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राजेन्द्र कुमार की कवितायें पढ़ते हुए - संतोष कुमार चतुर्वेदी

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सिताब दियारा ब्लॉग पर आज प्रस्तुत है, वरिष्ठ साहित्यकार प्रो. राजेन्द्र कुमार की कविताओं पर युवा कवि संतोष कुमार चतुर्वेदी की समीक्षात्मक टिप्पड़ी               


                

                 राजेन्द्र कुमार कीकविताएँ पढ़ते हुए




मैं अपनी बात की शुरुआत एक जिक्र से करूँगा। अभी हाल ही में मेरे एक मित्रने बताया कि उनका बेटा जो सातवीं कक्षा में पढता है, कहानियांलिखने की कोशिशें कर रहा है। और इसी क्रम में उसने कुछ कहानियाँ लिखी भीहैं। लेकिन एक दिक्कत है कि वह इन कहानियों का ठीक से समापन नहीं कर पाता। क्योंकि उसकीकहानियां वास्तविकता के धरातल पर खड़ी होती हैं। मित्र ने बेटे से जब यह कहाकि कल्पना का घोडा दौड़ा कर वह अपनी इन कहानियों को पूरा करने की कोशिश करेतो उसने एक सवाल किया कि क्या उसे कल्पना यानी झूठी बातें लिख कर अपनीकहानी पूरी करनी पड़ेगी? तो मित्र ने उसे बताया कि कल्पना का मतलब झूठ नहींहोता।फिर भी पुत्र आश्वस्त नहीं हो पाया और उसकी तमाम कहानियाँ अधूरी पड़ी हुईं हैं। 

राजेन्द्र कुमार  कविताएँ पढ़ते हुए सामान्य से लगने वाले इसप्रसंग का जिक्र मैंने इसलिए किया कि राजेन्द्र कुमार जी ने अपनी कविताओं में जहाँ भी कल्पना का अपना घोडा दौड़ाया है वहाँ वह कपोल-कल्पित नहीं बल्कि यथार्थपरक दिखायी पड़ता है। ऐसा नहीं कि वहां कल्पनाएँ नदारद हैं बल्किउनके यहाँ वे प्रचुरता में दिखाई पड़ती हैं। और  अर्थ में अगर घनानन्द कासहारा ले कर कहूँ तो 'हृदय से संवाद किये बिना राजेन्द्र कुमार जी की कविताओं को ठीक से समझ पाना संभव नहीं है।' मामूली लगने वाले किसी भी संदर्भ को ले कर राजेन्द्र कुमार कविता का जो वितान रचते हैं वह चकित नहीं करता बल्कि हमें एक नए तरीके से और गहराई तक सोचने के लिए विवश करता है। यहाँ पर मुझे फ्रेंच कवि पॉल वेलरी की याद आ रही है जो कहते हैं कि 'गद्य यदि एक स्थान से दूसरे स्थान की यात्रा है तो कविता अपनी जगह पर नृत्य है।' राजेन्द्र कुमार की कविता में  यह नर्तन हर जगह भरा पड़ा है। लेकिन यह नर्तन सिर्फ मनोरंजन के लिए नहीं है बल्कि जीवन की गहरी गुफाओं मेंसंघर्ष के छिपे हुए बिम्ब को तलाशने की एक जद्दोजहद की तरह है। राजेन्द्र कुमार मानवता को प्यार करने वाले कवि हैं। मैं कहूँगा मनुष्यता को शिद्दत से प्यार करने वाले कवि हैं  और इसीलिए इस राह में आड़े आने वाले जाति, धर्म, सम्प्रदाय जैसे अवरोधों की कड़ी आलोचना करने से नहीं चूकते। सोच से प्रगतिशील हैं लेकिन यह प्रगतिशीलता कविता के शिल्प में व्यवधान नहीं डालती अपितु उसे एक नयी राह दिखाती है। वैचारिक रूप से प्रतिबद्ध होते हुए भी वैचारिकता कविता के आड़े नहीं आती यह राजेन्द्र कुमार से सीखा जा सकता है। यहीं पर हमें वैचारिकता की जरुरत का गहराई से अहसास होता है जो कवि के सोच की रीढ़ बन जाती है।    

