्ड है इस साल. लौट के बात करते हैं.


पूजा यानी सरयू नदी के किनारे बसे हमारे गाँव सुग्गी चौरी की सालाना पूजा. दुर्गा हमारी कुलदेवी मानी जाती हैं. हालांकि मुझे लगता है कि ये जो दुर्गा रही होंगी वह दुर्गा के प्रचलित मिथक से अलग कोई स्थानीय देवी रही होंगी जिन्हें कालान्तर में दुर्गा बना दिया गया. दशहरे के आस पास यह पूजा होती थी जिसमें दो बेदाग़ बकरों की बलि दी जाती थी. बेदाग़ यानी काला तो सफ़ेद की एक चित्ती नहीं चलेगी और सफ़ेद तो कोई काला धब्बा नहीं होना चाहिए. बाबा और छोटे चाचा ऐसे दो बकरों का इंतजाम करके रखते. बड़े चाचा लखनऊ में थे, मंझले चाचा एयर फ़ोर्स में हैं तो उनकी जगह बदलती रहती, एक और चाचा हैं जो अब तो गाँव पर बस गए हैं लेकिन जाने कहाँ कहाँ रहे और कौन कौन सा गुल खिलाया. पूजा में सारा परिवार जुटता. बलि देने वाले का चयन जन्म से पहले ही हो जाता. उसे सेवईक कहा जाता था. मेरी पीढ़ी में मुझे सेवईक चुना गया था. बड़े चाचा और वह मस्त मौला चाचा भी सेवईक थे लेकिन अपनी एक बीमारी की वजह से बड़े चाचा ने छोड़ दिया था और मझले चाचा की पत्नी ने शादी के तुरत बाद उन्हें क़सम दिला दी थी तो वह भी किनारा कस चुके थे. तो अब जिम्मेदारी हम पर थी. घर के आँगन में सब लोग इकट्ठा होते. औरतें एक तरफ आड़ में और पुरुष सिर्फ धोती में आँगन के निचले हिस्से में. (चारों तरफ आँगन ऊंचा था और बीच में एक चौकोर तालाब जैसी सरंचना बना दी गयी थी जो मुख्य आँगन था) पहले हवन और मंत्रोच्चार होता. शुद्ध देशी घी में सने हविष्य के साथ “या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः” का स्वर लगातार ऊँचा होता जाता. फिर दो तीन लोग एक एक कर बकरे को पकड़ के लाते. जै हो दुर्गा मईया का नारा लगता. लकड़ी के एक बलि खंड पर उसे रखा जाता और सेवइक को गंडासे के एक वार से उसका सर धड़ से अलग करना होता. धड़ हटा दिया जाता और प्रसाद के रूप में रखे रोट (घी में सिंकी रोटी), चने और बताशे की थाली के बगल में सिर रख दिया जाता. दूसरे बकरे के साथ भी यही क्रिया दुहराई जाती. फिर सेवइक खून से सने कपड़ों में घुटने के बल बैठकर देवी का आह्वान करता और देवी उसके “सिर” पर आतीं. परकाया प्रवेश जैसा. फिर सारे घर के लोग पैरों में गिरते. अपनी अपनी समस्या पूछते. थोड़ी देर तक साथ रहने के बाद वह चली जातीं. देवी संस्कृत या हिंदी में नहीं शुद्ध भोजपुरी में बतिआतीं थीं. देवी के जाने के बाद सेवइक निढाल होकर गिर जाता. उसकी सेवा की जाती, नहलाया जाता, चाय पिलाई जाती तब जाके वह सामान्य हो पाता था.  फिर बकरों का मीट पकता. गाँव के लोगों में यह प्रसाद बाँट दिया जाता. घरवाले और पट्टीदार एक साथ खाते. सिर अलग से पकता. उस पर सिर्फ घरवालों और सेवइक का हक होता.


सबकुछ इतना हिंसक और रौद्र होता कि अब सोचता हूँ तो सिहरन होती है. इस भयावहता का अनुमान एक किस्से से लगाया जा सकता है. जिन अलमस्त चाचा का ज़िक्र किया मैंने उनकी शादी के बाद एक पूजा हुई. चाची जिस घर से आईं थीं वहां लहसन प्याज तक वर्जित था. विदाई के तीसरे दिन यह पूजा हुई. उन्हें भनक मिल गयी थी तो चाचा को तो खैर कसम दिला दी गयी थी और पूजा पर बैठे हम. रंग रूप तो जो हमारा है खैर वह है ही, उस दिन खून से सनी सफ़ेद धोती में मंत्रोच्चार करते, देवी के रूप में घर के लोगों को डांटते-हड़काते और झूमते जो उन्होंने मुझे देखा तो ऐसी खौफज़दा हुईं कि वर्षों ठीक से बात तक नहीं कर पाई. अब भी एक डर और झिझक उनकी आवाज़ में रहती ही है मेरे सामने.


जब कम्युनिस्टों से पहला पाला पड़ा और बात ईश्वर के अस्तित्व तक पहुँची तो मेरे पास सबसे मज़बूत तर्क इसी अनुभव का था. वह क़िस्सा आगे आएगा. अभी तो पूजा के बाद देवरिया लौटना था और बारहवीं की बोर्ड की परीक्षाओं का सामना करना था.  


हाँ, देवरिया लौटकर मैंने उस लड़के की जमानत करा दी थी.
  

