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सीरियाई कवि अडोनिस की कवितायें

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             आज सिताब दियारा ब्लॉग पर अडोनिस की कवितायें  
                        अनुवाद सरिता शर्मा का है ....|



सीरिया में 1 जनवरी1930में जन्मे अली अहमद सईद अस्बार को विश्व कविता के प्रेमी उनके उपनाम अडोनिस  के नाम  से जानते हैं. वह  सीरियाई लेबनानी मूल के कवि, साहित्यालोचक, अनुवादक, सम्पादक और अरबी साहित्य और कविता का एक अत्यंत प्रभावशाली नाम हैं. अपने राजनैतिक विचारों के लिए अडोनिस को अपनी ज़िन्दगी का एक हिस्सा जेल में बिताना पड़ा था. 1957 में अपना मूल देश त्यागने के बाद अडोनिस लेबनान में रहने लगे. उन्होंने एक बार कहा था, मैं एक ऐसी भाषा में लिखता हूँ जो मुझे निर्वासित कर देती है. कवि होने का मतलब यह हुआ कि मैं कुछ तो लिख ही चुका हूं. पर वास्तव में लिख नहीं सका हूं. कविता एक ऐसा कार्य है जिसकी न कोई शुरुआत होती है न अंत. यह असल में एक शुरुआत का वायदा होती है, एक सतत शुरुआत.उनका नाम अरबी कविता में आधुनिकतावाद का पर्याय बन चुका है. कई बार अडोनिस की कविता क्रांतिकारी होने के साथ- साथ अराजक नज़र आती है; कई बार रहस्यवाद के क़रीब. इनके बीस कविता-संग्रह छप चुके हैं जिनमें से ‘यदि सिर्फ़ समुद्र सो पाता,’  ‘रात और दिन के पन्ने,’ ‘अडोनिस का ख़ून,’ तथा दमिश्क और मिहयार के गीतप्रमुख है.



गीत

हमारी पलकों पर घुंघरू
और शब्दों की प्राणान्तक घुटन,
और मैं भाषा के मैदान में,
धूल से बने घोड़े पर सवार योद्धा.
मेरे फेफडे मेरी कवितायेंऔर आंखें किताब हैं,
और मैं, शब्दों के खोल में ,
फेन के चमकते तट पर,
एक कवि जिसने गाया और मर गया
छोड़ कर यह झुलसता शोकगीत
कवियों के सामने ,
आकाश के छोर पर उड़ते परिंदों के लिए.



गीतों के मुखौटे


अपने इतिहास के नाम पर,
कीचड़ में धंसे देश में,
भूख जब उसे काबू कर लेती है
वह खा लेता है अपना माथा.
मर जाता है.
मौसम कभी पता नहीं लगाता वजह का.
वह मर जाता है गीतों के अनन्त मुखौटों के पीछे.
एकमात्र वफादार बीज,
वह अकेला रहता है जीवन की गहराई में.



कुछ भी नहीं बचता पागलपन के सिवाय


मैं घर की खिड़कियों पर अब  झलक पाता हूँ
अनिद्र पत्थरों
 के बीच की नींद से दूर ,
चुड़ैल
 के सिखाये  बच्चे की तरह
कि समुद्र
 में रहती है एक औरत
 अपने इतिहास को अंगूठी में समेटे हुए
और वह
 तब प्रकट होगी
जब चिमनी
 में लपटें बुझने लगेंगी...

... और मैंने  इतिहास
 को देखा स्याह झंडे में 
जंगल की तरह आगे बढ़ते हुए
मैंने
 कोई इतिहास नहीं लिखा

मैं
क्रांति की आग  की लालसा में जीता हूँ
उनके सर्जनात्मक
 जहर के जादू में.
मेरी मातृभूमि
 इस चिंगारी के सिवाय  कुछ भी नहीं है,
अनन्त
 समय के अंधेरे में यह बिजली  ...


पाप की भाषा


मैं अपनी विरासत जलाकर कहता हूँ:
"मेरी भूमि अक्षत है, और मेरी जवानी में कोई कब्र नहीं है."
(मैं उठ जाता हूं भगवन और शैतान के रास्तों को लांघ जाता हूं.) .
अपनी किताब में उसके पार चला जाता हूँ
दैदीप्यमान वज्र की शोभायात्रा में ,
सब्ज़ वज्र की शोभायात्रा में ,
पाप की भाषा को खत्म करते हुए
चिल्लाते हुए :
"मेरे बाद कोई स्वर्ग होगा,न स्वर्ग से निष्कासन."



एक औरत का चेहरा


मैं एक महिला के चेहरे में रहता हूँ
जो एक लहर में रहती है
जिसे उछाल दिया है ज्वार ने
उस किनारे पर खो दिया है जिसने बंदरगाह
अपनी सीपियों में .
मैं उस औरत के चेहरे में रहता हूँ
हत्यारी है जो मेरी ,
जो चाहती है होना
एक जड़ आकाशदीप
मेरे खून में बहते हुए
पागलपन के अंतिम छोर तक.


भाषाओं के लिए एक गीत


ये सभी भाषायें,ये टुकडे,
खमीर हैं  
भावी शहरों के लिए.
संज्ञा, क्रिया,शब्द का ढांचा बदल दो ;
कह दो :
कोई पर्दा न रहे हमारे बीच
न बांध.
और ख़ुश करो दिलों को
इच्छा की मदिरा के फातिहों से
और उनके बंद आसमानों के उत्साह से.


भूखा  आदमी (एक सपना)


भूख उसकी नोटबुक पर चित्र बनाती है
सितारों या सड़कों के  ,
और पत्तियों को ढांप देती है
सपनों के आवरण से.
हमने देखा
प्यार के  सूरज को पलकें झपकते हुए  
और झलक मिली
उगते भोर की .


नींद और नींद से जागना


नींद में वह, वह विधान गढ़ता है
उग्र क्रांति के नमूने
उदीयमान भविष्य की संगिनी है जो .
फिर वह नींद से उठता है;
उसके दिन बन जाते हैं
एक तोता
गुजरती रात
और उनके खो गये सपनों का रोना रोते हुए.




अनुवाद और प्रस्तुति

सरिता शर्मा

दिल्ली में रहती हैं
अनुवाद और फिल्मों में विशेष रूचि
एक आत्मकथात्मक उपन्यास ‘जीने के लिए’ प्रकाशित





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