आज दिल्ली की गद्दी पर दक्षिणपंथी पार्टी सत्तासीन है। धर्म का व्यापार उसका पुराना शगल रहा है। या यूँ कहने उसका समूचा अस्तित्व ही धर्म पर टिका हुआ है। अगर आपको भरोसा न हो तो बहुमत वाली इस पार्टी में अल्पसंख्यक समुदाय से चुने गए सदस्यों की सूची पर आप एक नजर डाल लीजिये। आपको इत्मीनान हो जाएगा। अभी दो-चार रोज पहले ही इस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने कहा कि उत्तर प्रदेश में साम्प्रदायिक तनाव जितना अधिक बढेगा उनकी पार्टी के लिए यह फायदेमन्द होगा। इससे समझा जा सकता है कि इस पार्टी के इरादे क्या हैं? यूरोप में पुनर्जागरण की लहर उभरने के साथ ही धर्म सुधार आन्दोलन शुरू हुआ और इस क्रम में वहाँ धार्मिक लड़ाईयों का ऐसा लम्बा सिलसिला चला जिसमें लाखों लोगों को इसलिए अपनी जान गंवानी पड़ी क्योंकि उनका धर्म शासक के धर्म से अलग था। इतिहास गवाह है कि धर्म के नाम पर हुई लड़ाईयों में अब तक जितने लोग मारे गए हैं उतने लोग राजनीतिक लड़ाईयों में नहीं मारे गए। दुर्भाग्यजनक रूप से यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। मुझे समझ नहीं आता कि धर्म की स्थापना जिन मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिए मानव सभ्यता के विकास क्रम में मानव को सभ्य बनाने के लिए हुआ, वह आगे चल कर इतना प्रतिगामी और मानव विरोधी कैसे होता गया। धर्म कब दुकानदारी में बदल गया यह अध्ययन का एक अलग और दिलचस्प विषय हो सकता है। लेकिन इस बात के हमारे पास प्रचुरतम साक्ष्य हैं कि शासकों ने अपने राष्ट्र-राज्य को मजबूत बनाने के लिए धर्म-प्रचार को बढ़ावा दिया। इसके बावजूद धर्म मानवता से हमेशा पीछे रहा। क्योंकि अन्ततः सच या यूं कहें कि आत्मबल ही बच जाता है। बहरहाल धर्म के इस कट्टरता की खिल्ली उड़ाते हुए राजेन्द्र कुमार कहते हैं

इसका रंग भगवा हो चाहें हरा
इसका रंग लहू का रंग तो नहीं होता
फिर इसे रंगने के लिए
आख़िरकार
इस कदर जरुरी क्यों हो जाता है बहाना
इंसान का लहू
इसे अपने से भी ज्यादा ऊँचाई पर फहराने की जिद में
जरुरी क्यों हो जाता है हर बार
इंसान के लिए
इंसान से जियादह बनना
किसी मंदिर का कंगूरा
या मस्जिद की मीनार

(धर्म की ध्वजा’ कविता से, ‘हर कोशिश है एक बगावत’ संग्रह से, पृष्ठ 111)     

आखिर ऐसा क्यों होता है कि जिस धर्म का अस्तित्व ही आदमियों के वजूद पर टिका होता है वही धर्म आदमियों के जान का प्यासा हो जाता है। क्या किसी ऐसे धर्म की कल्पना हम कर सकते हैं जिसको मानने वाला एक भी व्यक्ति न हो? फिर यह खून-खराबा क्यों? जाहिर सी बात है अपना स्वार्थ साधने के लिए। आम लोग इसे समझ नहीं पाते और दुष्चक्र के शिकार हो अपना वजूद ही ख़त्म कर लेते हैं? चंडीदास की वह पंक्ति मुझे इस समय याद आ रही है ‘साबार उपर मानुस सत्य।‘ यहाँ क्रांतिकारी कवि पाश की कुछ पंक्तियों का उल्लेख भी करने से मैं खुद को नहीं रोक पा रहा –