                                                                     ....................जारीहै .....
                                      

परिचयऔरसंपर्क

अशोकआज़मी .... (अशोककुमारपाण्डेय)

वामजन-आन्दोलनोंसेगहराजुड़ाव
युवाकवि, आलोचक, ब्लॉगरऔरप्रकाशक
आजकलदिल्लीमेंरहनवारी     




“ग़ालिब-ए-ख़स्ता के बगैर” - सातवीं क़िस्त -अशोक आज़मी

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इस संस्मरण के बहाने अशोक आज़मीअपने अतीत के उन दिनों को याद कर रहे हैं, जिसमें किसी भी मनुष्य के बनने की प्रक्रिया आरम्भ होती है | पिछली दो किस्तों में उन्होने मंडल आन्दोलन के बहाने उस दौर की मानसिकता को समझने की कोशिश की थी | इस सातवी क़िस्त में वे एक किशोर बालक और एक अनुशासन प्रिय पिता के बीच के द्वन्द्व को पकड़ने की कोशिश कर रहे हैं, जो शायद इस समाज के साथ ही शुरू हुयी थी, और इस समाज के रहने तक बनी भी रहेगी ।

       
    
  

         तो आईये पढ़ते हैं सिताब दियारा ब्लॉग पर अशोक आज़मी के 
                          संस्मरण                     
              

                    
                          ग़ालिब-ए-ख़स्ता के बगैरकीसातवीं क़िस्त



तब उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद् की बारहवीं की बोर्ड की परीक्षा आल्पस की चढ़ाई से कम नहीं होती थी जिसमें बीच बीच में आपके शिक्षक आपके शब्दकोष में असंभवनामक शब्द घुसाते रहते थे. चौधरी साहब पापा के कालेज में गणित पढ़ाते थे. घर पर ग्यारहवीं-बारहवीं का ट्यूशन. सिद्ध वाक्य था उनका गदहा कहीं के, हो चुके पास बोर्ड में तुम.अब गणित के छह पेपर. छहों की अलग अलग किताबें. कैलकुलस संभालो तो स्टैटिक्स डायनामिक हो जाता था, अलजेब्रा साधो तो ट्रिगनोमेट्री रूठ जाती थी. फिर इनार्गेनिक केमिस्ट्री! उफ़! दसवीं में जीव विज्ञान का पर्चा दे कर आया तो पापा के पूछने पर कहा, अच्छा हुआऔर माँ से कहा कि मुक्ति मिली.तो डाक्टर बनने का सपना तो टूट ही चुका था अब इंजीनियर बनने के पापा के सपने का बाद में जो करते सो करते उस समय तो इंटर पास करना ही था. इन सबके बीच किन्हीं विषयों पर पूरा भरोसा था तो वे थे हिंदी और अंग्रेज़ी. हिंदी प्रेमशीला शुक्ला आंटी से पढ़ता था, जिनका ज़िक्र मैं पहले कर चुका हूँ. बोर्ड में दो तरह की हिंदी थी. एक साहित्यिक हिंदी और दूसरी सामान्य हिंदी. किताब एक ही थी, लेकिन सामान्य वाले छात्रों को कुछ अध्याय नहीं पढने होते थे. मैं सारे पढ़ता था. भूषण थे, शायद सेनापति भी. याद नहीं मुक्तिबोध सामान्य में थे या साहित्यिक में, लेकिन पहला परिचय वहीँ हुआ. आंटी ने कभी नहीं कहा कि यह कोर्स में नहीं है. उन्हें मेरी साहित्यिक अभिरुचि का पता था. जो पूछता बड़े प्यार से समझातीं. महीने में दो तीन दिन जाया करता. उस दौर में आंटी ने उन कविताओं में डूबना न सिखाया होता तो शायद मैं कवि तो नहीं ही हो पाता.


अंग्रेज़ी का क़िस्सा मजेदार है. छोटे कस्बों में अंग्रेज़ी का अपना ही जलवा होता है. पापा को अंग्रेज़ी ठीकठाक आती थी. बोलते पूरबिहा अंदाज़ में ही थे, यानी ओनली नहीं वनली. हम दोनों भाइयों को बचपन से अंग्रेज़ी के अखबार और पत्रिकाएं पढने को दी जाती थीं. मुझे हाईस्कूल की गर्मी की छुट्टियों में इंटर के किताब की कीट्स की ला बेल दां सां मसीपढ़ के अंग्रेज़ी कविता का जो चस्का लगा था वह बड़ी मुश्किल से पूरा हो पाता था. कालेज में सुदामा सिंह जी पढ़ाते थे. शुरू के दो तीन क्लासेज में उन्होंने शुरुआत की आई लाइक टू टीच इन इंग्लिश, बट यू विल नाट अंडरस्टैंडफिर हमने एक दिन कहा, सर आप अन्ग्रेजिये में पढ़ाइये, हम समझ लेंगे.तो डांट पड़ी जो हम जैसों के लिए मामूली चीज़ थी और हमने अंग्रेज़ी हिंदी मीडियम में पढ़ी. बोर्ड का अंग्रेज़ी का कोर्स भी कोई कम नहीं था. गद्य पद्य के अलावा जूलियस सीजर भी था. एक तरफ़ शेक्सपीरियन इंग्लिश में, दूसरी तरफ़ आज की अंग्रेज़ी में. इंटर कालेज के भरोसे न इस तरफ़ का समझ आता था न उस तरफ़ का. इसी बीच किसी ने डी पी सिंह सर का नाम सुझाया. हम झुण्ड बनाकर वहाँ पढ़ने पहुँच गए.


डी पी सिंह सर बनारस के रहने वाले थे, देवरिया के बी आर डी इंटर कालेज में शिक्षक हो कर आये और फिर प्रिसिंपल होकर रिटायर हुए तो यहीं बस गए. मेरे नाना उनके पहले बैच के छात्र रह चुके थे. कलेक्ट्रेट के सामने उनका सरकारी घर था. एक बेटी साथ में रहतीं थीं बाक़ी शायद बेटा विदेश में था और बाक़ी लोग बनारस में. गोरा रंग, दरमियाना क़द और आँखों पर काला चश्मा. तब उम्र रही होगी कोई सत्तर साल से ऊपर ही, लेकी सधी हुई आवाज़ थी और सधी हुई चाल. एक विदेशी साइकल थी उनके पास, उससे ही चलते थे. पुराने ढब के सोफे और एक आराम कुर्सी के अलावा ड्राइंग रूम में यहाँ से वहाँ तक बस किताबें ही किताबें.  शेक्सपियर, बायरन, शैली, कीट्स, यीट्स, इलियट..कौन कौन नहीं थे उन आलमारियों में. मेज के बीचोबीच एक हाथीदांत का एश ट्रे. सर डिनर के बाद एक सिगरेट पीते थे.


उन्होंने जूलियस सीज़र और पोएट्री पढ़ाना शुरू किया. सीजर शेक्सपीरियन अंग्रेज़ी में पढ़ाते. आरामकुर्सी पर तिरछे लेटे हुए. किताब सीने पर रखी, आँखें हमारी आँखों पर जमी और आइडेस आफ मार्फ़ हैथ कम.बट येट नाट गानकहते नाटकीयता से भर जाने वाला उनका खूबसूरत चेहरा आज भी मेरी आँखों के सामने है. एक Tampst (तूफ़ान) का दृश्य उन्होंने कोई हफ्ते भर में समझाया था. एक एक पात्र के भीतर जाकर जैसे पूरा महाकाव्य सामने ला देते. मैं मंत्रमुग्ध हो सुनता रहता. बीच बीच में सवाल करता, वह बच्चों सा चहक पड़ते. इस तरह देवरिया की उस धरती पर 1991 के किसी महीने में जूलियस सीजर फिर से ज़िंदा हो गया था, ब्रूटस फिर से नैतिकता और फ़र्ज़ की मंझधार में झूल रहा था, कैसियस फिर से षड्यंत्र रच रहा था...लेकिन बाक़ी छात्रों को परीक्षा भी देनी थी. सीजर पढने का मतलब परीक्षा के लिहाज से कुछ महत्त्वपूर्ण पात्रों का चरित्र चित्रण और कुछ एक महत्तवपूर्ण हिस्सों का सन्दर्भ सहित अर्थभर होता था इंटर के साइंस साइड के विद्यार्थियों के लिए. तो महीना बीतते-बीतते मेरे अलावा सभी लोग डा आलोक सत्यदेव के यहाँ चले गए. यही हाल शायद मेरे बाद वाले लड़कियों के बैच का भी हुआ होगा. तो सर ने उस बैच की इकलौती बची लड़की और मुझे एक साथ पढ़ाना शुरू किया. यह मेरी पहली को-एड थी. शाम चार बजे हम पहुँचते. डी पी सिंह सर के चाय का वक़्त था वह तो हमें भी चाय मिलती. फिर वह पढ़ाना शुरू करते. अचानक रुकते और कहते, अशोक वो उस रैक में तीसरे नंबर के खाने में फलां की एक किताब रखी है.किताब हाथ में आती तो बीच से कोई पन्ना खोलते और कहते, लो पढ़ो इसे.इस तरह कभी आधे घंटे तो कभी दो-दो घंटे हम उनके सान्निध्य में रहते और अंग्रेज़ी साहित्य के उन गलियारों में घूमते जहाँ देवरिया जैसे क़सबे से यों जा पाना नामुमकिन था.


वह पक्के नेहरूवादी थे. उन्हीं की तरह लिबरल डेमोक्रेट. जब मैं आरक्षण विरोधी आन्दोलन में सक्रिय हुआ तो अक्सर समझाते, रुक कर गौर से देखो. कौन से लोग हैं ये जो तुम्हारे आगे पीछे हैं. क्या तुम इनकी तरह जातिवादी बनना चाहते हो? क्या तुम नहीं चाहते कि हजार बरसों से जो अन्याय हुआ है जाति के नाम पर, उसके दाग़ से हमें मुक्ति मिले? अपनी जाति और अपने धर्म से ऊपर उठकर जिस समाज में लोग नहीं सोचते वह समाज कभी आगे नहीं बढ़ सकता.तब न उनकी बातें समझ आती थीं न सहमति बनती थी. मुझे तो बस साहित्य का वह रस खींच कर ले जाता था उनके पास जो कहीं और न था. दोस्त कहते, अबे स्साले. तीन महीना में सीजर पढोगे बीस नंबर के लिए तो हो चुके अंग्रेज़ी में पास.मैं कहता, अबे पास तो गधे भी हो जाते हैं. पर जो मजा मिलता है न उनके यहाँ वह कहीं नहीं मिलेगा.ज़ाहिर है मज़े का मतलब भाई लोग हमारी उस सहपाठी से लगाते जिससे उन सात-आठ महीनों में नाम तक पूछने की हिम्मत नहीं पड़ी थी मेरी.