‘मैं सलाम करता हूँ
आदमी के मेहनत में लगे रहने को
मैं सलाम करता हूँ
आने वाले खुशगंवार मौसमों को
मुसीबतों से पाले गए प्यार जब सफल होंगे
बीते वक्तों का बहा हुआ लहू
जिंदगी की धरती से उठा कर
मस्तकों पर लगाया जाएगा  

होना तो यह चाहिए था कि सभ्यता के विकास क्रम में आदमी को थोड़ा और आदमी या कहें तो थोड़ा और इंसान होना चाहिए था। लेकिन हुआ उल्टा। वह कहीं हिन्दू हुआ तो कहीं मुसलमान हुआ, कहीं सिख हुआ तो कहीं ईसाई हुआ। बस आदमी ही नहीं हुआ। यह हर ज़माने की समस्या रही है। तभी तो मिर्जा ग़ालिब कह उठते हैं - ‘आदमी को मयस्सर नहीं इंसा होना।‘ आज इक्कीसवीं सदी में भी यह समस्या ज्यों की त्यों है। कवि राजेन्द्र कुमार भी समस्या के इस पहलू पर दृष्टिपात करते हुए कहते हैं

‘सबको मिले उन्नति के समान अवसर
स्त्री कुछ और स्त्री हुई
पुरुष कुछ और पुरुष  
हिन्दू कुछ और हिन्दू हुए
मुसलमान कुछ और मुसलमान ....
नहीं हुआ तो सिर्फ
आदमी ही नहीं हुआ कुछ और आदमी।
(‘इस साल भी’ कविता से, वही, पृष्ठ- 114-115)

आदमी का आंसू उसकी आँखों में जैसे का तैसे है। आदमी से आदमी की दूरी लगातार बढती गयी है। ऐसा संवेदनहीनता की वजह से ही है। आजकल तथाकथित उदारवाद का जोर है। हमारे देश में भी 1991 से आर्थिक उदारीकरण का दौर आरम्भ हुआ। लेकिन इसके बाद परिदृश्य और खराब होता चला गया। नाम तो है उदारवाद लेकिन असल में है यह ‘उजाड़वाद’। इसने आम आदमी का सब कुछ उजाड़ दिया। तहस-नहस कर दिया। गरीबों की गरीबी और बढती चली गयी। धनिकों का धन और बढ़ता चला गया। यही नहीं आवारा पूँजी ने निम्न मध्यमवर्गीय लोगों तक को उनकी सामान्य जरूरतों से दूर कर दिया। सब पर उपभोक्तावाद और बाजारवाद हावी होता चला गया। अफ़सोसजनक रूप से खुद को कम्युनिस्ट और समाजवादी बताने वाले भी इस अंधी दौड़ में शामिल हो गए। हम लोगों ने एक पाखण्ड निरन्तर बनाए रखा। हमारे व्यवहार और सिद्धान्त में जमीन आसमान का अन्तर आता चला गया। ऐसे में हमारी बातें कितनी असरकारी होतीं यह एक सवाल तो है ही। आज फांसीवाद का जो एक भयावह वातावरण बना है वह ऐसे ही नहीं बना है। उसमें हम सबकी असफलताएँ हैं। जनता को हम अपनी बातें समझाने में पूरी तरह नाकाम रहे। आखिर जनता भी हमारी लफ्फाजी कब तलक सुनती। कुल मिला कर मार पड़ी तो जनता पर। जनता जो उस खरबूजे के समान है जिसे किसी भी हालत में कटना ही है। चाकू उसके उपर गिरे या फिर वह चाकू के उपर गिरे। आंसू जो उसकी आँखों में शुरू में थे, वे अब भी जैसे के तैसे हैं। हमारे समय के एक महत्वपूर्ण कवि केदार नाथ सिंह अपनी एक कविता में पूछते हैं –