खैर, गाँव से लौटने के बाद पापा एकदम बदल गए थे. मेरा पूरा टाइम टेबल तैयार था. अनसाल्वड पेपर्स के गहरे रिसर्च के बाद दसियों माडल पेपर्स बने रखे थे. सुबह चार बजे उठते. चाय बनाकर मुझे जगाते. फिर नौ बजे तक लगातार पढ़ना. फिर नहा धो के ग्यारह बजे नाश्ता करके बैठ जाता तो माँ को हिदायत दे के कालेज निकलते. दिन भर के सवाल और अध्याय तैयार रहते. दिन में तीन बजे खा के दो घंटे का सोना. फिर छः बजे से रात नौ बजे तक पढ़ाई, फिर खाना और अगले दिन के टार्गेट के बारे में बातचीत. दस बजे हर हाल में सो जाना. घर पर न किसी के आने की इजाज़त थी न हमें गेट से बाहर निकलने की. हद से हद बाहर पापा के लगाये कैक्ट्स और गुलाब के बीच टहल लो या पीछे अमरुद और आम के पेड़ों के दर्शन कर लो या फिर छत पर टहल लो. अखबार सिर्फ पापा पढ़ते थे और फिर कहीं छुपा कर रख दिया जाता. टीवी का तो खैर सवाल ही नहीं उठता था. और तो और ननिहाल जाना भी बंद करा दिया गया. और इन सबके लिए न मार न डांट. बस एक धमकी, निकले तो फिर तुम जानो और तुम्हारा काम. बोर्ड के इक्जाम्स में मैं कोई मदद नहीं कर पाऊंगा.मुझे पता था कि वे कितने जिद्दी थे और यह भी कि उनके बिना अपनी नैया पार नहीं होनी. तो सब बर्दाश्त किया.


मुझे सबसे ज़्यादा दिक्कत स्थैतिकी (statics) के पेपर में होती थी. दिन में तीन बजे से पेपर होता था. सुबह उठा तो पापा तीन सवालों की एक लिस्ट लेकर आये. कहा, जरा इन्हें देखो. चार पांच साल से नहीं आये हैं.मैंने कहा, जब चार पांच साल से नहीं आये तो अब क्या आयेंगे.वह बोले, करके तो देखो साल्व.मैं भुनभुनाते हुए भिड़ा. तीनों में से एक भी साल्व नहीं हुआ. वह मुस्कुराए और एक एक कर तीनों साल्व कराया. पेपर मिला तो वे तीनों सवाल आये थे. 33 में से 17 नंबर के सवाल!


बहुत बाद में माँ ने बताया कि उन दिनों सारी सारी रात जागते थे पापा. उद्विग्न होकर छत पर टहलते थे. वह भौतिकी के शिक्षक थे, लेकिन हिंदी, अंग्रेज़ी, गणित, रसायन सब पढ़ डाला था उन्होंने. डांट मार सब भूल गए थे. दो ढाई महीनों में खुद को घुला दिया था. परीक्षाओं में भी छोड़ने जाते सेंटर तक. लौट के आने पर बस पेपर हाथ में लेकर देखते और कहते अगले के लिए भिड़ जाओ.


आज उनके न रहने पर जो कुछ संतोष हैं उनमें से एक यह कि कम से कम उस परीक्षा में उनकी मेहनत बेकार नहीं गयी. भौतिक, गणित, रसायन..तीनों में 80 से अधिक नंबर आये. अंग्रेज़ी और हिंदी में भी साठ से ऊपर. कुल प्रतिशत 74 बना, जो उन दिनों के हिसाब से बहुत अच्छा था. वह रिजल्ट मेरा नहीं, पापा का था. तब समझ नहीं आता था. वह कहते, बाप बनबsतब बुझबsबाबू.वह ग़लत कहते थे, मैं तब समझ पाया जब उन्हें खो दिया. विकट ग़रीबी और अभावों में पढ़कर वहां तक पहुंचे पिता बस इतना चाहते थे कि हम दोनों भाई अपनी ज़िन्दगी में उन मुश्किलात से कभी रु ब रु न हों. शिक्षा के अलावा क्या था जो हमें यह सब दे सकता था. तो जो उचित लगा उन्हें वह किया. मेरी शरारतों से डरते थे कि कहीं मैं अपना जीवन नष्ट न कर लूं. उसका इलाज पिटाई और डांट लगता था उन्हें. था नहीं पर उन्हें कुछ और कैसे लग सकता था? जिस समय की पैदाइश थे वह उनसे इससे अधिक की उम्मीद कैसे की जा सकती थी?    


उन दिनों और आज भी छोटे कस्बों में डाक्टर और इंजीनियर बनना ही पढ़ाकू और सफल होने की निशानी माना जाता है. इनसे चूक गए तो फिर पी सी एस या आई ए एस. पापा चाहते थे मैं इंजीनियर बनूँ और फिर आई ए एस तथा भाई डाक्टर बने. भाई तो खैर बना भी. उन दिनों यह इतना आसान भी नहीं था. इंजीनियर कालेज इस तरह गली गली नहीं खुले थे. सबसे आसान एम एल एन आर, फिर रुड़की और आई आई टी. मेडिकल और मुश्किल था. अब तो यह हाल है कि कोई छात्र बहुत दिनों बाद मिलता तो पापा कहते, इंजीनियरिंग कर रहे हो?


पापा का अपना भी एक दर्द था. उस ज़माने में वह खुद इंजीनियर बनना चाहते थे. लेकिन आर्थिक स्थितियाँ ऐसी नहीं थीं कि बड़े सपने देख पाते. पाँच छोटे भाई बहन, बाबा की मामूली नौकरी, रेहन पड़े खेत और गहने. उन्नीस साल की उम्र में एम एस सी पास की तो जो पहला कालेज मिला, ज्वाइन कर लिया. पी एच डी भी बहुत बाद में कर पाए. बताते थे कि तब तीन सौ कुछ रुपये मिलते थे और दो सौ घर भेज दिया करते थे. पापा गाँव के पहले ग्रेजुएट थे तो गाँव वालों को भी बहुत उम्मीदें थीं. हमारे गाँव में एक बुजुर्ग थे चिरकुट बाबा. पापा के बाबा के संगतिया थे. जब पापा नौकरी ज्वाइन करके लौटे तो उनसे मिलने गए. सलाम दुआ के बाद वह पूछे, सुनलीं ह नोकरी लाग गइल तोहार?पापा बोले हाँ चाचा.का बन गइलsपापा ने दो मिनट सोचा और कहा, मास्टर बन गइलीं चाचा.वह उदास हो गए, का ए बाबू, एतना पढलs लिखलs, नदी पार क के गइलs. अ बनलs मास्टर. सिपहिये बन गईल रहतs कम से कम. नाहीं त देउरिया रहले क का फायदा? एसे नीक कि गंउए के स्कूलिया में पढ़वतs.     


तो हर युग के अपने सपने होते हैं. पापा के सपने उनके युग के ही हो सकते थे. यह अलग बात कि मेरी आँखों के सपने बदल चुके थे. ज़ाहिर है इन सब को लेकर और बाद में मेरी नौकरी को लेकर वह बहुत दुखी रहते. वे किस्से आगे. बहुत बाद में जब मैं नियमित पत्रिकाओं में छपने लगा, किताब आई तो उन्हें लगा कि सब कुछ निरर्थक नहीं. अक्सर पूछते थे, तुम्हें अवार्ड कब मिलेगा?मैं हंसकर उड़ा देता. जब भी फोन करते तो पूछते, क्या लिख रहे हो?आते तो कविताएँ सुनते, छपे हुए लेख पढ़ते. ग्वालियर में पवन करण, महेश कटारे, महेश अनघ (अब स्वर्गीय) और ज़हीर कुरैशी जी से कई मुलाकातें थीं उनकी. एक बार अमर उजाला में कविता छपी तो सुबह सुबह उनका फोन आया, बेहद खुश थे. मैंने कहा कि पापा यह तो छोटी बात है. वह बोले, अरे देवरिया में हंस से ज्यादा बड़ी बात है. तब समझ आया कि वह जो चाहते थे कोई पद या पैसा नहीं प्रतिष्ठा थी. खैर यह सब तो बाद की बातें हैं उस वक़्त तो इंटर में अच्छे नंबर आते ही नई मुसीबतें शुरू हो गईं थीं मेरे लिए.


                                                                             ....................जारी है .....
                                      

परिचय और संपर्क

अशोक आज़मी .... (अशोक कुमार पाण्डेय)

वाम जन-आन्दोलनों से गहरा जुड़ाव
युवा कवि, आलोचक, ब्लॉगर और प्रकाशक
आजकल दिल्ली में रहनवारी      



“ग़ालिब-ए-ख़स्ता के बगैर” - आठवीं क़िस्त - अशोक आज़मी’

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इस संस्मरण के बहाने अशोक आज़मीअपने अतीत के दिनों को याद कर रहे हैं । उन दिनों को, जिसमें किसी भी मनुष्य के बनने की प्रक्रिया आरम्भ होती है | पिछली क़िस्त में उन्होंने एक किशोर बालक और एक अनुशासन प्रिय पिता के बीच के उस द्वन्द्व को पकड़ने की कोशिश की थी, जो शायद इस समाज के साथ ही शुरू हुयी थी, और इस समाज के रहने तक बनी भी रहेगी । इस क़िस्त में वे अपने ननिहाल और ददिहाल के उन दिनों को याद कर रहे हैं, जिसमे एक बालक के पास आजादी भी होती है, और समाज से सीधे जुड़ने का अवसर भी ।

      
                  

             तो आईये पढ़ते हैं सिताब दियारा ब्लॉग पर अशोक आज़मीके
                                संस्मरण                    
          
                        

                                  ग़ालिब-ए-ख़स्ता के बगैरकी आठवीं क़िस्त
                                   
                                    

                  ऊ गरीब ह त ओके अइसे बोलइबs?


परीक्षा जितनी दारुण होती है, गर्मी की छुट्टियाँ उतनी ही शानदार. अब तो गर्मियों की छुट्टियों में भी माँ बाप दुनिया भर का कोर्स कराते हैं और स्कूल उसे कम से कम करने की कोशिश में लगे रहते हैं. इन दोनों का चले तो बच्चों को पंद्रह साल का होते होते एम बी ए करा दें. अगल बगल की कान्वेंट शिक्षित माताओं को बच्चों के होमवर्क और प्रोजेक्ट में इस क़दर उलझे देखता हूँ तो डर जाता हूँ. डागी देखो बेटा, मिल्क पी लो प्लीज़, चलो चलो बाथ करेंगे...के ज़रिये जो प्रशिक्षण शुरू होता है वह मैथ्स, सोशल स्टडीज, साइंस के होमवर्क से होता हुआ जाने कहाँ तक जाता है. हमारे ज़माने में तो माँ की चिंता बस यही थी कि भूख न लगने पाए. घंटा बीता नहीं कि, क्या खाओगे बाबू?.गर्मी की छुट्टियाँ तो मौज मस्ती के लिए ही बनी थीं. हाँ अगले साल की किताबें ज़रूर ले ली जातीं और पापा शाम को घंटे दो घंटे पढ़ाते कि प्रेक्टिस न छूट जाए. इंटर के बाद वाली छुट्टी पहली ऐसी छुट्टी थी जिसमें सब इतना शानदार नहीं था. आगे की चिंता थी. इस चिंता में यह भी शामिल था कि बड़ी मुश्किल से हाथ में आया लड़का कहीं फिर हाथ से न चला जाए. तो न बनारस का फ़ार्म भरने दिया गया न इलाहाबाद का. दिल्ली तो खैर बहुत दूर थी. ले दे के एक एम एन आर का फ़ार्म भरा गया और दूसरा गोरखपुर विश्वविद्यालय का. बी एस सी पापा ने भरवाया, बी ए हमने भर दिया और ननिहाल चला गया.