‘कितनी लाख चीखों
कितने करोड़ विलापों-चीत्कारों के बाद
किसी आँख से टपकी
एक बूँद को नाम मिला
आंसू.... कौन बतायेगा
बूँद से आंसू
कितना भारी है।
(आंसू का वजन’ कविता, ‘सृष्टि पर पहरा’ संग्रह, पृष्ठ- 75)

जाहिर सी बात है आदमी के आंसू यूं ही नहीं निकलते। उसमें बड़ी व्यथाएँ होती हैं। इस व्यथा का आज पुरसाहाल नहीं। स्थितियां और भयावह होती जा रही हैं। किसान और मजदूर जो किसी भी अर्थव्यवस्था के आधारभूत स्तम्भ होते हैं वही शोषण के अधिक शिकार बनते हैं। हमारे यहाँ किसानों की आत्महत्या का दौर तो जैसे खत्म होने को ही नहीं दिखाई पड़ रहा। विदर्भ हो या फिर बुन्देलखण्ड, किसान रोज आत्महत्या कर रहे हैं और हमारे देश का प्रधानमंत्री एक दिन में पाँच बार ड्रेस बदलने में व्यस्त रहता है। उसका सम्मोहन हमारे उपर कुछ इस तरह का है कि हम इससे आक्रोशित नहीं होते हैं बल्कि उसकी तारीफ के और कसीदे काढ़ते हुए कह उठते हैं कि ‘वाह क्या ड्रेस सेन्स है।‘ इससे यह अन्दाजा लगाया जा सकता है कि हमारे सोचने समझने की धार को कितना कुंद किया जा चुका है। प्रलोभन इस तरह के हैं कि हम उसके लिए लार टपकाते रहते हैं। और अपने सारे विषाद दरकिनार करके एक उन्माद में पड़े रहते हैं। राजेन्द्र कुमार की एक कविता है ‘बहादुर शाह जफ़र से एक संवाद’। अपनी इस कविता में वे कहते हैं –

‘ऐ मेरे बुजुर्ग-मोहतरम,
अंग्रेज कंपनी बहादुर के
जुल्म के मारे किसानों और दस्तकारों
और मेहनतकशों के
खून का उबाल तुमने देखा था... ...
वह खून                      
आज वर्ल्ड बैंक के किसी खाते में
जमा करा दिया गया है
और हमारे किसानों को
कोई कुछ बताने वाला नहीं है
कि वे क्या कर सकते हैं
सिवा खुदकशी करने के।‘

इस कविता के अन्त में राजेन्द्र कुमार लिखते हैं –

‘हमारा लहू सिर्फ इतिहास के पन्नों पर
सूख चुका लहू नहीं है
हमारे रक्त कण
उमड़ आकर किसी भी क्षण
ज्वार बन सकते हैं
और हम एक नया
जन उभार बन सकते हैं’
(वही, पृष्ठ 128-29)

काश यह ज्वार उमड़ता। काश एक जन उभार बनता और अपने हको-हुकूक के लिए वह सब कुछ कर डालता जो करना जरुरी होता है। लेकिन अफ़सोस तो यह कि प्रतिरोध की संस्कृति ही लगातार समाप्त होती जा रही है। और हम उपभोक्तावाद और बाजारवाद को ही अपना श्रेय-प्रेय मानने लगे हैं। राजेन्द्र कुमार अपने पहले संग्रह ‘ऋण गुणा ऋण’ की कविता ‘पावस की शाम’ में लिखते हैं-

‘ये भीगी दीवारें
यह धूली हुई छत
ये बलखाती बेलें
और चमकीली बूंदे हाथों में थामे उसके पत्ते...
सब कुछ-
जैसे डूब गया है
किसी गहरे विषाद में
(‘ऋण गुणा ऋण तथा कुछ अन्य कविताएँ’, पृष्ठ 12-13)

बकौल राजेन्द्र कुमार यह कविता आपात काल के दौरान लिखी गयी थी (‘ऋण गुणा ऋण...’ की भूमिका, पृष्ठ- 9) आपातकाल कब का बीत चुका है फिर भी यह विषाद निरन्तर क्यों बना हुआ है? क्या हम एक ऐसे समय में नहीं रह रहे जो कि सार्वभौम तरीके से आपातकालीन स्थितियों से ही भरा पड़ा है? इसी संग्रह की एक और कविता ‘प्रार्थना का मौन’ में राजेन्द्र कुमार जी लिखते हैं- ‘उन्होंने कहा-