असल में मेरी कोई स्मृति ननिहाल और ददिहाल के बिना पूरी हो ही नहीं सकती. माँ-पिता आ घर मुझे सफल नागरिक बनाने का प्रयोग स्थल था तो ये दोनों जगहें मुझे पूरी आज़ादी से बिगड़नेकी सुविधा देने वाली. ननिहाल था भी मेरे घर से कोई दो किलोमीटर भर. साइकल से दस मिनट में पहुँच जाओ पीपरपांती. देवरिया के भूगोल से परिचित लोग भीखमपुर रोड पर बसे इस गाँव के बारे में जानते होंगे. एक नहर इसे शहर से अलग करती है. बहुतायत ब्राह्मणों और दलितों की है, लेकिन यादव सहित अन्य जातियों की संख्या भी पर्याप्त है. मेरे नाना का घर शिक्षित घरों में से गिना जाता था. शायद शिक्षा के अलावा थोड़ी ज़मीन जायदाद वालों के पास कोई चारा भी नहीं था उस बदलते दौर में. नाना ने इंटर पास किया था और पढाई के दौरान आज़ादी की लड़ाई में शामिल हो गए थे. गांधी और जयप्रकाश से बेहद प्रभावित नाना 1942 के आन्दोलन में गोरखपुर जेल में बंद हुए थे. देश आज़ाद हुआ तो घर के हालात पर नज़र गयी. सबसे बड़े थे तीन सगे और एक चचेरे भाइयों तथा चार बहनों में. किसी रिश्तेदार ने गोरखपुर रेलवे का पता दिया. पहुँचे तो वहां क्लर्क की नौकरी मिल गयी. घर चलने लगा. खद्दर जो तब अपनाई थी जीवन भर साथ रही. धोती, कुर्ता, गमछा, रुमाल ही नहीं घर की चद्दरें और दीगर कपड़े भी खद्दर के ही होते. रोज़ सुबह 7.30 की ट्रेन से गोरखपुर जाते और रात 8.30 पर लौटते. सुबह चार बजे उठकर तीन चार किलोमीटर घूम कर खेत-बारी का मुआयना कर लेते. बारी में कुछ आम और जामुन के पेड़ उनके भी थे लेकिन हमारे लिए पूरी बारी अपनी थी. पूरा गाँव नाना-नानी-मौसी-मामा था. इस अतिशय प्रेम की एक और वजह थी. कुछ ऐसा संयोग था कि नाना के तीनों भाइयों में से किसी को पुत्र नहीं हुए. घर में माँ सहित 9 बेटियां थीं. माँ सबसे बड़ी थीं तो मैं पहला नाती. ज़ाहिर है एक नहीं तीन नाना-नानियों और तमाम मौसियों के प्यार-दुलार पर इकलौता अधिकार कम से कम चार बरस तो रहा ही मेरा. हालांकि एक मौसी लगभग मेरी उम्र की थीं और तीन छोटी थीं. पुत्र की लालसा में अंतिम दम तक कोशिशें ज़ारी थीं. माँ की सगी दो बहने थीं जिनमें बड़ी मौसी की शादी मेरे होश संभालने से पहले हो गयी थी और छोटी मौसी जहाँ तक मुझे याद है उस समय नाना की सारी कोशिशों के बाद किसी तरह बारहवीं का सर्टिफिकेट हासिल कर दो तीन सालों से शादी की प्रतीक्षा कर रही थीं. माँ का भी वहां विशेष सम्मान था, न केवल सबसे बड़ी दिदिया होने के कारण बल्कि घर ही नहीं गाँव की पहली ग्रेजुएट होने के कारण. जिन्होंने मेरी माँ की डिग्रियाँकविता पढ़ी है वे जानते हैं कि किस तरह अनपढ़ नानी ने अपने पिता से किया वादा निभाने के लिए सारे गाँव से बैर मोल लेके माँ को पढ़ाया था. एक बार रास्ता खुल गया तो सबने पढ़ाई की.


तो ननिहाल हमारा आज़ाद देश था. वहां बारी के पीछे धूस के मैदान की क्रिकेट टीम के स्टार थे हम. वहाँ रिश्ते में मामा और दरहकीक़त दोस्तों की एक टोली थी जिसके रहते हमें शहर में किसी से डरने की ज़रुरत नहीं थी. वहां आम और जामुन के पेड़ थे जिनसे फल तोड़ते हुए हमें किसी के आदेश की परवाह नहीं करनी थी. वहां बिना मांगे पकौड़ी-फुलौरी खिलाने वाली नानियाँ थीं. वहाँ गुल्ली डंडा खेलने में साथ देने वाली मौसियाँ थीं. वहाँ गोली (कंचे) के दांव सिखाने वाले लोग थे. और वहाँ नाना के सिवा कोई नहीं था जो हमें डांटे. नाना तो रात को लौटते थे. तो दिन भर की धमाचौकड़ी में नानी की चिंता बस यह रहती थी कि सोनुआ अबहिन ले खइले नइखे.अरे! इतना किस्सा सुना गया और बचपन का वह नाम बताना भूल गया जिसके बिना देवरिया में ननिहाल और अपने मोहल्ले में तो कोई नहीं ही पहचानेगा – सोनू!  तो सोनू बाबू का साम्राज्य था वह गाँव!


शाम को नाना लौटते तो लकठा लेकर आते थे और साथ में अक्सर गीताप्रेस की किताबें. पर मैं तो लाइब्रेरी से लाई वे किताबें पढता जो वह अपने लिए लाते थे. संस्कृत का बड़ा स्वाध्याय था उनका तो सिखाने की कोशिश करते..काश सीख लिया होता! ऐसे ही नानी इलहाबाद की थीं और उनके पास कहावतों का अथाह भण्डार था. बिना कहावत उनकी बात पूरी ही नहीं होती. घर में दही ख़त्म होने को है और कोई मांगने आ गया तो उसे देने के बाद तोर नौज बिकाए मोके घलुआ दे.किसी ने बात न सुनी तो कहले धोबिया गदहा पर नाही चढ़ी, मौसी ने ज्यादा नखरे तो कईलीं न धइलीं, धिया ओठ बिदोरलीं’ और ऐसे ही न जाने कितनी कहावतें. अब लगता है काश उन्हें एक जगह नोट कर लिया होता! माँ से पूछ पूछ के काफी इकठ्ठा की हैं, लेकिन फिर भी उनके साथ ही चला गया इस धरोहर की एक बड़ा हिस्सा. कभी एक कविता में लिखा था, हर औरत के साथ चली जाती हैं कुछ कहावतें.  रात में नाना खाना खाने के बाद बैठते समझाने सिखाने. संस्कृत के श्लोक. फिर उनका अर्थ. गीता के श्लोक. राम चरित मानस का पाठ. ऊंघती आँखों से सुनने के बाद हम सुबह की डांट के लिए तैयार होते. सुबह चार बजे उनकी उठाने की कोशिश और हमारी आठ से पहले न हिलने की जिद बहुत बाद तक चली. अगर दिन में नाना की छुट्टी हुई तो दिनचर्या बदल जाती. वह अपने साथ कहीं न कहीं घुमाने ले जाते. कभी पास के किसी गाँव के रिश्तेदार के यहाँ, कभी गाँव में ही किसी के यहाँ. रास्ते में किस्से सुनाते. धार्मिक भी और राजनीतिक भी. एक आप भी सुनिए, एक जनी रहलं राजनरायन. सोसलिस्ट नेता. एक बार देवुरिया अइलं त फलाने के यहाँ डेरा पडल. फलाने कहलन अपनी मेहरारू से कि नेताजी तानि ढेर खालें, त रोटी ढेर बनइह. बइठलं राजनरायन खाए. रोटी आवत जाए. राजनरायन खात जाएँ. आटा ओराइल त अउर सनाइल. फिर सुख्ख्ल आटा ओरा गइल त बाज़ार से आइल. जब पचास गो हो गइल त कहलन बस अब रहे द. फलाना कहलं मन से नाही खईलिं हं का नेताजी.त भीत्तर से उनकर मेहरारू कहलीं, नाहीं अबहिन त खाली किलो से खईलीं ह नेताजी.उसी दौरान की एक घटना है- नानी के गाँव के फेकू रेलवे क्रासिंग के पास जूते बनाते थे. एक बार मैंने नानी के यहाँ जाने से ठीक पहले फट गयी चप्पल सिलवाई और पैसे नहीं थे तो कहा बाद में दे देंगे. वह कभी मांगते ही नहीं थे. मैं नानी के यहाँ पहुँचा तो नानी से बोला, ए नानी, फेकुआ के दू गो रुपिया दे दीह.नाना वहीँ आँगन में थे, बुलाया. बोले – केहू हमरा के सरदवा कही त कइसन लागी तोहके? मैं सन्न. ऊ गरीब ह त ओके अइसे बोलइबs? तोहरी अम्मा के दीदी कहेला न? त मामा कहत जीभ काहें अईन्ठात बा? फिर रात को उस दिन उन्होंने देर तक लोहिया के बारे में बताया. जाने उस उम्र में कितना समझ में आया लेकिन वर्षों बाद जब वेरा को घर में सहायिकाओं को आंटी बोलते सुनता हूँ, तो लगता है उनका कहा कुछ तो समझ में आया होगा. एक आदत ग़ज़ब थी उनकी. घर में कुछ बनता रहे राह चलते किसी को बुला के खिला देंगे. नानी कुडमुडाती थीं. पर उन्हें कहाँ चैन, कहेंगे- अरे ओ कुलीन के कहाँ मिली पकौड़ी. खिया दs. अक्सर फिर नानी के लिए नहीं बचता था. उसकी फ़िक्र किसे थी? बहुत बाद में समझ में आया. जाति और धर्म भेद मिटाना फिर भी आसान है, जेंडर के बारे में बराबरी की सोच बेहद मुश्किल है. लोहिया के वह शिष्य तो कभी न सीख पाए. नानी की मौत के बाद कलपते थे. पूरी दिनचर्या अस्त-व्यस्त हो गयी. खैर...