प्रार्थना करो
प्रार्थना में शक्ति होती है
भेद खुला- प्रार्थना से ज्यादा
प्रलोभन था शक्ति का
(‘ऋण गुणा ऋण...’ पृष्ठ-133) 

प्रार्थना जैसा विशुद्ध आध्यात्मिक तत्त्व भी किस तरह शक्ति जुटाने के लिए प्रयुक्त किया जा रहा है। सब तरफ एक अजीब तरह का घालमेल है। राजेन्द्र कुमार की कविता इस घालमेल को साफगोई से उद्घाटित करती है।  

हर तरफ माहौल जब हताशाजनक है, राजेन्द्र कुमार का कवि मन अपनी कोशिशें लगातार कर रहा है। वह हाथ पर हाथ धरे किसी अजूबे की प्रतीक्षा नहीं कर रहा। या ‘अच्छे दिनों का इन्तजार’ नहीं कर रहा बल्कि अपने वजूद को कायम रखते हुए वह बेहतरी के लिए निरंतर जुटा हुआ है। वह अपनी हर कोशिश को बगावत के रूप में देख रहा है। इस तरह यह कवि हर हताश मन को सकारात्मक सोच से भरने की कोशिशों में लगा हुआ है। यह अनायास नहीं कि राजेन्द्र कुमार जी के दूसरे कविता संग्रह का नाम ही है- ‘हर कोशिश है एक बगावत’। अपने इसी शीर्षक कविता में वे लिखते हैं –

‘हर कोशिश है एक बगावत
वरना, जिसे सफलता-असफलता कहते हैं
वह सब तो हस्ताक्षर हैं
किये गए उस सन्धि-पत्र पर
जिसे व्यवस्थाएँ प्रस्तुत करती रहती
हम सबके आगे’

(हर कोशिश है एक बगावत, पृष्ठ 15)

शुक्र है कि कवि बने बनाए हर उस चौकठे को तोड़ने के पक्ष में है जिसे एक व्यवस्था का रूप दे कर अकथनीय शोषण का तन्त्र बना दिया गया है। जब तक यह चौकठा नहीं टूटेगा तब तक किसी नयी शुरुआत की कल्पना नहीं की जा सकती। वे जीवन के लम्बे-चौड़े शीशे को किसी भी बने-बनाए चौकठे में जड़ने की बजाय चूर-चूर हो कर उन किरचों में बदल जाना चाहते हैं जो स्वयं में अपना एक स्वतन्त्र अस्तित्व कायम करे। अपनी एक कविता ‘शीशा’ में वे कहते भी हैं –

‘जीवन का जो चौड़ा शीशा
मुझे मिला है
इसे कृपा कर
छोटे-संकरे चौकठ में
जड़ने का
कसने का
मत करो
कोई भी प्रयास मत करो।’

(ऋण गुना ऋण..., पृष्ठ 29)

जीवन के रणक्षेत्र में हर दिक्कतों का सामना कर स्वतन्त्र अस्तित्व बचाने के लिए प्रतिबद्ध इस कवि का हम स्वागत करते हैं, और दीर्घायु होने की कामना करते हैं।


सन्दर्भ
१.      राजेन्द्र कुमार, ऋण गुना ऋण तथा कुछ अन्य कविताएँ, साहित्य भण्डार, इलाहाबाद, 2014
२.      राजेन्द्र कुमार, हर कोशिश है एक बगावत, अंतिका प्रकाशन, गाजियाबाद, 2013
३.      केदार नाथ सिंह, सृष्टि पर पहरा, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2014

               

परिचय और संपर्क

संतोष कुमार चतुर्वेदी
युवा कवि, ब्लॉगर और संपादक
इलाहाबाद में रहनवारी
                                                                                          


             

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