इसके उलट बाबा अलमस्त आदमी थे. बीड़ी पीने-सुरती खाने वाले, मांसाहार के ऐसे शौकीन कि डाक्टर ने फालिज के अटैक के बाद जब नमक बंद करवा दिया तो बिना नमक के मीट खाते. उर्दू सीखी थी. शेरो-शायरी के शौकीन. नौकरी बिजली विभाग में छोटी सी थी. बड़ा परिवार था. तंगी ऐसी कि कंजूसी मज़बूरी थी, पर तबियत अलमस्त. आजमगढ़ (अब मऊ) के मधुबन थाने से कोई पांच किलोमीटर दूर सुग्गीचौरी गाँव. नदी किनारे के उस गाँव में मछुआरों का बाहुल्य स्वाभाविक था. बाबा ने गाँव से बाहर मकान बनवाया था. सामने बड़ा सा मैदान जिसमें नीम का एक छाँहदार पेड़ था. बगल में धोबी लोग थे और एक बँसवारी जिसकी कइन तोड़कर हम धनुष बाण खेलते थे. सामने यादव लोगों का घर जिसके दुआर पर जामुन और नीम के पेड़ थे. हम गर्मी की छुट्टियों में घर जाते. मधुबन तक बस से. फिर वहां से इक्के से. बाबा साइकल से साथ साथ चलते. रास्ते भर लोग मिलते जुलते. गाँव पर हमारे आने से पहले मछलियाँ पहुँच जाती थीं. रसे वाली अलग बनती और भूनने वाली बाहर भूनी जातीं. आम और जामुन से घर मह मह महकता. दादी महिया और राब बचा के रखतीं. गन्ने की तो खैर कोई कमी थी ही नहीं. यहाँ जैसे विशिष्ट मेहमान वाला भाव आता. माँ-पापा तो पारिवारिक मसलों में उलझ जाते. पर मैं चाचाओं के साथ पूरा लुत्फ़ लेता. हमारी जामुन बटोरने का आनन्द खरीद के खाने वाले कभी नहीं जान सकते. गन्ने चूसते हुए गलफड़ फाड़ लेने का आनंद दस रूपये में एक गिलास जूस पीने वाले क्या समझेंगे? धान की रोपिया होती तो हम आगे आगे रहते. खेत पटाया जाता तो हेंगा पर चढ़ जाते. ट्यूबवेल चलता तो सब शहरातीपना छोड़कर नहाने लगते. बुआ गोइंठे पर गर्म गर्म रोटियां सेकतीं तो उन मोटी रोटियों पर घर के सरसों के तेल और सिल पर पिसे नमक पोत कर खाने में जो आनंद मिलता वह वर्णन नहीं किया जा सकता. पढाई वगैरह का तो खैर सवाल ही नहीं उठता लेकिन एक मजेदार चीज़ थी. एक चाचा को गुलशन नंदा, कुशवाहा कान्त वगैरह पढने का बड़ा शौक था. बाहर बनी दो कोठरियों में से एक में वे सब रखी थीं. उन्हें पढने (जाहिर है चुराकर) का चस्का वहीँ से लगा जो काफी दिनों तक रहा. साथ में बाबा के लिए बीड़ी सुलगाते हुए एक कश मार लेने का चस्का भी. यही शायद आगे चलकर सिगरेट की पूर्वपीठिका बना. नाना के गाँव से उलट यहाँ ब्राह्मणों का बस एक घर था. इस अलग माहौल में अलग तरह के दोस्त बने. अलग चीज़ें सीखीं. शहर से दूर यह एकदम असली वाला गाँव था जहां लाईट शायद नब्बे के दशक में पहुँची और पहला टायलेट हमारे घर में बना शायद 95 के आसपास. गाँव में प्राइमरी स्कूल भी नहीं था. बस थे तो डीह बाबा जो सभी जातियों के देवता थे और बंगाली डाक्टर जिनके पास हर रोग का एक इलाज था. 


बाबा पढाई को लेकर बहुत कड़े थे. बीच में ज्यादा कुछ नहीं कहते लेकिन रिजल्ट को लेकर एकदम सख्त रहते थे. एक किस्सा सुनाये बिना बात पूरी नहीं होगी. उस साल हाईस्कूल की परीक्षा देकर हम गाँव चले आये थे. रिजल्ट की व्यवस्था यह हुई थी कि रिश्ते के एक मामा जिन्हें किसी काम से आना था उसे लेकर आयेंगे. वह आये. बाबा ने पूछा तो बोले, रोल नंबर भुला गइलीं त जी आई सी के जेतना लइका फर्स्ट डिविजन आइल बान स कुलहीन क रोलनंबर लिख ले आइल बानी.बाबा बोले, ठीक कइलs हs. सेकण्ड आयें चाहें फेल होखें एम्मे कौन अंतर बा?सुनकर हाथ पाँव फूल गए. जाके छत पर छुप गया और सुनने लगा. जब पापा की आवाज़ आई, हाँ, यही है सोनू का रोल नंबर.तब शान से विजेता भाव लिए नीचे उतरा. बाबा किसी को जलेबी लाने भेज चुके थे.



तो ये थीं दो ऐसी दुनियाएं जो पापा के अनुशासन के बीच गढ़ रही थीं मुझे...गोरखपुर पहुँचा तो वह था जो इन सबसे बना था.       
     
                                                             ....................जारी है .....
                                      

परिचय और संपर्क

अशोक आज़मी .... (अशोक कुमार पाण्डेय)

वाम जन-आन्दोलनों से गहरा जुड़ाव
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आजकल दिल्ली में रहनवारी      

     
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